कश्मीर की वह मुर्दा चुप्पी, छावनी में बदला खीर भवानी मंंदिर और बॉलीवुड के गाने सुनते लड़के!

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कश्मीरनामा:इतिहास और समकाल’ हाल में प्रकाशित हिंदी के सबसे चर्चित किताब मानी गई है। कश्मीर के बारे में हिंदी में ऐसा दस्तावेज़ी प्रयास पहले नहीं हुआ था। इस किताब को लिखा हैं कवि-लेखक अशोक कुमार पाण्डेय ने। वे इन दिनों कश्मीर में हैं। घूमने से ज़्यादा ब़ड़ा मक़सद शायद कश्मीर पर एक और किताब की तैयारी है। मीडिया विजिल ने उनसे अनुरोध किया कि वे अपने अनुभव को लिखते जाएँ ताकि हिंदीभाषी लोग  ज़मीन की वह तस्वीर भी देख पाएँ जो कथित मुख्यधारा मीडिया में कश्मीर के नाम पर होने वाली दैनिक गोलाबारी में ग़ायब है। यानी कश्मीर की ग्राउंड रिपोर्ट। अभारी हैं कि वे मान गए, गोकि लिखने के लिए मोबाइल ही है, और यह तक़लीफ़देह होगा। तस्वीरें भी उन्होंने ही भेजी हैं। पेश है,इस सिलसिले की चौथी किस्त-संपादक

 

अशोक कुमार पाण्डेय

 

 

दक्षिणी कश्मीर जाने का हमारा प्लान मुकम्मल तौर पर कैंसिल हो चुका था. आज जब यह लिख रहा हूँ तो श्रीनगर के छत्ताबल इलाक़े से भी मुठभेड़ की ख़बरें आई हैं. एक वीडियो आया है जिसे मीरवायज़ उमर फ़ारूक़ ने भी पोस्ट किया है. इसमें साफ़ दिख रहा है कि पुलिस की एक गाड़ी विरोध में नारा लगाते लड़के को कुचल देती है. हालाँकि मीर साहब ने इस पर भारत सरकार को तोहमतें भेजी हैं लेकिन स्पष्ट तौर पर गाड़ी जम्मू-कश्मीर पुलिस की है. इस सेवा में तो सारे कश्मीरी ही हैं. पहलगाम में बातचीत में यह बात सामने आई थी कि जम्मू-कश्मीर पुलिस में बड़े पैमाने पर ऐसे लोगों की भर्ती की गई है जो आतंकवाद छोड़ कर आये हैं, ये लोग चूँकि मिलिटेंट गतिविधियों और अड्डों से बखूबी परिचित होते हैं तो ज़ाहिर तौर पर अधिक उपयोगी होते हैं. लेकिन ये सामान्य पुलिकर्मियों और सेना की तुलना में क्रूर होते हैं. ट्रक से नौजवान को कुचलने वाला वह वीडियो देखकर मुझे यह बात याद आई.

हमने श्रीनगर लौटने का फ़ैसला किया और इस बार बाईपास चुना. अनंतनाग से लगातार ख़बरें आ रही थीं और हम जल्दी से जल्दी श्रीनगर पहुँचना चाहते थे जहाँ कई मित्र इंतज़ार कर रहे थे. रास्ते में बिजबेहरा पड़ता है, मेहबूबा मुफ़्ती का चुनाव क्षेत्र. दोनों तरफ़ सेना और पुलिस का भारी जमावड़ा. थोड़ा आगे चलने पर सेना का एक जवान गाड़ी को हाथ देकर रोकता है. बशीर यंत्रवत गाड़ी के काग़ज़ और अपनी आई डी निकालकर खड़े हो जाते हैं. मै भी बाहर निकला. आई कार्ड दिखाया तो नौजवान मुस्कुराया, जाइए पाण्डेय जी. गाड़ी में आकर मैने पूछा, कितनी बार दिखानी पड़ जाती है आई डी आपको बशीर? वह गियर बदलते हुए पथरीले स्वर में कहता है, “ अब तो आदत पड़ गई है. कोई आर्मी या पुलिसवाला दिखता है तो हाथ अपनेआप आई डी पर चला जाता है. तन्मर्ग में रहने वाले बशीर के दो बच्चे हैं, लड़की कॉलेज में और लड़का मैट्रिक में. बारहवीं के बाद लड़के को बाहर भेजना चाहते हैं, ‘यहाँ रहकर क्या करेगा? बाहर कहीं नौकरी मिल जाए तो ज़िन्दगी अच्छे से कट जाएगी.’

(बिजबेहरा का हस्पताल)

डलगेट पर हमारा इंतज़ार कर रहे हैं कश्मीर के जाने माने फ़ोटोग्राफ़र जावेद शाह. कश्मीरनामा के कवर पर शोपियां के जले हुए स्कूल की जो फोटो है वह उन्हीं की खींची हुई है. बेहद खुशमिज़ाज़ और रौशनख़याल जावेद उस पीढ़ी से हैं जिसने नब्बे का दशक देखा है. जब मैने उन्हें कश्मीर आने की सूचना मैसेज की तो उन्होंने लिखा था, ‘इस बार यह सोचकर आइये कि यहाँ आपका एक दोस्त है.” थोड़ी ही देर में हम ब्लैक कॉफ़ी के साथ दोस्तों की तरह बात कर रहे थे. मैने कश्मीरनामा दिखाई तो उन्होंने कहा कि फेसबुक से पता चलता है कि किताब तो काफी हिट हो गई है, फिर मुझे चैप्टर्स का नाम पढ़कर सुनाने के लिए कहा. कश्मीर में ज़्यादातर लोग हिन्दी पढ़ नहीं सकते. चैप्टर्स सुनने के बाद वह लगभग उत्तेजना में कहते हैं, ‘इसे अंग्रेजी में ले आइये प्लीज़. इतने डिटेल में तो अंग्रेजी में भी कोई किताब नहीं है.’ यह बात मुझसे बार-बार अलग-अलग लोगों ने कही. मेरे पास जवाब में सिर्फ़ मुस्कराहट थी.

(अशोक और जावेद शाह)


पुलवामा की घटना पर बात करते-करते वह अपने एक पुलिस उच्चाधिकारी मित्र के हवाले से बताते हैं कि हर महीने हर थाने में एक बड़ी रक़म इन्फॉर्मर्स के लिए आती है. यह बात अलग-अलग लोगों से बात करते बार-बार आई कि आतंकवाद भी कश्मीर में एक बड़ा बिजनेस बन गया है. इसे रोकने और जारी रखने के लिए बेतहाशा पैसा आया है. फिर बात कश्मीरी पंडितों की ओर मुड़ जाती है, जावेद एक क़िस्सा सुनाते हैं. उनके मोहल्ले में कश्मीरी पंडितों की संख्या काफी थी. बचपन से साथ खेले-कूदे, दोस्ताना रिश्ते. जनवरी की उस रात मस्जिद से नारेबाजी शुरू हुई और मुसलमान लड़के एक गोला बनाकर उस नारेबाजी में हिस्सेदारी कर रहे थे. डरे हुए बीसियों पंडित लड़के जावेद के घर पहुँचे. जावेद उन्हें लेकर उस भीड़ के पास पहुँचे तो नारेबाजी बंद हो गई. उस गोले में एक गैप बन गया जिसमें जावेद और पंडित लड़के खड़े हो गए. उन लड़कों की आँखों में सवाल थे और आश्वस्ति की तलाश. इधर एक मुर्दा चुप्पी थी. कोई आधे घंटे सब वैसे ही रहा. मस्जिद से नारे आते रहे और इधर से चुप्पी. फिर एक-एक कर पंडित लड़के लौट गए. गोला फिर से पहले जैसा हो गया और नारे लगने लगे. जावेद बताते हैं उस रात भारी संख्या में पंडित घाटी से चले गए. यह जो फियर सायकोसिस पैदा हुआ वह वर्षों के रिश्तों पर भारी पड़ गया.

निदा नवाज़ के आने में अभी थोड़ा वक़्त था. हमने पत्थर मस्जिद जाना तय किया. नूरजहाँ की बनवाई यह मस्जिद हू ब हू आगरा की मस्जिद जैसी है, बस संगमरमर की जगह चूना पत्थर. कहते हैं मस्जिद बनने के बाद किसी ने नूरजहाँ से पूछा कि इसकी लागत कितनी आई तो मगरूर मलिका ने अपनी हीरे जवाहरात जड़ी जूती की ओर इशारा करके कहा, जितनी इसकी क़ीमत है. कश्मीरियों को यह अपना अपमान लगा और फिर उसके बाद वहाँ नमाज़ नहीं हुई कभी. लेकिन जब डोगरा राजा प्रताप सिंह ने उसे गोडाउन बनाने का तय किया तो वबाल हो गया. बाद में शेख़ अब्दुल्ला ने इसे अपना केंद्र बनाया और इसके ठीक सामने मुजाहिद मंज़िल को नेशनल कांफ्रेंस का दफ्तर बनवाया. झेलम किनारे मुजाहिद मंज़िल अब सेना के कब्ज़े में है. झेलम किनारे पत्थर मस्जिद में नमाज़ तबसे लगातार जारी है. उस पार हमदानी की खानकाह है – खानकाह ए मौला. कहते हैं जब सिख राज स्थापित हुआ कश्मीर में तो सूबेदार दीवान मोतीराम के एक सिपहसालार फूला सिंह ने इस खानकाह को उड़ाने के लिए तोपें लगा दी थीं लेकिन पंडित बीरबल धर कश्मीर में शाह हमादान के महत्त्व को जानते थे, उन्होंने उसे रोक दिया. तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद एक दूसरे के धर्म के लिए यह सम्मान कश्मीर की संस्कृति का हिस्सा रहा हमेशा.

निदा से मुलाक़ात के पहले मैने लाल चौक से फारूक अहमद खान को फोन किया. उनसे फेसबुक पर ही दोस्ती हुई थी. मौसम विभाग में उच्चाधिकारी फारूक साहब संयोग से लाल चौक में ही थे. दस मिनट में वह आते हैं और किसी पुराने दोस्त की तरह गले लग जाते हैं. पास के एक कैफे में कहवा पीते हुए वह जैसे इतिहास में लौटते हैं. उनके पिता शेख़ अब्दुल्ला के साथी रहे थे. बचपन से देखा-सुना है उन्होंने. अचानक कहते हैं, ‘अजीब है कि आज का युवा कश्मीर समस्या के लिए यहाँ शेख़ साहब को वैसे ही गालियाँ देता है जैसे हिन्दुस्तान में नेहरू को गाली दी जाती है.’ किताब अंग्रेजी या उर्दू में जल्दी लाने और अगली यात्रा में घर पर रुकने के इसरार के साथ वह विदा लेते हैं. निदा आ चुके हैं. साथ में उनके साहबजादे नीरज हैं, उन्हीं की तरह खुशमिजाज़ और कवि-हृदय. मैने नीरज की कुछ कविताओं का अनुवाद किया है. मानसबल में फिशरीज़ महकमे के अधिकारी मोहिउद्दीन साहब हमारे इंतज़ार में हैं. सारे रास्ते नीरज गाड़ी के म्यूजिक सिस्टम पर वैसे ही बालीवुड गाने सुन रहे हैं जैसे दिल्ली के लड़के सुनते हैं. बालीवुड के गाने हमने ध्रूर में खुर्शीद की शादी के अवसर पर गाये जाने वाले वन्वुन में भी सुने और पहलगाम में भी. ये गाने और बाज़ार जैसे भारत से कश्मीर का सबसे प्रत्यक्ष लिंक है. पुलवामा अब भी तनावग्रस्त है. निदा बताते हैं कि अगले दिन चौथा है मारे गए लड़कों का और एक बार फिर शहर बंद रहेगा. मुठभेड़ों के कई ऐसे अनुभव एकदम शांत होकर वह बयान करते हैं जिन्हें सुनकर हमारी रूह कांप जाए.

(फ़ारुक़ अहमद के साथ)

 

गान्देरबल के सफापुरा में स्थित मानसबल झील की यह मेरी दूसरी यात्रा थी. मोहिउद्दीन साहब भयंकर वाले पढ़ाकू हैं. देरिदा, फूको, चोमस्की, अरूंधती राय सब जैसे एक साँस में कोट करते चलते हैं. कश्मीर के प्रमुख अखबार ग्रेटर कश्मीर में वह लगातार लिखते हैं.  हाल ही में राकेश सिन्हा के एक लेख का जवाब उन्होंने दिया है. फिश ब्रीडिंग और ट्राउट के लिए विशेष तौर पर तैयार किये जाने वाले फीड के प्लांट्स देखते हुए हम मानसबल झील पहुँचे जहाँ ढलती शाम में बोटिंग की व्यवस्था थी. बातें लगातार कश्मीर की राजनीति पर ही केन्द्रित हैं. मोहिउद्दीन साहब गाँधी से ख़ासे प्रभावित हैं. कहते हैं, ‘भारत की संस्कृति में जो एक सबको साथ लेकर चलने वाली बात है वही मुझे सबसे प्रिय है. हमारी पीढ़ी के तमाम लोग भारत को हमेशा से पाकिस्तान की तुलना में अधिक पसन्द करते रहे हैं. शेख़ साहब ने भी इसीलिए भारत के साथ जाना पसन्द किया था. लेकिन इधर जो कट्टरपन फैलाया गया है हिंदुत्व के नाम पर वह भारतीय संस्कृति के विपरीत है. जिस तरह की नीतियाँ अपनाई गई हैं कश्मीर में उससे कश्मीरी युवा लगातार भारत से दूर हो रहा है.’ उन्हें ग्रेटर कश्मीर के लिए मेरा इंटरव्यू करना है, उसके पहले ही बहस गहन होती जाती है. निदा धर्म का सवाल लाते हैं और सुजाता जेंडर का तो मोहिउद्दीन साहब थोड़ा डगमगाते हैं. निदा नास्तिक हैं पूरी तरह से लेकिन मोहिउद्दीन साहब का धर्म में भरोसा गहरा है. अंततः कहते हैं कि You can’t wish away religion. मैं जवाब देता हूँ – But this doesn’t make religion any good or bad. डिनर के बाद इंटरव्यू शुरू होता है तो सुबह उठते ही सवाल फिर हाज़िर हो जाते हैं. अचानक निदा कहते हैं – राजनीति थका देती है कई बार!

 

(मोहिउद्दीन साहब, अशोक और निदा नवाज़)

 

श्रीनगर लौटने से पहले मुझे खीर भवानी मंदिर जाना था. कश्मीर का शायद सबसे प्रतिष्ठित मन्दिर जहाँ जून में मेला लगता है तो देश के कोने कोने से लाखों की संख्या में कश्मीरी पंडित पहुँचते हैं. सफापुरा से कोई आधे घंटे की ड्राइव के बाद लगभग सैन्य छावनी में तब्दील यह मन्दिर जम्मू कश्मीर के धर्मार्थ ट्रस्ट के तहत संचालित होता है. बाहर बोर्ड लगा है – मीट-मछली खाकर मन्दिर में प्रवेश न करें. हालाँकि नाश्ते में हमने शाकाहारी चीज़ें ही खाई थीं लेकिन मन खट्टा हो गया यह पढ़कर और मन्दिर में जाने की जगह हम बगल के एक ढाबेनुमा चट्टी पर बैठे. मोहिउद्दीन साहब भीतर तक गए. चाय पीते हुए वह चट्टी में लगे पोस्टर की ओर इशारा करके बताते हैं कि यह कश्मीरी पंडितों के बड़े श्रद्धेय महंत थे. इनके यहाँ ख़ुद हफ्ते में एक दिन शिव के प्रसाद के रूप में नॉन वेज़ पका करता था. लेकिन धीरे धीरे हुआ यह कि कश्मीरी संस्कृति पर मुख्यधारा की हिन्दू संस्कृति हावी होती गई. निदा टोकते हैं, ‘यह तो इस्लाम के साथ भी हुआ न. सूफी कल्चर की जगह कट्टर इस्लाम आता गया. शेख़-उल-आलम (शेख़ नुरूद्दीन या नुन्द ऋषि) का नाम भले कितना हो आज घाटी में जो इस्लाम है वह उनकी शिक्षाओं का इस्लाम तो है नहीं.

श्रीनगर के अंदरूनी इलाक़ों में घूमते और लोगों से बतियाते अगले दिन हमें इस तथ्य को और क़रीब से देखना-समझना था.

 

 

 

पिछली कड़ियाँ–

 

3. कश्मीर में पंडित भी हैं और मंदिर भी! घर छोड़ गए पंडितों का इंतज़ार भी है!

2. “पॉलिटिक्स ने बर्बाद कर दिया वरना कश्मीर में हिन्दू-मुसलमान का फ़र्क़ नहीं होता!”

1. इंडिया जानता है कि कश्मीर में क्या चाहता है?