इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी ने मनाया डॉ.आंबेडकर का 47वाँ जन्मदिन..

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डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी – 34

 

पिछले दिनों एक ऑनलाइन सर्वेक्षण में डॉ.आंबेडकर को महात्मा गाँधी के बाद सबसे महान भारतीय चुना गया। भारत के लोकतंत्र को एक आधुनिक सांविधानिक स्वरूप देने में डॉ.आंबेडकर का योगदान अब एक स्थापित तथ्य है जिसे शायद ही कोई चुनौती दे सकता है। डॉ.आंबेडकर को मिले इस मुकाम के पीछे एक लंबी जद्दोजहद है। ऐसे मेंयह देखना दिलचस्प होगा कि डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की शुरुआत में उन्हें लेकर कैसी बातें हो रही थीं। हम इस सिलसिले में हम महत्वपूर्ण  स्रोतग्रंथ  डॉ.अांबेडकर और अछूत आंदोलन  का हिंदी अनुवाद पेश कर रहे हैं। इसमें डॉ.अंबेडकर को लेकर ख़ुफ़िया और अख़बारों की रपटों को सम्मलित किया गया है। मीडिया विजिल के लिए यह महत्वपूर्ण अनुवाद प्रख्यात लेखक और  समाजशास्त्री कँवल भारती कर रहे हैं जो इस वेबसाइट के सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य भी हैं। पहले यह शृंखला मंगलवार को प्रकाशित होती थी लेकिन अब यह बुधवार को  पढ़ी जा सकेगी। प्रस्तुत है इस साप्ताहिक शृंखला की  चौतीसवीं कड़ी – सम्पादक

 

211.

डा. आंबेडकर ने ग्वियर अवार्ड को चुनौती दी

मामलों को दिखाने के लिए अनुशंसा आदेश नहीं है

(दि बाम्बे क्राॅनिकल, 2 मई 1939)

 

डा. बी.आर.आंबेडकर ग्वियर अवार्ड का विश्लेषण करते हुए कहते हैं-

राजकोट के ठाकुर साहेब और मि. वल्लभभाई पटेल के बीच ‘सिफारिश’ शब्द की व्याख्या पर उत्पन्न विवाद पर सर मौरिस ग्वियर द्वारा दिया गया निर्णय (अवार्ड) न केवल विवाद से जुड़े पक्षों के लिए महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि आम जनता के लिए भी महत्वपूर्ण नहीं है।

यह निर्णय दोनों पक्षों के लिए इस प्रश्न पर कि क्या यह व्याख्या सही है या गलत, उनके लिए बहुत ज्यादा उपयोगी नहीं हो सकता। किन्तु यही बात जनता के बारे में नहीं कही जा सकती। उनके लिए अभी भी यह प्रश्न उनके हित में है। यह सत्य है कि यह निर्णय कानूनी अदालत का फैसला नहीं है। फिर भी इसके पीछे सर मौरिस ग्वियर के रूप में एक महान व्यक्ति की सर्वसत्ता है।

 

सरदार के साथ अन्तिम बात

 

ऐसे सिद्धान्तों की बौद्धिक प्रशंसा के लिए सबसे पहले यह बताना आवश्यक है कि ठाकुर साहेब का विवाद क्या था और सर मौरिस ग्वियर ने उसका हल किस तरह किया?

सर मौरिस ग्वियर विवाद का हल इस तरह करते हैं- ‘ठाकुर साहेब की ओर से प्रस्तुत लिखित मामले में उनकी बहस का सारांश निम्नलिखित वाक्य में निहित है। ‘यह स्पष्ट है कि शब्द ‘अनुशंसा’ स्वयं साफ तौर से इंगित करता है कि प्रत्येक नाम पर विचार किया जाए और ठाकुर साहेब इसके लिए स्वतन्त्र थे कि वह इस आधार पर, उदाहरण के लिए, कि जिस नाम की अनुशंसा की गई है, वह योग्य व्यक्ति नहीं है, या सक्षम नहीं है या अवांछित है, तो उसे खारिज कर सकते थे।’ सर मौरिस ग्वियर ने इस विवाद का समर्थन नहीं किया है।

वे कहते हैं, ‘मेरे विचार में सही व्याख्या यह है कि ठाकुर साहेब उन लोगों को नियुक्त करना चाहते हैं, जिनकी अनुशंसा मि. वल्लभभाई पटेल कर सकते हैं और जिसका अनुमोदन वह नहीं करते हैं, उसे अपने विवेक से खारिज करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है। निःसन्देह उन्हें अनुशंसाओं की आलोचना करने और उन पर फिर से विचार करने की माॅंग करने का अधिकार है, किन्तु, जब तक यह सिद्ध नहीं होता है कि अनुशंसित व्यक्ति राज्य की प्रजा हैं या सेवक हैं, तब तक मि. वल्लभभाई पटेल का शब्द ही अन्तिम है।

 

दो आपत्तियाँ

इस निष्कर्ष के लिए और सर मौरिस ग्वियर द्वारा ठाकुर साहेब के विवाद को खारिज करने के लिए दो आधार हैं। पहला आधार, जो सर मौरिस ग्वियर स्वयं बताते हैं, यह है कि ‘ऐसा कोई प्रस्ताव (जिसका ठाकुर साहेब ने विरोध किया है) है ही नहीं, जो है, उसका आधार सिर्फ ‘अनुशंसा’ शब्द हो सकता है, जो स्वयं में इस तरह को कोई संकेत नहीं देता है। यह सन्दर्भ से अपना अपना रूप बदल सकता है और तदनुसार मामले की सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखा जाना चाहिए।’

दूसरा आधार यह है कि ठाकुर साहेब को अनुशंसा पर विचार करने का अधिकार नहीं दिया गया था, इसलिए उन्हें वल्लभभाई पटेल द्वारा अनुशंसित व्यक्तियों को अस्वीकार करने का कोई विवेकाधिकार नहीं था। सर मौरिस ग्वियर ने 1917 के आई. के. बी. 19 में उल्लिखित रेक्स बनाम गवर्नर्स मामले का सन्दर्भ दिया है। लेकिन वह उस पर भरोसा नहीं करते हैं। वह उस सन्दर्भ को देने का कारण भी स्पष्ट करते हैं। वह कहते हैं, ‘मैंने उन्हें सिर्फ यह दिखाने के उद्देश्य से इस सन्दर्भ का उल्लेख किया है कि ऐसा कोई सिद्धान्त नहीं है, जिसके तहत एक व्यक्ति अनुशंसा करता है और दूसरा व्यक्ति नियुक्त करता है।’वह सचमुच अपना यह निर्णय पहुॅंचाने के लिए गए हैं कि वर्तमान सन्दर्भ के प्रयोजनों के लिए कोई निर्णायक नजीर नहीं है।’

 

नज़ीर और सिद्धान्त

मैं पूर्ण सम्मान के साथ यह कहना चाहता हूॅं कि यह एक नजीर सम्मत सुव्यवस्थित सिद्धान्त है, जो इस सन्दर्भ के निर्णय में लागू किया जा सकता है। अर्थात, मेरे दिमाग में ‘नाॅट बनाम कोटी’ (2 फिल 192 बराबर 41 ई. आर. 915) की नजीर है। इस मामले के तथ्यों को बहुत ही संक्षेप में बताया जा सकता है।

‘अ’ ने वसीयत बनाई और अपनी पत्नी, एक मि.कोटी और एक मि.इब्बेटसन को प्रबन्धक तथा ट्रस्टी नियुक्त किया,और अपने तीनों बच्चों को भी अभिभावक नियुक्त कर दिया। आगे, ‘अ’ ने यह सिफारिश की कि यदि उसकी पत्नी उसके बेटे के 21 साल का होने से पहले मर जाती है, या उसकी बेटियों की उस आयु या उनके विवाह से पूर्व मर जाती है, तो जीवित अभिभावक या अभिभावकों को उसके बच्चों को रखना होगा, पर अगर वे नाबालिग हों, तो जीवित प्रबन्धक और बसीयत नामे के अभिभावक मि. कोटी द्वारा उन्हें देखभाल के लिए उनके चचेरे भाई मेरी प्रियर को सौंप देना होगा। ‘अ’ की पत्नी की मृत्यु हो गई और बच्चे जीवित प्रबन्धक और वसीयत नामे के अभिभावक मि. कोटी द्वारा देखभाल के लिए उनके चचेरे भाई मेरी प्रियर को सौंप दिए गए। इस नजीर से यह धारणा बनती है कि शब्द ‘अनुशंसा’ या सिफारिश का अर्थ यह है कि बसीयत नामें के अभिभावकों के लिए एक बाघ्यकारी ट्रस्ट बनाया गया था, जिससे मि.कोटी बच्चों की देखभाल के लिए एक व्यक्ति के रूप में मेरी प्रियर को नियुक्त करने के लिए बाध्य थे।

 

पैतृक अधिकार

मुद्दा यह था कि क्या अनुशंसा ने बसीयत नामे के अभिभावक के रूप में मि. कोटी से सम्बद्ध नियन्त्रण की समस्त शक्तियों को छीन लिया था? इस मुद्दे का निर्णय करने में लाॅर्ड चांसलर (लाॅर्ड डेनमैन) ने कहा था, ‘मेरे पास अनुशंसा शब्द के प्रभाव पर विचार करने के बार-बार अवसर आए थे। एक मामला हाल ही में इस अदालत में आया था, जहाॅं यह सवाल था कि क्या बसीयत करने वाले व्यक्ति द्वारा अपनी सम्पत्तियों के लिए रिसीवर और प्रबन्धक के रूप में एक निर्विवाद व्यक्ति की नियुक्ति किए जाने के लिए की गई सिफारिश उस व्यक्ति को कोई कानूनी लाभ देता है?

एक और मामला शाॅ बनाम लाॅलेस का था, जहाॅं हाउस आॅफ लाॅर्डस ने इसे एक नियम के रूप में रखा था, जिस पर मैंने काम किया है, हालाॅंकि कुछ मामलों में सिफारिश एक दिशा की हो सकती है और ट्रस्ट बना सकती है, फिर भी एक लचीला शब्द होने के नाते ऐसा कोई निर्माण बसीयत में किसी भी सकारात्मक प्राविधान के साथ असंगत होगा। अतः सिफारिश को सिर्फ सिफारिश ही माना जाए, इससे ज्यादा कुछ नहीं।

उस मामले में, अनुशंसित पार्टी को दिया गया लाभ अन्य शक्तियों के साथ अनुचित था, जो ट्रस्टियों को करने के लिए थे; और स्पष्ट शब्दों में उन शक्तियों को दिया गया। चूॅंकि दो प्राविधान एक साथ नहीं हो सकते, इसलिए लचीले शब्द को झुकना ही था। तद्नुसार यह माना गया था कि इस तथ्य के बावजूद कि सिफारिश बाध्यकारी थी, उसने बच्चों के वसीयती अभिभावक के रूप में मि. कोटी के नियन्त्रण की शक्तियाॅं नहीं छीनी थीं।

 

बाध्यकारी निर्देश नहीं

यह मामला, कोई सन्देह नहीं कि एक ट्रस्ट से सम्बन्धित है। किन्तु एक ट्रस्ट कानूनी दायित्व के लिए केवल एक और नाम है, और यदि कोई ट्रस्ट बनाने या कानूनी उत्तरदायी बनाने की सिफारिश करने को कहता है, तो यह वही चीज है। यह मामला इसलिए प्रासंगिक है, क्योंकि यह अनुशंसा शब्द की व्याख्या से सम्बन्धित बहुत ही महत्वपूर्ण नियम का प्रतिपादन करता है। जैसा कि लार्ड डैनमैन के फैसले में देखा जा सकता है कि अनुशंसा शब्द की व्याख्या एक बाध्यकारी निर्देश के अर्थ में नहीं की जा सकती, जिससे कोई बचाव नहीं है, यदि ऐसी व्यवस्था उन व्यक्ति में निहित कुछ अन्य सकारात्मक शक्तियों के प्रयोग से असंगत हो जाती है, जिसके लिए सिफारिश की गई है।

अब क्या ठाकुर साहेब बनाम वल्लभभाई मामले में यह नहीं कहा जा सकता कि ठाकुर साहेब की स्थिति वही है, जो मि.कोटी की थी? और आगे क्या यह भी नहीं कहा जा सकता कि मि. कोटी की तरह ठाकुर साहेब भी अपनी क्षमता में ताज जैसी स्थिति में कुछ सकारात्मक शक्तियाँ रखते हैं, जैसे किसी भी स्थान से या किसी भी व्यक्ति को नियुक्त करने, खारिज करने या बरखास्त करने का अधिकार। यदि यह कहना सही है कि ठाकुर साहेब मि. कोटी वाली स्थिति में रहकर निर्णय लेते हैं, तो इस निष्कर्ष से कैसे बच सकते हैं कि ठाकुर साहेब बनाम वल्लभभाई मामले में निर्णय लेने में वही नियम लागू किया जाए, जो नाॅट बनाम कोटी में निर्धारित हुआ है?

 

एक और प्रमाण

एक और प्रमाण जाॅनसन बनाम रोवलैंड्स मामले का भी है, जिसका सन्दर्भ इस सम्बन्ध में उपयोगी हो सकता है। इस मामले में सवाल सिफारिश शब्द की व्याख्या का था, जिसका प्रयोग वसीयत में किया गया था। वसीयत में वसीयत करने वाले ने कहा था, ‘मैंने उसे एक निश्चित धनराशि उचित रूप से उपयोग करने के लिए दी। किन्तु मैंने सिफारिश की कि वह उसका आधा अपने सम्बन्धों पर खर्च करे। उसने सिफारिश के अनुसार उसका आधा अपने निजी सम्बन्धों पर व्यय नहीं किया। यहाॅं सवाल यह था कि क्या वह सिफारिश से हट सकती थी? अदालत ने माना कि वह ऐसा कर सकती थी। फैसले की भाषा का उपयोग करने के लिए ‘सिफारिश’ का अर्थ आदेश हो सकता है। लेकिन इसका अर्थ आदेश नहीं हो सकता, यदि वह उस व्यक्ति की कानूनी और न्यायपूर्ण शक्ति के साथ असंगत है, जिसके लिए सिफारिश से हटने के लिए सिफारिश की गई है।

यह सच है कि ठाकुर साहेब के द्वारा लिखे गए पत्र की भाषा जाॅनसन बनाम रोवलैंड्स में वसीयत की भाषा से अलग है। किन्तु माना जाता है कि ठाकुर साहेब द्वारा मि. वल्लभभाई पटेल को पत्र इन शब्दों में लिखा गया था, ‘हमें अपनी पसन्द से किसी भी तरह से समिति का गठन करने का अधिकार है। पर आपको हमें समिति में नियुक्ति के लिए सात लोगों के नामों की सिफारिश करनी चाहिए, जिनको हम नियुक्त करेंगे।’ यह सच है कि ठाकुर साहेब के मामले में उनके और वल्लभभाई के बीच एक अनुबन्ध है, जबकि जाॅनसन बनाम रोवलैंड्स मामले में ऐसा कोई अनुबन्ध वसीयत पाने वाली और उसके सम्बन्धियों के बीच नहीं था। फिर भी हम इस सवाल पर विचार नहीं कर रहे हैं कि क्या वह अनुबन्ध ठाकुर साहेब के लिए बाध्यकारी और लागू करने योग्य है या नहीं, जो उनके द्वारा ताज के रूप में उनकी क्षमता में बनाया गया है। यही वह खास सवाल है, जो महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाता है।

 

अनुपस्थित शब्द

हम जिस मुद्दे से चिन्तित हैं, वह है सिफारिश शब्द का अर्थ और इस मुद्दे पर जाॅनसन बनाम रोवलैंड्स का मामला ठाकुर साहेब बनाम वल्लभभाई पटेल मामले में सब तरफ से समान है। वल्लभभाई पटेल को लिखे गए ठाकुर साहेब के पत्र, कि ‘‘हमें अपनी पसन्द से किसी भी तरह से समिति का गठन करने का अधिकार है’, में शब्दों के गायब होने का मैं कोई सवाल नहीं उठा सकता। ये शब्द राजकोट के प्रभुता-सम्पन्न शासक के रूप में उनके द्वारा लिखे गए प्रत्येक दस्तावेज में मौजूद समझे जाने चाहिए। चाहे वे शब्द वहाॅं सही में हैं या नहीं, पर उनकी इच्छा पर समिति के गठन की सकारात्मक शक्ति उनके पदवी की अविभाज्य घटना है, जो ताज के विशेषाधिकार के अंग के रूप में उनके साथ चलती है। और यह तथ्य भी कि ठाकुर साहेब ने अपने पत्र में वल्लभभाई पटेल की सिफारिश को अस्वीकार करने का अपना अधिकार सुरक्षित नहीं किया है, स्थिति को प्रभावित नहीं करता है।

सवाल यह नहीं है कि क्या ठाकुर साहेब ने अनुशंसा को अस्वीकार करने का अधिकार स्वयं में सुरक्षित किया है या नहीं, बल्कि सवाल यह है कि क्या ‘अनुशंसा’ शब्द में ऐसा कुछ है, जिससे अस्वीकार करने की ठाकुर साहेब की अन्तर्निहित शक्तियों को छीना जा सकता है, जो उन्हें सदैव से प्राप्त हैं और जिससे बचने के लिए उनके लिए कोई भी नियम आवश्यक नहीं था। अगर ऐसा है, तो अनुशंसा शब्द की इन दो मामलों में अलग.अलग व्याख्या नहीं दी जा सकती।

 

सकारात्मक शक्तियाॅं

इसमें अन्य दो मामलों में एक तरफ ठाकुर साहेब की सकारात्मक शक्तियाॅं हैं, जो अपरिवर्तनीय हैं, और दूसरी तरफ अनुशंसा है, जो हमेशा परिवर्तनीय शब्द है। ऐसा है तो नियम के अनुसार परिवर्तनीय शब्द को अपरिवर्तनीय शब्द के लिए झुक जाना चाहिए। अर्थात, अनुशंसा का अर्थ आदेश देना या बाध्य करना नहीं हो सकता।

सर मौरिस ग्वियर द्वारा 1917 आइ.के.बी में दर्ज मामले का दिया गया सन्दर्भ और मेरे द्वारा सन्दर्भित दोनों मामलों के साथ टकाराव प्रतीत होता है। किन्तु सतर्क परीक्षण से साफ पता चल जायेगा कि कोई टकराव नहीं है और मामला एकदम साफ है। 1917 आई.के.बी. मामले में नियुक्ति प्राधिकारी ‘बस’ एक नियुक्ति प्राधिकारी था, और कुछ नहीं। उसके पास पूर्ण शक्तियाॅं नहीं थीं, जिसे बाध्यकारी निर्देश के रूप में ‘अनुशंसा’ शब्द की व्याख्या करके अस्वीकार करने का खतरा कहा जा सकता हो।

मेरे द्वारा सन्दर्भित दोनों मामलों में निर्धारित नियम से साफ ज्ञात होता है कि जहाॅं पूर्णसकारात्मक शक्तियाॅं मौजूद हैं, जो स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग करने में सक्षम हैं, वहाॅं ‘अनुशंसा’ शब्द का अर्थ बाध्यकारी निर्देश नहीं हो सकता, परन्तु जहाॅं पूर्ण सकारात्मक शक्तियाॅं मौजूद नहीं हैं, वहाॅं यह अर्थ हो सकता है। मेरे द्वारा सन्दर्भित दोनों मामलों में मुख्य चीज पूर्ण सकारात्मक शक्तियाॅं थीं, इसीलिए निर्णय में ‘अनुशंसा’ का अर्थ बाध्यकारी निर्देश नहीं था।

सर मौरिस ग्वियर द्वारा सन्दर्भित मामले में कोई पूर्ण सकारात्मक शक्तियाॅं नहीं थीं, इसलिए यह माना गया कि ‘अनुशंसा’ का अर्थ बाध्यकारी निर्देश हो सकता है। ठाकुर साहेब बनाम वल्लभभाई मामला, मेरी दृष्टि में, उस श्रेणी में आता है, जिसके अन्तर्गत मेरे द्वारा उद्धरित दोनों मामले आते हैं, किन्तु 1917 आई. के. बी. 19 में दर्ज मामले इस श्रेणी में नहीं आते हैं।

 

212

आई. एल. पी. ने डा. आंबेडकर की 47वीं वर्षगाॅंठ मनाई

(दि बाम्बे सीक्रेट अबस्ट्रैक्ट, 20 मई 1939, प्रस्तर 660)

डा. आंबेडकर के47 वें जन्मदिन की वर्षगाॅंठ भी 6 मई को देवलाली, जिला नासिक में मनाई गई, जिसमें इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के 1000 लोग उपस्थित हुए थे।

 

213

संघ बनाम स्वतन्त्रता

लेखक: डा. बी. आर. आंबेडकर,

(दि टाइम्स आॅफ इंडिया,2 जून 1939)

डा. आंबेडकर की पुस्तक ‘संघ बनाम स्वतन्त्रता’(फेडरेशन वर्सेस फ्रीडम, आर .के. टाटनिस, बम्बई, मू. 1 रुपया) संघीय योजना का पूर्ण रूप से विरोध करती है। टाॅल्स्टाॅय का यह कथन कि ‘तुमने कितनी दूरी तय की है, यह महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि तुम किस दिशा में जा रहे हो’, यह पुस्तक इस कथन का विशद पाठ है, जो संघीय योजना के मूल तत्वों को विद्वतापूर्ण ढंग से प्रतिपादित और रेखाॅंकित करती है।

डा. आंबेडकर के तर्क का सारा जोर प्रस्तावित संघ में राजाओं की विशेषाधिकार प्राप्त स्थिति पर, विशेष रूप से दूसरी अनुसूची द्वारा विधायिका की शक्तियों पर रोक लगाए जाने पर केन्द्रित है। लेखक एक योग्य वकालत की भावना से अपने मुकदमे को सही साबित करने के लिए तर्क पर तर्क देता है। पर, ये तर्क उन्हें कभी-कभी भ्रामक और परस्पर विरोधी वक्तव्यों तक ले जाते है। वे तर्क देते हैं कि संघ की एक कमजोरी छोटे राज्यों के प्रवेश को कम-से-कम बीस साल के लिए बेतुकेपन से अस्वीकार करना है, जिनमें कुछ ऐसे भारतीय राज्य शामिल हैं, जिनमें एक का राजस्व 80 रुपए औा आबादी 27 है। वे पहले खण्ड में संघ के अखिल भारतीय चरित्र को कम करने का प्रयास करते हुए बताते हैं कि संघ में शामिल करने का कानूनन अधिकार केवल 627 में से 147 राज्यों को ही है। यह अवश्य ही पहली अनुसूची का गलत निरूपण है, जो कुल आबादी के आधार पर इन छोटे राज्यों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करता है। हालाॅंकि, इस किताब की खूबी संघ के आवश्यक तथ्यों के अपने प्रतिपादन में निहित है, जिससे पाठक निष्पक्ष निष्कर्ष निकाल सकता है।

 

33. कचरापट्टी मज़दूरों ने डॉ.आंबेडकर को 1001 रुपये की थैली भेंट की

32.औरंगाबाद अछूत सम्मेलन में पारित हुआ था 14 अप्रैल को ‘अांबेडकर दिवस’ मनाने का प्रस्ताव

31. डॉ.आम्बेडकर ने बंबई में किया स्वामी सहजानंद का सम्मान

30. मैं अखबारों से पूछता हूॅं, तुम्हारे सत्य और सामान्य शिष्टाचार को क्या हो गया -डॉ.आंबेडकर

29. सिद्धांतों पर अडिग रहूँँगा, हम पद नहीं अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं-डॉ.आंबेडकर

28.डॉ.आंबेडकर का ग्रंथ रूढ़िवादी हिंदुओं में सनसनी फैलाएगा- सीआईडी रिपोर्ट

27ब्राह्मणों तक सीमित नहीं है ब्राह्मणवाद, हालाॅंकि वह इसका जनक है-डॉ.आंबेडकर

26. धर्मांतरण का आंदोलन ख़त्म नहीं होगा- डॉ.आंबेडकर

25. संविधान का पालन न करने पर ही गवर्नर दोषी- डॉ.आंबेडकर

24. ‘500 हरिजनों ने सिख धर्म अपनाया’

23. धर्म बदलने से दलितों को मिली सुविधाएँ ख़त्म नहीं होतीं-डॉ.आंबेडकर

22. डॉ.आंबेडकर ने स्त्रियों से कहा- पहले शर्मनाक पेशा छोड़ो, फिर हमारे साथ आओ !

21. मेरी शिकायत है कि गाँधी तानाशाह क्यों नहीं हैं, भारत को चाहिए कमाल पाशा-डॉ.आंबेडकर

20. डॉ.आंबेडकर ने राजनीति और हिंदू धर्म छोड़ने का मन बनाया !

19. सवर्ण हिंदुओं से चुनाव जीत सकते दलित, तो पूना पैक्ट की ज़रूरत न पड़ती-डॉ.आंबेडकर

18.जोतदार को ज़मीन से बेदख़ल करना अन्याय है- डॉ.आंबेडकर

17. मंदिर प्रवेश छोड़, राजनीति में ऊर्जा लगाएँ दलित -डॉ.आंबेडकर

16अछूतों से घृणा करने वाले सवर्ण नेताओं पर भरोसा न करें- डॉ.आंबेडकर

15न्यायपालिका को ‘ब्राह्मण न्यायपालिक’ कहने पर डॉ.आंबेडकर की निंदा !

14. मन्दिर प्रवेश पर्याप्त नहीं, जाति का उन्मूलन ज़रूरी-डॉ.आंबेडकर

13. गाँधी जी से मिलकर आश्चर्य हुआ कि हममें बहुत ज़्यादा समानता है- डॉ.आंबेडकर

 12.‘पृथक निर्वाचन मंडल’ पर गाँधीजी का अनशन और डॉ.आंबेडकर के तर्क

11. हम अंतरजातीय भोज नहीं, सरकारी नौकरियाँ चाहते हैं-डॉ.आंबेडकर

10.पृथक निर्वाचन मंडल की माँग पर डॉक्टर अांबेडकर का स्वागत और विरोध!

9. डॉ.आंबेडकर ने मुसलमानों से हाथ मिलाया!

8. जब अछूतों ने कहा- हमें आंबेडकर नहीं, गाँधी पर भरोसा!

7. दलित वर्ग का प्रतिनिधि कौन- गाँधी या अांबेडकर?

6. दलित वर्गों के लिए सांविधानिक संरक्षण ज़रूरी-डॉ.अांबेडकर

5. अंधविश्वासों के ख़िलाफ़ प्रभावी क़ानून ज़रूरी- डॉ.आंबेडकर

4. ईश्वर सवर्ण हिन्दुओं को मेरे दुख को समझने की शक्ति और सद्बुद्धि दे !

3 .डॉ.आंबेडकर ने मनुस्मृति जलाई तो भड़का रूढ़िवादी प्रेस !

2. डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी

1. डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी

 



कँवल भारती : महत्‍वपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक चिंतक, पत्रकारिता से लेखन की शुरुआत। दलित विषयों पर तीखी टिप्‍पणियों के लिए विख्‍यात। कई पुस्‍तकें प्रकाशित। चर्चित स्तंभकार। मीडिया विजिल के सलाहकार मंडल के सदस्य।