आज के हिंदी अख़बारों के संपादकीय: 23 फ़रवरी, 2018

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नवभारत टाइम्स
संकट में सरकारी बैंक

पंजाब नेशनल बैंक में पाए गए भारी-भरकम घोटाले के बाद सरकारी बैंकों की बदहाली का मुद्दा चर्चा में है। इस बात को लेकर आम सहमति बनती जा रही है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक गहरे संकट का शिकार हैं और वे किसी असाधारण उपाय से ही सुधर सकते हैं। पिछले कुछ वर्षों में बैंक घोटालों में लगातार तेजी आई है। 2013 में रिजर्व बैंक के तत्कालीन डिप्टी गवर्नर डॉ. के.सी.चक्रवर्ती ने बताया था कि एक करोड़ रुपये से ज्यादा के घोटालों का हिस्सा 2004-05 से 2006-07 के बीच 73 फीसद था, जो 2010-11 और 2012-13 में 90 प्रतिशत हो गया। रिजर्व बैंक की फाइनैंशियल स्टैबिलटी रिपोर्ट, जून 2017 के अनुसार एक लाख से ऊपर के घोटाले का कुल मूल्य पिछले पांच वर्षों में 9750 करोड़ से बढ़कर 16,770 करोड़ तक पहुंच गया। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2016-17 में घोटाले की कुल राशि का 86 फीसद हिस्सा लोन से जुड़ा था। बेशक, कई मामले पकड़े भी जा रहे हैं लेकिन घोटालों के साथ बढ़ते एनपीए को देखकर एक राय यह भी सुनने में आ रही है कि क्यों न इन बैंकों को भी निजी हाथों में सौंपकर सारा झंझट ही खत्म कर दिया जाए। पिछले दिनों उद्योग मंडल एसोचैम ने कहा कि सरकार को बैंकों में अपनी हिस्सेदारी 50 प्रतिशत से नीचे ला देनी चाहिए ताकि सरकारी बैंक भी निजी क्षेत्र के बैंकों की तरह जमाकर्ताओं के हितों को सुरक्षित रखते हुए अपने शेयरधारकों के प्रति पूर्ण जवाबदेही बरत सकें। एसोचैम के मुताबिक, सरकार के लिए करदाताओं के पैसे से इन बैंकों को संकट से उबारते रहने की भी एक सीमा है। ऐसी आवाजें कुछ और हलकों से भी उठी हैं, लेकिन मामले को दूसरी तरफ से देखें तो लगता है कि निजीकरण इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता। सबसे बड़ी परेशानी यह है कि गांवों और छोटे कस्बों तक अपनी पहुंच बढ़ाना निजी बैंकों के अजेंडे पर ही नहीं है। सरकारी बैंकों पर से सरकार का कब्जा हटते ही देश की एक बड़ी आबादी बैंकिंग सिस्टम से कटने के अलावा सरकारी योजनाओं के लाभ से भी वंचित हो जाएगी। आज मनरेगा की मजदूरी से लेकर लगभग सारी सब्सिडी सीधे लोगों के खाते में जा रही है। यह काम सरकारी बैंकों के जरिए ही संभव है। निजी बैंक तो न्यूनतम जमा राशि भी इतनी ज्यादा मांगते हैं कि गरीब तबका उनमें खाता ही नहीं खुलवा सकता। उनका सिस्टम शहरी मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। मामले का एक पहलू यह भी है कि विश्वव्यापी मंदी में भारतीय अर्थव्यवस्था के पैर नहीं उखड़े तो इसका काफी श्रेय सरकारी बैंकों की धीमी रफ्तार को जाता है। इसलिए उनसे पीछा छुड़ाने के बजाय उन्हें सुधारने की कोशिश होनी चाहिए। बैंकों के प्रबंधन का ढांचा बदला जाना चाहिए और इसके रेग्यूलेटरी मैकेनिज्म को दुरुस्त किया जाना चाहिए।


जनसत्ता 

अनिश्चितता के बीच

कमल हासन के राजनीतिक दल बनाने की घोषणा पर शायद ही किसी को हैरत हुई हो, क्योंकि राजनीति में आने का इरादा वे पिछले साल ही जता चुके थे। पर यह खासकर तमिलनाडु की राजनीति की एक बहुत अहम घटना है। बुधवार को उन्होंने अपनी पार्टी का नाम घोषित कर दिया- मक्कल नीति मय्यम। इसका अर्थ होता है, जन न्याय केंद्र। यही नहीं, उन्होंने अलग से यह कहना भी जरूरी समझा कि उनकी पार्टी जन-असंतोष से जनमी है। पार्टी की राजनीतिक दिशा या विचारधारा को लेकर उन्होंने संकेतों और सूत्रों में कुछ और बातें भी कहीं। जहां द्रविड़ विचारधारा या आंदोलन को अपनी बुनियाद बताया, वहीं दक्षिणपंथी राजनीति पर एतराज भी जताया। उन्होंने कहा कि तिरंगे के तीन रंगों में केवल एक रंग भगवा है, जबकि उसे पूरे झंडे पर फैलाने की कोशिश हो रही है। इस तरह इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि यह सब भाजपा को नागवार गुजरेगा। पर मक्कल नीति मय्यम का गठन अन्नाद्रमुक और द्रमुक को भी शायद ही रास आएगा, क्योंकि दोनों पार्टियां नहीं चाहेंगी कि द्रविड़ विरासत पर कोई और दावा ठोंके। अलबत्ता आपसी मुकाबले में कमजोर पड़ने पर दोनों में से कोई भी पार्टी कमल हासन की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा सकती है। पर यह तो बाद की बात है। अभी सवाल यह है कि कमल हासन के आने से तमिल राजनीति पर क्या असर पड़ेगा।

तमिलनाडु एक ऐसा राज्य है जिसकी सियासत को सिनेमा के सितारों ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। एमजी रामचंद्रन, जयललिता और करुणानिधि फिल्मी दुनिया से आए थे। इस इतिहास को देखते हुए स्वाभाविक ही कमल हासन की नई भूमिका को लेकर लोगों में काफी उत्सुकता और दिलचस्पी है। सितंबर 2005 में भी ऐसा ही मंजर था, जब सिनेमा की दुनिया से आकर विजयकांत ने अपनी नई भूमिका शुरू की थी। वे भी लोकप्रिय थे और उनकी पार्टी एमडीएमके का थोड़ा-बहुत जनाधार भी बन गया, पर जयललिता और करुणानिधि का विकल्प बनने की उनकी हसरत पूरी नहीं हो पाई। कमल हासन ने ऐसे वक्त राजनीति में कदम रखा है जब जयललिता इस दुनिया में नहीं हैं और अन्नाद्रमुक अनिश्चितताओं से घिरी हुई और धड़ों में बंटी हुई है। दूसरी तरफ, लगातार दो चुनाव हारने और वयोवृद्ध करुणानिधि की निष्क्रियता से द्रमुक की भी हालत खस्ता है। रही-सही कसर आरके नगर के उपचुनाव ने दोनों पार्टियों को आईना दिखा कर पूरी कर दी। इस तरह, कोई लोकप्रिय शख्सियत तमिलनाडु की राजनीति में कदम रखे, पृष्ठभूमि इसके एकदम अनुकूल है। पर सुपरस्टार कहे जाने वाले रजनीकांत भी राजनीति में आने का अपना इरादा औपचारिक रूप से घोषित कर चुके हैं। उन्होंने अपना राजनीतिक रुझान उस तरह से अभी तक साफ तौर पर जाहिर नहीं किया है, जिस तरह से कमल हासन कर चुके हैं।

केवल एक अनुमान है कि भाजपा को रजनीकांत रास आ सकते हैं। लेकिन रजनीकांत ने थोड़ा-बहुत दक्षिणपंथी झुकाव दिखाया, पर भाजपा से हाथ नहीं मिलाया, तो चुनाव में भाजपा को लाभ होगा या नुकसान? वैसी सूरत में भाजपा को रजनीकांत मित्र नजर आएंगे, या खतरा? बहरहाल, इस तरह के सारे सवाल यही बताते हैं कि दशकों से दो ध्रुवों में बंटी रही तमिलनाडु की राजनीति अभी पूरी तरह अनिश्चितता के दौर से गुजर रही है। यह भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि विधानसभा चुनाव तय समय पर ही यानी 2022 में होंगे, क्योंकि सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक भीतर ही भीतर विभाजित है। फिलहाल निश्चित तौर पर यही कहा जा सकता है कि नए समीकरण बनेंगे, दलों को लेकर भी, और उनके सामाजिक जनाधार को लेकर भी।


अमर उजाला
उम्मीदों का निवेश
उत्तर प्रदेश को लेकर अक्सर कहा जाता है कि यह प्रश्नों से घिरा प्रदेश है, जहां आम धारणा यही रही है कि यहां कुछ नहीं हो सकता। लेकिन लखनऊ में हुई इन्वेस्टर्स समिट समिट में उद्योग जगत ने जैसी दिलचस्पी दिखाई है, उससे साफ है कि इस सूबे की तस्वीर भी बदल सकती है। यह अपनेआप में रेखांकित करने वाली बात है कि इस सम्मेलन के पहले ही दिन सूबे के बजट के बराबर करीब 4.28 लाख करोड़ रुपये के निवेश से संबंधित सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किए गए। इसके साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने ऐलान किया है कि बजट में जिन दो डिफेंस डिफेंस इंडस्ट्रियल कॉरिडोर की स्थापना का प्रस्ताव है, उसमें से एक बुंदेलखंड में बनेगा, जिसे अतिरिक्त तोहफे के रुप में देखा जा सकता है। 1980 के दशक में बिहार, राजस्थान और मध्यप्रदेश के साथ उत्तर प्रदेश को बीमारू राज्य की संज्ञा से नवाजा गया था, तब इनके पिछड़ेपन के लिए जिन चीजों की शिनाख्त की गई थी, उनमें बुनियादी ढांचे के अभाव को एक बड़ा कारण माना गया था। इस लिहाज से देखें, तो इन्वेस्टर्स समिट में सर्वाधिक दिलचस्पी इसी क्षेत्र में दिखाई गई है और सबसे अधिक 1.98 लाख करोड़ रुपये के निवेश से संबंधित एमओयू पर हस्ताक्षर किए गए हैं, इसके बाद दूसरे नंबर पर अक्षय ऊर्जा का क्षेत्र है। ये दोनों क्षेत्र आम आदमी से सीधे जुड़े हुए हैं। कृषि क्षेत्र को भी खास तवज्जो दी गई है, तो इसलिए कि सरकार किसानों की आय दोगुना करना चाहती है। जाहिर है, अभी सिर्फ सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर हुए हैं और उनके अमल में आने में वक्त लगेगा। दरअसल निवेशकों की सबसे बड़ी अड़चन यह होती है कि उन्हें आमंत्रित तो कर लिया जाता है, मगर उन्हें उचित माहौल और समर्थन नहीं मिलता। यहां खुद मुख्यमंत्री योगी कह रहे हैं कि वह निवेशकों के लिए एक छत के नीचे सारी सुविधाएं उपलब्ध करवाएंगे और डिजिटल क्लीयरेंस की भी व्यवस्था की जा रही है। एक और अहम बात यह है कि सिर्फ बड़े औद्योगिक घरानों नहीं, बल्कि इस समिट में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों ने भी निवेश में दिलचस्पी दिखाई है। मगर इसके साथ यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि विकास एकांगी न हो, वरना आज भी मानव विकास सूचकांक पर उत्तर प्रदेश निचले क्रम में है। इस सूबे में क्षमता भी है और संभावनाएं भी, बशर्ते कि उनको जमीन पर उतारा जाए।

हिंदुस्तान

ट्रुडेव की यात्रा से आगे

आठ दिन की यात्रा पर आए कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडेव जब भारतीय शैली में नमस्ते करते हुए उत्साह के साथ दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरे, तो शायद उन्हें पहला सदमा लगा होगा, जब वहां ‘वार्म वेलकम’ में उन्हें एक खास ‘गर्मजोशी’ नहीं दिखी होगी, जो हाल के दिनों में आम रही है। यह एक खास किस्म का ठंडापन था, जिसके अपने संदेश हैं। भारतीय हलकों में भी इसे कौतुक से ही देखा गया। यह कौतुक बना रहा, जब वह आगरा में ताज के सामने या साबरमती में पारंपरिक भारतीय परिधान पहनकर चरखा चलाते हुए परिवार के साथ फोटो खिंचा रहे थे। कौतुक इसलिए था कि आधिकारिक यात्रा पर आने के बावजूद हवाई अड्डे पर जस्टिन ट्रुडेव का स्वागत करने के लिए वहां प्रधानमंत्री तो नहीं ही पहुंचे, जो हाल के दिनों में कई शासनाध्यक्षों का प्रोटोकॉल तोड़कर गर्मजोशी से स्वागत करने को तत्पर रहे हैं, बल्कि उत्तर प्रदेश और गुजरात जाने पर भी उनका स्वागत वहां के मुख्यमंत्रियों या किसी वरिष्ठ मंत्री ने नहीं, वहां की प्रशासनिक मशीनरी ने किया।

इसने बता दिया कि भारत अगर मित्र से गर्मजोशी दिखाना जानता है, तो वक्त-जरूरत सख्त संदेश देने से गुरेज नहीं करता। ट्रुडेव भले ताजमहल के सामने, साबरमती में चरखा चलाते या स्वर्णमंदिर में रोटी बेलकर कारसेवा की फोटो खिंचा अभिभूत महसूस करें, लेकिन वह असल सवाल तो उन्हें भी साल रहा होगा, जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी। शायद इसीलिए उन्हें कहना पड़ रहा है कि ‘यह यात्रा करीबी रिश्ते और अतुलनीय अवसरों से जुड़ी है और यह हाथ मिलाने और तस्वीरें खिंचवाने के अवसर तलाशने की यात्रा नहीं है।’ ट्रुडेव को अनायास ही यह भी नहीं कहना पड़ा कि यह राजनीतिक समीकरणों से परे जाकर लोगों से रिश्ता बनाने का समय है और वह यही कर रहे हैं, क्योंकि सांस्कृतिक और आर्थिक रिश्ते आगे बढ़ाने का वह इसी को आधार मानते हैं। संदेह नहीं कि इस सबके पीछे कनाडा के सिख समुदाय का वोट बैंक और खालिस्तान आंदोलन से ट्रुडेव की करीबी कहीं न कहीं बड़ा कारण है। ट्रुडेव सरकार के कई मंत्रियों की खालिस्तान आंदोलन से करीबी जगजाहिर है। यहां तक कि ट्रुडेव की लिबरल पार्टी कनाडाई सिखों के वोट और उससे भी ज्यादा उनकी फंडिंग पर बुरी तरह आश्रित है। प्रधानमंत्री बनने के बाद खुद ट्रुडेव भी खालिस्तानियों के दबदबे वाले ‘खालसा दिवस’ समारोह में शामिल हो चुके हैं, यह अलग बात है कि उनके पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री इससे बचते रहे हैं।
यह पहली बार नहीं हो रहा, जब भारत-कनाडा रिश्तों में खालिस्तान की खटास उभरती दिखाई दे रही है। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम को किसी राष्ट्र या नेता की उपेक्षा के रूप में देखना उचित नहीं। ऐसा कुछ हुआ भी नहीं है। विवाद बेबुनियाद नहीं है, यह तब जाहिर हो गया, जब उनके मुंबई कार्यक्रम में सजायाफ्ता आतंकी जसपाल अटवाल की मौजूदगी पाई गई। इतना ही नहीं, वह ब्रिटिश उच्चायोग में होने वाले रात्रि भोज के आमंत्रितों में भी था। बाद में यह भोज ही निरस्त कर दिया गया। कनाडा की सफाई के बावजूद मुमकिन है कि इसका असर आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनकी मुलाकात पर भी दिखे। लेकिन इसे ट्रुडेव और कनाडा के लिए एक सबक के रूप में तो लिया ही जाना चाहिए। यह भी याद रखना चाहिए कि राजनीति में कुछ भी अनायास नहीं होता।


राजस्थान पत्रिका
बेवजह की राजनीति
सेना को राजनीतिक मामलों में घसीटने की होड़ पिछले सालों में बढ़ती पिछले सालों में बढ़ती जा रही है। सेना सर्जिकल स्ट्राइक करें तो भी सबूत मांगे जाने लगे हैं और सेना देश की सुरक्षा से जुड़े किसी मामले पर अपना पक्ष रखे तो भी से राजनीति से राजनीति से भी से राजनीति से राजनीति से से राजनीति से राजनीति से जोड़कर देखा जाने लगा है। असम में बांग्लादेशियों की बढ़ती घुसपैठ पर सेना प्रमुख के बयान पर कुछ राजनीतिक दलों ने उन पर निशाना साधा है। सेना ने साफ किया कि बयान को राजनीति बयान को राजनीति अथवा धर्म से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। भाजपा और कांग्रेस ने भी सेना प्रमुख के बयान पर राजनीति करने वालों को आड़े हाथों लिया। असम में घुसपैठ को लेकर संसद से सड़क तक घमासान मचा चुका है। पाकिस्तान और चीन ऐसी घुसपैठ को बढ़ावा देने का कोई मौका नहीं छोड़ते। सेना प्रमुख ने घुसपैठ की समस्या को उठाया है, लिहाजा उसे उसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। सेना प्रमुख के बयान में असम में किसी एक दल के मुकाबले किसी दूसरे दल के तेजी से हो रहे विस्तार की चर्चा को अलग रखा जाना बेहतर विकल्प होता। चुनाव आयोग और अदालतों की चेतावनी के बावजूद राजनीति को धार्मिक रंग में रंगने का खुला खेल हर चुनाव का अहम हिस्सा बनता जा रहा है। सरकार के साथ राजनीतिक दलों को ऐसा रास्ता तलाशना चाहिए जिससे राजनीति को साम्प्रदायिकता से दूर रखा जा सके। चुनाव जीतने के लिए देश की एकता के साथ खिलवाड़ करने की इजाजत किसी को नहीं दी जानी चाहिए। राजनीतिक दलों का भी कर्तव्य बनता है कि वे चंद फायदे के लिए सेना को राजनीति में घसीटने से परहेज करें। सेना पर देश की रक्षा का दायित्व है जिसे मैं ठीक ढंग से निभा रही है। राजनीतिक दलों के साथ-साथ सेना के अधिकारियों से भी अपेक्षा की जाती है कि वह ऐसे बयानों से बचें जिससे कि बेवजह लोगों को राजनीति करने का मौका मिले

प्रभात खबर
संकट में पर्यावरण
हालांकि पर्यावरण के बदतर होने की समस्या विश्वव्यापी है, पर अनेक देश हैं, जहां इसकी गंभीरता भयावह रूप लेती जा रही है. भारत भी उनमें से एक है. पिछले महीने जारी वैश्विक पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक में भारत आखिरी पांच देशों में शामिल है और वह दो साल में 36 पायदान नीचे आया है. ग्रीनपीस के एक हालिया अध्ययन में पाया गया है कि स्वच्छ वायु के मामले में 280 भारतीय शहरों में एक भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानदंडों पर खरा नहीं उतर सका है. दुनिया के 20 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से 13 हमारे देश में हैं. पिछले साल अक्टूबर में प्रकाशित लांसेट के शोध में जानकारी दी गयी थी कि 2015 में 25 लाख लोगों को प्रदूषणजनित बीमारियों के चलते अपनी जान गंवानी पड़ी थी. नदियों में प्रदूषण तथा वन क्षेत्र का घटते जाने की समस्या भी लंबे समय से मौजूद है. विकास और शहरीकरण के कारण पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव स्वाभाविक है, किंतु पर्यावरण को संरक्षित करने और प्रदूषण को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी को ठीक से नहीं निभाने से वर्तमान और भविष्य के लिए गंभीर मुश्किलें खड़ी हो रही हैं. जहां शहरी इलाकों में हवा-पानी के खराब होने से स्वास्थ्य संकट पैदा हो रहा है, वही जीवन-यापन के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर लोग दिक्कतों का सामना कर रहे हैं. जानकारों की मानें, तो 2014 से 2017 के बीच 36 हजार हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र को खनन, सड़क निर्माण, उद्योग जैसे उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल में लाया गया है. उल्लेखनीय है कि बांधों के मामले में हिमालय जल्दी ही दुनिया का सबसे अधिक घनत्व का क्षेत्र बन जायेगा. ऐसे में स्वाभाविक तौर पर सामाजिक और कानूनी विवाद, पलायन और असमान विषय जैसी दिक्कतें भी बढ़ती जा रही हैं. हालांकि, सरकार ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन और वैश्विक गर्मी की चुनौती का सामना करने के साथ पर्यावरण बचाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता को बार-बार दोहराया है. समय-समय पर राज्य सरकारों ने भी पहले की हैं. लेकिन, एक तो इन कोशिशों के सकारात्मक परिणाम नहीं दिख रहे हैं और दूसरे सरकार की जल-मार्ग बनाने या बंजर जमीनों को सुधारने जैसी अनेक कोशिशों पर उठे सवालों का संतोषजनक जवाब नहीं मिल रहा है. एक परेशानी की बात यह भी है कि कुछ लोग, जिनमें अनेक नीति नियामक भी हैं, पर्यावरण को लेकर चिंता को विकास की राह में बाधक मानते हैं, जबकि जरूरत इस बात की है कि एक ऐसी समझ बनायी जाये, जो विकास की जरूरतों और संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के बीच संतुलन बना सके. यदि हमने नदियों भूजल, जंगलों, पहाड़ों जैसे प्राकृतिक देनों को सहेज कर नहीं रखा और उनका ठीक से उपयोग नहीं किया, तो समृद्धि और विकास के लक्ष्यों को भी ठीक से पाना संभव नहीं होगा. सरकार, उद्योग जगत और समाज को पर्यावरण के मौजूदा संकट पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है.

दैनिक जागरण

सेना प्रमुख की खरी-खरी

यह कोई नई या गोपनीय बात नहीं कि पूवरेत्तर भारत के राज्यों में बांग्लादेश से हो रही घुसपैठ साजिश का भी हिस्सा है। यह एक तथ्य है कि पूवरेत्तर के राज्यों के साथ-साथ बांग्लादेश के सीमांत इलाकों में भी आबादी के संतुलन को बदलने की कोशिश हो रही है। कई क्षेत्रों में तो यह बदल भी गया है और उसके कारण तमाम समस्याएं भी उभर आई हैं, लेकिन बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ को रोकने के लिए जैसी कोशिश होनी चाहिए वह नहीं हो रही है। उलटे जब कभी बांग्लादेश से आए अवैध घुसपैठियों को वापस भेजने की बात होती है तो उस पर इस या उस बहाने आपत्ति खड़ी करने वाले सामने आ जाते हैं। एक बार फिर ऐसा ही हो रहा है। जब जनरल बिपिन रावत के इस बयान को गंभीरता से लिया जाना चाहिए कि बांग्लादेश से हो रही घुसपैठ के पीछे पाकिस्तान का हाथ है और इस मामले में चीन भी उसकी मदद कर रहा है तब उनके कथन के इस हिस्से पर तूल दिया जा रहा है कि असम के राजनीतिक दल अॅाल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट का विस्तार कहीं तेजी से हुआ है और इस तेजी ने भाजपा के उभार को भी मात किया है। नि:संदेह आदर्श स्थिति यही कहती है कि सेना प्रमुख को राजनीतिक दलों के उत्थान-पतन की तेजी पर चर्चा से बचना चाहिए, लेकिन क्या पूवरेत्तर के हालात आदर्श स्थिति के सूचक हैं? विभिन्न राजनीतिक दल सेना प्रमुख के बयान को राजनीतिक बताकर हंगामा कर सकते हैं, लेकिन इससे यह सच्चाई छिप नहीं सकती कि पश्चिम बंगाल, असम के साथ पूवरेत्तर के अन्य राज्यों में किस तरह कुछ राजनीतिक दलों ने बांग्लादेशी घुसपैठियों को संरक्षण देकर अपनी राजनीति चमकाई है। ऐसी राजनीति करने वाले दलों में अॅाल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट की भी गिनती होती है। 1अगर सेना प्रमुख या अन्य कोई गैर राजनीतिक व्यक्ति किसी गंभीर समस्या को बयान करते हुए राजनीतिक दल विशेष का उल्लेख करे तो उसके राजनीतिक मायने निकालने के बजाय यह देखा जाना ज्यादा जरूरी है कि उसने जो कहा वह सच है या नहीं? आखिर देश के एक हिस्से में आबादी संतुलन को बदल रही अवैध घुसपैठ ज्यादा गंभीर बात है या फिर सेना प्रमुख की ओर से इसका उल्लेख करना? यह अच्छा होता कि सेना प्रमुख राजनीतिक दलों का नाम लेने के स्थान पर संकेत रूप में अपनी बात कहते, लेकिन अब जब यह स्पष्ट कर दिया गया है कि उनका बयान राजनीतिक या धार्मिक नहीं और उन्होंने इस क्षेत्र में आबादी के मिश्रण और विकास की जरूरत पर जोर दिया है तो क्या इस जरूरत को पूरा करने का काम होगा? क्या उनके बयान पर शोर मचा रहे लोग यह समझने के लिए तैयार होंगे कि सीमावर्ती इलाकों में आबादी के संतुलन में व्यापक बदलाव आना देश की सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा है? खरी बात कहने वाले जनरल रावत के बयान से परेशान लोगों को यह भी देखना चाहिए कि उन्होंने यह भी कहा है कि जो हो चुका उसे बदला नहीं जा सकता है और समस्या को समग्रता में देखे जाने और उसे मिलकर हल करने की आवश्यकता है।


देशबन्धु

ये किस मुकाम पर आ गए हम

राजस्थान में एक बार फिर भीड़ ने कानून अपने हाथ में लिया और एक शख्स की पीट-पीट कर हत्या कर दी। अब इसे संयोग कहें या सोची-समझी साजिश, क्योंकि जिस इंसान को मारा गया, वह मुसलमान था। 25 बरस का मोहम्मद फैजल सिद्दीकी कानपुर का रहने वाला था और जयपुर के इंडस्ट्रियल एरिया में मजदूरी करता था। उसे बच्चा चोरी करने और एक छोटी बच्ची के साथ छेडख़ानी करने के संदेह में भीड़ ने इस बेरहमी से पीटा कि उसकी मौत ही हो गई। हैरत की बात यह है कि बच्ची के पिता असलम अंसारी सिद्दीकी पर लगे आरोपों से इनकार कर रहे हैं।

सिद्दीकी और अंसारी एक साथ काम करते थे और उनका कहना है कि सिद्दीकी अक्सर उनकी बच्ची के साथ रहता था, और कभी उसने कोई आपत्तिजनक व्यवहार नहींं किया। वे इस बात को नहीं मानते कि सिद्दीकी का इरादा बच्ची से छेड़खानी करने का था। सिद्दीकी ने ढाई साल की मासूम के साथ कोई गलत व्यवहार किया होगा तो उसकी जांच हो सकती है। लेकिन वह निर्दोष होगा तो उसके साथ अब इंसाफ नहीं हो सकता, क्योंकि भीड़ ने अपना फैसला पहले ही सुना दिया। यह सही है कि छोटे बच्चों के साथ अनाचार की घटनाएं समाज में बढ़ रही हैं, इसलिए किसी पर संदेह हो सकता है, लेकिन इसमें बिना बात सुने-समझे किसी की पीटकर हत्या कर देना, कतई मंजूर नहीं होना चाहिए। जो भीड़ बच्ची के साथ छेड़खानी के संदेह पर जागरूकता दिखा रही थी, क्या उसे पुलिस की कार्रवाई पर भरोसा नहींं था, क्योंकि सिद्दीकी पर एक महिला ने एफआईआर कराई थी। सवाल यह भी है कि क्या भीड़ ने सिद्दीकी को सजा दिलाने की जल्दबाजी इसलिए दिखाई क्योंकि वह मुसलमान था।

 बीते चार बरसों में देश भर में ऐसे कितने प्रकरण हो चुके हैं। कभी गौमांस, कभी गौतस्करी, कभी लव जिहाद, तो कभी दाढ़ी और टोपी, और शायद इसी कड़ी में अब जयपुर का यह प्रकरण भी जुड़ जाएगा। वैसे राजस्थान में इससे पहले पहलू खां और अफराजुल की हत्या के मामले भी हो चुके हैं, जिनमें मृतकों को इंसाफ नहींं मिला है।

अफराजुल की हत्या में आरोपी शंभुलाल रैगर ने क्रूरता, वीभत्सता और भयावहता की नई मिसाल कायम कर दी थी। हम आईएस के आतंकियों के वीडियो देखते हैं जिसमें बंधकों को घुटने के बल बिठाकर सिर कलम कर दिया जाता है और अपनी पाशविकता का प्रचार किया जाता है। कुछ इसी अंदाज में उसने अफराजुल को मार कर वीडियो बनाया था। हैरत की बात यह है कि इस घटना के बाद जेल जाकर भी उसके तेवर नहीं बदले हैं। बीते दिनों देश की सबसे सुरक्षित जेलों में से एक जोधपुर सेंट्रल जेल से रैगर के दो वीडियो सामने आए हैं। एक में वह अपनी जान को साथी कैदी से खतरा बता रहा है, दूसरे में प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ और ममता बनर्जी की निंदा कर रहा है। इन वीडियो को शंभुलाल ने कब और कैसे बनाया, अभी इसका पता नहींं चला है, न ही वीडियो बनाने के उपकरण पुलिस बरामद कर पाई है।

अब इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि हत्या के आरोपी को जेल में किस तरह की सुविधाएं मिली हुई हैं। अभी पिछले सप्ताह ही सुप्रीम कोर्ट ने धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसा की कड़ी निंदा की और घृणास्पद अपराध पर सख्त चेतावनी देते हुए कहा है कि धर्म के नाम पर हमला या हत्या नहीं की जा सकती। सर्वोच्च अदालत ने यह टिप्पणी 2014 के पुणे मर्डर केस में हिंदी राष्ट्रसेना के तीन सदस्यों की जमानत याचिका को खारिज करते हुए की थी। इन तीनों पर एक मुसलमान की हत्या का आरोप है जिसने हरी टीशर्ट पहनी थी और दाढ़ी रखी थी।

दरअसल हाईकोर्ट ने इससे पहले हत्या के अभियुक्तों को जमानत देते हुए अपने आदेश में कहा था कि अभियुक्तों की मृतक से कोई निजी दुश्मनी नहीं थी। मृतक का क़ुसूर सिर्फ इतना था वह दूसरे धर्म का था। धर्म के नाम पर उन्हें मारने के लिए उकसाया गया था। इंसानियत का तकाजा यही कहता है कि धर्म के नाम पर कोई हिंसा नहीं होनी चाहिए। अदालत भी यही कह रही है कि धर्म के नाम पर किसी की हत्या नहीं की जा सकती। लेकिन हमारा समाज किस मुकाम पर आ गया है कि न हम इंसानियत को मान रहे हैं, न कानून को।