चुनाव चर्चा: मुख्य निर्वाचन आयुक्त रावत के खिलाफ जाँच बंद, ख़बर गोल!

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चंद्र प्रकाश झा

भारतीय प्रशासनिक सेवा के 1977 बैच और मध्य प्रदेश काडर के अधिकारी, ओम प्रकाश रावत ने इस सेवा से 31 दिसंबर 2013 को अवकाश प्राप्त किया। मोदी सरकार ने उन्हें 14 अगस्त 2015 को निर्वाचन आयुक्त नियुक्त किया। उन्होंने भारत के 22 वें मुख्य निर्वाचन आयुक्त  का पद भार 23 जनवरी 2018 को सम्भाला।

लगभग तय है कि 17 वीं लोकसभा के गठन के लिए मई 2019 से पहले संभावित चुनाव उन्हीं की देख -रेख में होंगे। वह भारतीय प्रशासनिक सेवा में किसी विवाद से घिरे थे, जिसकी जांच चल रही थी , यह जानकारी उन्हें निर्वाचन आयुक्त नियुक्त करते वक़्त, मोदी सरकार को निश्चित रूप से रही होगी। क्योंकि सब जानते है कि भारत के किसी भी सांविधिक पद पर किसी भी व्यक्ति की “नियुक्ति”  ( चुनाव नहीं ) से पहले सरकार को उस व्यक्ति के बारे हर तरह की जानकारी की पूरी फ़ाइल दी जाती है।  उच्चतम  न्यायालय के न्यायाधीश पद समेत कई ऐसे पदों पर सरकार द्वारा की जाने वाली नियुक्ति प्रक्रिया के कई मामलों में ऐसा हुआ है कि जानकारी की फ़ाइल में कुछ भी प्रतिकूल मिलने पर नियुक्ति रोक दी गई। हालांकि, इसका खुलासा नहीं किया जाता  है। पर इसकी खबरें छन कर अक्सर बाहर आ ही जाती हैं।  तो क्या श्री रावत की  निर्वाचन आयुक्त पद पर नियुक्ति के समय मोदी सरकार को कोई भनक तक नहीं थी कि उनके खिलाफ कोई शिकायत दर्ज हुई थी जिसकी जांच की निर्वाचन आयुक्त पद पर उनकी नियुक्ति चल रही थी।  उस जांच की फाईल उनके निर्वाचन आयुक्त बन जाने के बाद ही बंद की गई।  श्री रावत जो भी कहें , लेकिन सरकार कैसे कह सकती है कि उसे इसके बारे में कुछ मालूम ही नहीं।

निर्वाचन आयोग की 23 जनवरी 2018 को जारी प्रेस विज्ञप्ति में और बहुत कुछ का उल्लेख है है पर उस जांच का कोई जिक्र नहीं है।  तब लगभग सभी अखबारों में भी यह खबर विस्तार से छपी।  अंग्रेज़ी अख़बार, डीएनए ने तो यह भी खबर दी कि 2 दिसंबर 1953 को पैदा हुए श्री रावत मूलतः उत्तर प्रदेश के हैं। उन्हें बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ( वाराणसी ) से भौतिक शास्त्र में स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त है। उन्हें दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी
शासन की समाप्ति पर मई 1994 में कराये गए प्रथम चुनाव में संयुक्त राष्ट्र के चुनाव पर्यवेक्षक के रूप में डेपुटेशन पर भेजा गया था।  लेकिन
किसी भी अखबार में संदर्भित शिकायत और जांच की खबर नहीं दी गई।

राजस्थान पत्रिका के भोपाल संस्करण ने सोमवार, 9 अप्रैल  2018 को इस प्रकरण पर अपने संवाददाता हरीश दिवेकर की रिपोर्ट बैनर हेडलाइन के रूप में प्रकाशित करने के पहले पत्रकारिता के आदर्शों के तकाजों के तहत जब श्री रावत से संपर्क किया तो एक पंक्ति का मासूमियत से लबरेज जवाब मिला, ” मुझे ऐसी कोई जानकारी नहीं कि मेरे बारे में कोई शिकायत हुई थी। जब शिकायत के बारे में पता नहीं तो उसकी फाइल बंद पर कैसे कहूं ” .

मीडिया विजिल के इस स्तम्भकार ने जब राजस्थान पत्रिका के भोपाल संस्करण के सम्पादक जिनेश जैन से संपर्क किया तो उन्होंने अपने अखबार द्वारा पत्रकारीय सिद्धांतों के निर्वहन की परम्परा पर गर्व व्यक्त करते हुए कहा कि रिपोर्ट में जान थी।  इसलिए उसे छापने से पहले श्री रावत से  प्राप्त अनभिज्ञता -युक्त प्रतिक्रया मिलने के बाबजूद प्रमुखता से प्रकाशित करना मुनासिब था। नई दिल्ली में रफ़ी मार्ग पर अवस्थित इंडियन न्यूजपेपर सोसायटी (आईएनएस ) की बिल्डिंग के दूसरे माले पर राजस्थान पत्रिका के कार्यालय की अनुमति से इस अखबार के विभिन्न नगरों के संस्करण की  उपलब्ध प्रतियों का ध्यान से अवलोकन करने पर पता चला कि यह रिपोर्ट उन सबमें बेशक उतनी प्रमुखता से ना सही, लेकिन अवश्य प्रकाशित हुई थी।

लेकिन भारत में  विभिन्न भाषाओं के सैंकड़ों अखबारों में से शायद ही किसी ने यह रिपोर्ट या फिर उसका  ‘फॉलो अप ‘ छापने की जरुरत समझी।  ऐसा क्यों ? यह प्रश्न , सम्यक विश्लेषण की मांग करता है। त्वरित विश्लेषण से  पहला उत्तर तो यही मिलता है कि उनकी सोच शायद यह रही कि अगर रिपोर्ट सही भी हो तो कोई क्यों बैर ले भारत की सांविधिक संस्थाओं के प्रमुख पद पर आसीन किसी भी व्यक्ति से। त्वरित विश्लेषण से  उभरा दूसरा उत्तर निश्चय ही और भी चिंताजनक है। वह यह है कि सूचना विस्फोट के मौजूदा युग में विद्यमान भारत के लगभग हर अखबार की अघोषित नीति -सी बन गई है :  ‘ हमको एक्सक्लूसिव माँगता ” . लेकिन यह नीति है ही नहीं , कुनीति है। अगर यह नीति होती तो विभिन्न अखबार एक ही दिन , एक ही वक़्त , एक ही स्त्रोत से , एक ही जैसी खबरें , बिन उसकी जांच -परख के क्यों छापते रहते हैं।  चुनाव के मामले में तो इस तरह की कुनीतिपूर्ण खबरें और भी ज्यादा नज़र आती है। कर्नाटक विधानसभा के चुनाव कार्यक्रम की घोषणा करने के लिए एकमेव अधिकृत निर्वाचन आयोग के कुछ भी बताने के पहले ही अनाधिकृत रूप  से भारतीय जनता पार्टी के आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय के ट्वीट के आधार पर ‘टाइम्स नाउ’ समेत कुछेक अन्य क्षेत्रीय खबरिया चैनलों ने ही नहीं कांग्रेस की कर्नाटक इकाई के भी सोशल मीडिया प्रभारी ने भी खबर ‘ टीप ‘  उसे एक्सक्लूसिव रंग दे दिया।  तुर्रा यह कि भाजपा आईटी सेल ने अपने ट्वीट का आधार टाइम्स नाउ की खबर बता दी और टाइम्स नाउ  ने ‘ प्रेस /अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता ‘ की
दुहाई दे दो टूक कह डाला कि उसे अपनी खबर का स्त्रोत का खुलासा करने के लिए विधिक रूप से बाध्य नहीं किया जा सकता है।

उक्त प्रकरण के बारे में मीडिया विजिल के इस स्तम्भ के बुधवार, 4 अप्रैल 2018 के अंक में विस्तार से बातें कही जा चुकी हैं। उन सारी बातों को फिर
दोहराने का औचित्य नहीं है। लेकिन इतना तो सवाल किया ही जाना चाहिए कि चुनाव कार्यक्रम की उस लीक की जांच कराने की मुख्य निर्वाचन आयुक्त श्रीरावत की घोषणा के बाद उस जांच में  आखिरकार क्या हुआ।  क्या श्री रावत नौ साल बाद वही कहेंगे जो उन्होंने अपने खिलाफ शिकायत की जांच की फाइल बंद हो जाने की राजस्थान पत्रिका की रिपोर्ट छपने से पूछे जाने पर कहा, ‘मुझे ऐसी कोई जानकारी नहीं कि …  कोई …  हुई थी। जब …. के बारे में पता नहीं तो उसकी फाइल बंद पर कैसे कहूं .”

बहरहाल,  “अथ  चर्चा” श्री रावत के खिलाफ शिकायत, उसकी जांच और  “जांच इति ”  की। राजस्थान पत्रिका की प्रकाशित रिपोर्ट  की हेडिंग ,
सबहेडिंग कहती है : श्री रावत के खिलाफ 9 साल पुरानी शिकायत की जांच उपचुनाव के दिन बंद, – मुंगावली-कोलारस उपचुनाव के मतदान के दिन बना प्रस्ताव, 6 दिन बाद सीएस ने फाइल बंद के दिए आदेश – आदिम कल्याण जाति के प्रमुख सचिव पद पर रहते हुए उनके खिलाफ हुई थी शिकायत। भोपाल डेटलाइन से प्रकाशित विस्तृत रिपोर्ट में खुलासा किया जाता है कि मुुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत के खिलाफ 9 साल पुरानी शिकायत की जांच फाइल राज्य सरकार ने मुंगावली-कोलारस उपचुनाव के दौरान बंद कर दी। इसका प्रस्ताव मतदान वाले दिन 24 फरवरी को तैयार किया गया। सामान्य प्रशासन कार्मिक विभाग ने इसे मुख्य सचिव , बीपी सिंह को भेजा। उनकी सहमति आते ही कार्मिक विभाग ने एक मार्च को रावत के खिलाफ फाइल बंद कर दी। शिकायत के समय मध्यप्रदेश कैडर के आइएएस रहे रावत यहां आदिम कल्याण विभाग में प्रमुख सचिव थे। उन पर आदिम जाति कल्याण विभाग के प्रमुख सचिव रहते हुए प्रदेश में बाहर से आए लोगों को अनुसूचित जाति का गलत तरीके से फायदा देने का आरोप था।

सामान्य प्रशासन कार्मिक विभाग ने रावत के खिलाफ शिकायत के निस्तारण में उनकी सेवानिवृत्ति को आधार बनाया। फाइल में कहा गया कि रावत 31 दिसंबर 2013 को सेवानिवृत्त हो चुके हैं, ऐसे में पेंशन नियमों के तहत उन पर कार्रवाई नहीं की जा सकती। साथ ही यह उल्लेख किया कि  कायतकर्ता ने अपना पूरा नाम और पता नहीं लिखा है, इसलिए शिकायत पर संज्ञान लेना उचित नहीं है।

यह शिकायत सिवनी में  ‘अजाक्स ‘ संगठन के सदस्य ब्राम्हणे के नाम से मई 2009 में मुख्य सचिव को लिखित भेजी थी। इसमें रावत और उनके अधीनस्थ अधिकारी, सुरेन्द्र सिंह भण्डारी पर आरोप थे। शिकायत में हवाला दिया कि भारत सरकार के आदेश के अनुरूप 14 सितंबर 2008 को प्रदेश में बघेल और बागड़ी जाति को अनुसूचित जाति में शामिल नहीं करने का फैसला लिया था,लेकिन इसके कोई आदेश जारी नहीं किए गए।  इससे दोनों जातियों के लोगों को अनुसूचित जाति का फायदा मिलता रहा। आरोप था कि उत्तर प्रदेश में बांदा जिले से 1950 के बाद रीवा एवं पन्ना जिले में आकर बसे कुम्हार प्रजापति के लोगों को भी अनुसूचित जाति में शामिल कर लिया। यह केन्द्र की गाइडलाइन का उल्लंघन था।

राजस्थान पत्रिका ने जांच के पैमाने आदि का भी जिक्र कर बताया कि कोई गुमनाम शिकायत आती है तो उसका निपटारा तत्काल जरूरी है। अगर शिकायत में महत्वपूर्ण तथ्य हैं और शिकायतकर्ता यह लिखता है कि वह जान का खतरा होने के कारण अपनी पहचान नहीं दे रहा है तो उसे जांच में लिया जाता है। शिकायत के साथ शपथ -पत्र भी देखा जाता है। अगर शपथ पत्र नहीं है तो उस शिकायत को भी तत्काल बंद किया जा सकता है। रिटायरमेंट के 4 साल तक सरकार संबंधित अधिकारी के खिलाफ पेंशन नियमों में कार्रवाई कर सकती है। जांच में दोषी पाए जाने पर पेंशन बंद की जा सकती है। जांच में आरोप गंभीर पाए जाने पर सरकार रिटायरमेंट के चार साल बाद भी कार्रवाई कर सकती है। यहां तक कि आपराधिक मामला दर्ज हो सकता है।

रिपोर्ट के मुताबिक़ मुुंगावली-कोलारस विधानसभा उप चुनाव में चुनाव आयोग का चेहरा सख्त दिखा था। आयोग ने मुख्यमंत्री पर तल्ख टिप्पणी करते हुए चुनाव में उन्हें संभलकर बोलने की नसीहत दी थी। मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया को वोटरों को धमकाने के मामले में दोषी मानते हुए उन्हें चेतावनी
दी। मंत्री माया सिंह को वोटरों को धमकाने पर नोटिस दिया गया। वोटर लिस्ट में गड़बड़ी पाए जाने पर अशोकनगर कलेक्टर बीएस जामोद को हटा दिया था। आयोग की इस सख्ती से सरकार स्तब्ध रह गई। ऐसी शिकायतों को समय रहते निपटाना होना चाहिए। लंबे समय तक शिकायतों को लटकाने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई होनी चाहिए। रिटायरमेंट के चार साल तक निपटारा नहीं होने पर आरोपी अधिकारी को फायदा मिल जाता है। (के.एस. शर्मा, पूर्व मुख्य सचिव, मध्यप्रदेश )

शिकायतकर्ता का नाम और पता पूरा नहीं होने के कारण शिकायत बंद कर दी गई है। निर्णय मेरिट के आधार पर निर्णय लिया। राजनीतिक रंग देने जैसी कोई बात नहीं है। मंत्रालय में इ-फाइलिंग सिस्टम लागू हो रहा है। सभी पेडिंग फाइलें, जो आधारहीन है, उन्हें नस्तीबद्ध किया जा रहा है। इनमें यह फाइल भी शामिल है।  (रश्मि अरूण शमी, प्रमुख सचिव, सामान्य प्रशासन कार्मिक विभाग )

मुझे ऐसी कोई जानकारी नहीं कि मेरे बारे में कोई शिकायत हुई थी। जब शिकायत के बारे में पता नहीं तो फाइल बंद पर कैसे कहूं। ( ओ.पी. रावत,
मुख्य चुनाव आयुक्त )

मीडिया विजिल के लिए यह आलेख राजस्थान पत्रिका से प्राप्त अनुमति के बाद इसलिए भी प्रकाशित की जा रही है कि यह कोई व्यक्तिगत नहीं लोकतांत्रिक संस्थाओं की हिफाजत का मामला है।  ” जागो मीडिया जागो “.

(चंद्र प्रकाश झा  वरिष्ठ पत्रकार हैं, जिन्हें मीडिया हल्कों में सिर्फ ‘सी.पी’ कहते हैं। सीपी को 12 राज्यों से चुनावी खबरें, रिपोर्ट, विश्लेषण, फोटो आदि देने का 40 बरस का लम्बा अनुभव है।)