आज के हिंदी/अंग्रेजी अख़बारों के संपादकीय: 26 मार्च, 2018

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नवभारत टाइम्स

राज्यसभा में राहत

यूपी-बिहार की तीन अहम लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के ठीक बाद आए राज्यसभा चुनाव नतीजे बीजेपी के लिए कुछ राहत जरूर लाए हैं। वोटरों की सीधी भागीदारी न होने के कारण इन्हें आम जनता के मिजाज का सूचक नहीं माना जा सकता, फिर भी इनकी अपनी अहमियत है। यूपी में विधायकों के स्तर पर एसपी-बीएसपी-कांग्रेस के तालमेल को निष्प्रभावी बनाकर यहां की नौवीं सीट भी अपने प्रत्याशी को दिलाने में बीजेपी कामयाब रही। इससे राज्य में अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल बनाए रखने में उसे आसानी होगी। यूपी से बाहर निकलें तो पश्चिम बंगाल में तृणमूल व कांग्रेस के बीच तालमेल के साथ ही वहां लेफ्ट पार्टियों के अलगाव की निरंतरता ने भी सबका ध्यान खींचा। कांग्रेस प्रत्याशी अभिषेक मनु सिंघवी वहां तृणमूल के सहयोग से जीते, जबकि सीपीएम प्रत्याशी राबिन देब पराजित हो गए। कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्धरामैया कांग्रेस के पक्ष में 3-1 का स्कोर देने में कामयाब रहे मगर तेलंगाना में टीआरएस के सामने कांग्रेस की दाल नहीं गली। ध्यान रहे, बीजेपी और कांग्रेस, दोनों के ही खिलाफ तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिशों में आजकल टीआरएस चीफ के. चंद्रशेखर राव सबसे आगे हैं। बहरहाल, 58 राज्यसभा सीटों पर हुए चुनाव के बाद अब सदन में बीजेपी की सदस्य संख्या 54 से बढ़ कर 69 हो गई है, जबकि कांग्रेस 54 से घटकर 50 पर आ गई है। इसके बावजूद राज्यसभा के अंदर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच शक्ति संतुलन में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है। सत्तारूढ़ एनडीए की कुल सदस्य संख्या अब भी 87 तक ही पहुंच पाई है, जो बहुमत के लिए आवश्यक संख्या 126 से काफी कम है। 2014 में लोकसभा चुनाव जीतने और वहां बीजेपी के अकेले दम पर पूर्ण बहुमत हासिल करने के बावजूद मोदी सरकार की राह का एक बड़ा कांटा राज्यसभा में नजर आता है, जहां सत्तारूढ़ गठबंधन अल्पमत में ही रह गया। इसके चलते महत्वपूर्ण विधेयकों पर उसे कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलों का मुंह ताकना पड़ता है। यह स्थिति आगे भी आसानी से बदलने के आसार नहीं हैं। चार बड़े राज्यों मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और कर्नाटक में विधानसभा चुनाव इसी साल होने हैं। इनके नतीजे बीजेपी की आशा के अनुरूप निकलें तो भी राज्यसभा चुनाव अब दो साल बाद ही होंगे। यानी मोदी सरकार के मौजूदा कार्यकाल में उसे इस अड़चन से मुक्ति नहीं मिलने वाली। अन्य मामलों में यह सरकार चाहे जो भी दावे करे, पर विपक्ष से तालमेल बनाने के सवाल पर इसका प्रदर्शन पिछली सरकारों के मुकाबले काफी कमजोर रहा है। इस चुनावी साल में विपक्ष का रुख स्वाभाविक तौर पर पहले से ज्यादा कड़ा होगा, मगर सरकार की कुशलता इसी बात में मानी जाएगी कि वह सार्थक संवाद के जरिए विपक्ष से तालमेल बनाकर अपने जरूरी विधेयकों को पारित कराए, ताकि कुछ बड़े काम उसके खाते में दर्ज हो सकें।


 जनसत्ता

अपराध और दंड

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाले के एक और मामले में सजा सुनाया जाना एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक घटना है। हमारे देश में ताकतवर आरोपियों के खिलाफ चल रहे मामलों का अंजाम तक पहुंच पाना विरल ही रहा है। इसका अंदाजा विधायिका में शामिल अनेक लोगों के खिलाफ लंबित मामलों की प्रगति को देख कर आसानी से लगाया जा सकता है। लालू प्रसाद को बीते शनिवार को रांची की विशेष सीबीआइ अदालत ने चारा घोटाले से जुड़े चौथे मामले में चौदह साल की सजा सुनाई है और साठ लाख रु. का जुर्माना भी लगाया है। यह मामला दुमका कोषागार से 3.13 करोड़ रु. की अवैध निकासी से संबंधित है। अदालत ने उन्हें इस मामले में कुछ दिन पहले ही दोषी ठहराया था। लेकिन इतनी लंबी सजा की आशंका लालू प्रसाद और उनके परिवार को नहीं रही होगी। इस फैसले पर जिस तरह से राजनीतिक प्रतिक्रिया हुई है वह अनुमान के अनुरूप ही है। लालू प्रसाद के बेटे तेजस्वी यादव और राष्ट्रीय जनता दल के अन्य नेताओं को जहां फैसले में भारतीय जनता पार्टी का षड्यंत्र नजर आया है, वहीं भाजपा ने जैसा बोया वैसा काटा की उक्ति का प्रयोग करते हुए राजद को लालू प्रसाद यादव के किए की याद दिलाई है।

भाजपा ने पलटवार में यह भी कहा है कि जब चारा घोटाले के मामले में लालू प्रसाद को आरोपी बनाया गया, या जब घोटाले के पहले मामले में उन्हें सजा हुई तब केंद्र में राजग की सरकार नहीं थी। लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र के बरी हो जाने और लालू को सजा हो जाने को एक राजनीतिक संदेश में बदलने की कोशिश राजद ने शुरू कर दी है। दूसरी तरफ भाजपा और मोदी चाहेंगे कि भ्रष्टाचार को मुद्दा बना कर वे राजद के अलावा, उसके साथ खड़े होने के कारण, कांग्रेस को भी घेरें। लेकिन हाल के उपचुनाव नतीजे बताते हैं कि बिहार में कुछ अलग ढंग के समीकरण ज्यादा काम करते हैं। लालू प्रसाद के जेल में होने के बावजूद राजद ने इन उपचुनावों में भाजपा और जनता दल (यू) की सम्मिलित शक्ति को धूल चटा दी। फिर भी, लालू का जेल में रहना भाजपा के लिए राहत की बात हो सकती है। भाजपा के खिलाफ हमेशा मुखर रहे लालू प्रसाद गैर-भाजपा दलों को एकजुट करने की कोशिश भी करते रहे हैं।

अगले लोकसभा चुनाव की चुनौती के मद््देनजर भाजपा से निपटने की रणनीति बनाने की सुगबुगाहट विपक्षी दलों में शुरू हो गई है। इसमें कांग्रेस अपने ढंग से सक्रिय है, तो कई क्षेत्रीय दल गैर-भाजपा गैर-कांग्रेस संघीय मोर्चा बनाने की कवायद कर रहे हैं। ऐसे वक्त में लालू प्रसाद का राजनीतिक परिदृश्य से बाहर रहना विपक्ष के लिए एक गहरा झटका है। चारा घोटाले के मामलों में इतनी लंबी जांच चली और इतने सारे तथ्य आ चुके हैं कि नाहक फंसाए जाने का आरोप एक सियासी प्रतिक्रिया के अलावा और कुछ नजर नहीं आएगा। लेकिन क्यों न सीबीआइ को स्वायत्त बनाया जाए, ताकि किसी के इशारे पर उसके काम करने के आरोप के लिए गुंजाइश ही न बचे। यूपीए सरकार के समय भाजपा सीबीआइ को स्वायत्त बनाने की पुरजोर वकालत करती थी, पर अब उसने इस मामले में खामोशी क्यों अख्तियार कर ली है!


 हिंदुस्तान

ग्लोबल वार्मिंग का स्वाद

कहा जाता है कि हर वक्त का अपना एक अलग स्वाद होता है। यह जुमला तो बड़े बुजुर्गों से अक्सर सुनाई देता है कि आजकल खाने में वह बात नहीं रही, जो पहले थी। अगर नॉस्टेलजिया से अलग करके देखें, तो वक्त के साथ हमारा खान-पान हमेशा ही बदलता आया है, जाहिर है कि यह मुंह का जायका भी बदलता है। इसके बहुत सारे कारण होते हैं। खाना बनाने में इस्तेमाल होने वाली चीजें बदल जाती हैं, खाना बनाने के तरीके, यहां तक कि बरतन भी बदल जाते हैं, और फिर हर नई पीढ़ी अपनी एक अलग पसंद-नापसंद लेकर आती है। आजकल संचार के नए युग में यह सब कुछ ज्यादा ही होता है, क्योंकि कई कारणों से हम आजकल अपनी थाली में दुनिया भर के पकवान सजाते रहते हैं।  लेकिन नया बदलाव जो हमारे दरवाजे पर दस्तक देने वाला है, उसे स्वीकार कर पाना शायद इतना आसान नहीं होगा। यह बात अलग है कि हो सकता है कि हमारे पास इस बदलाव को स्वीकारने के अलावा कोई और विकल्प ही न हो। ‘वल्र्ड वाइल्ड लाइफ फंड’ ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि ग्लोबल वार्मिंग हमारे जीवन की जिन चीजों को बदलने जा रही है, उनमें सबसे महत्वपूर्ण है हमारा खान-पान।
इस रिपोर्ट में चिकन का उदाहरण दिया गया है, खासकर चिकन टिक्का मसाला का, जो ब्रिटेन की सबसे लोकप्रिय डिश है। रिपोर्ट में बताया गया है कि यह स्वादिष्ट पकवान अब पहले जैसा नहीं रहेगा। खासकर इसलिए कि चिकन का स्वाद भी अब जल्द ही बदलने वाला है। अभी तक पोल्ट्री फार्म में मुरगों को जो दाना-चुग्गा खिलाया जाता है। संभव है कि ग्लोबल वार्मिंग के बाद यह दाना-चुग्गा उपलब्ध ही न हो। ऐसी सूरत में मुरगों को कीडे़ और काई वगैरह खिलानी पड़ेगी। यहां दो चीजें हैं। एक तो ग्लोबल वार्मिंग हमारा ही नहीं, पशु-पक्षियों का जायका भी बदलने जा रही है। दूसरी चीज यह कि जब मुरगों का भोजन बदलेगा, तो उसका असर चिकन के स्वाद पर भी पड़ेगा। बात सिर्फ इतनी ही नहीं है, चिकन टिक्का मसाला में इस्तेमाल होने वाले बहुत सारे मसाले भी बदल जाएंगे। यह भी कहा जा रहा है कि इसकी वजह से प्याज का उत्पादन बहुत ही कम हो जाएगा। बात सिर्फ चिकन जैसे भोजन की नहीं है। ग्लोबल वार्मिंग की सबसे ज्यादा मार गरीबों की थाली पर पड़ सकती है। यह माना जा रहा है कि उत्पादन कम होने की वजह से चावल की कीमतें काफी तेजी से बढ़ेंगी। चावल दुनिया में तीन अरब लोगों का दैनिक मुख्य भोजन है, जिनमें लगभग 70 करोड़ लोग नितांत गरीबी की अवस्था में रहते हैं। अभी इस बात का पूरा ब्योरा नहीं मिला है कि इसका असर दालों या सब्जियों पर क्या पड़ेगा?
समस्या स्वाद की शायद बहुत ज्यादा नहीं है। मानव सभ्यता ने हर स्थिति, हर अभाव, हर प्रचुरता और हर भूगोल में एक से एक स्वादिष्ट भोजन बनाने में कामयाबी हासिल की है। उम्मीद यही है कि ग्लोबल वार्मिंग की कठिनाइयों में भी यह जारी रहेगा। असली समस्या यह है कि अभी जिन लोगों की थाली में पेट भर भोजन नहीं पहुंच रहा, ग्लोबल वार्मिंग के हालात में उनका क्या होगा? यह भी कहा जा रहा है कि खेती, डेयरी उद्योग, पोल्ट्री उद्योग वगैरह के बहुत सारे तौर-तरीके हमें सिर्फ इसलिए छोड़ने पड़ सकते हैं कि वे धरती का तापमान बढ़ाते हैं। इनके सामने स्वाद तो एक छोटी चीज है।


अमर उजाला

चौथे मामले में चौदह साल

झारखंड  के दुमका कोषागार से अवैध तरीके से तीन करोड़ रुपये से अधिक की निकासी के मामले में लालू प्रसाद को दी गई कुल चौदह साल की सजा, जो भ्रष्टाचार के मामले में किसी भी राजनेता को सुनाई गई सबसे बड़ी सजा है, चारा घोटाले के स्वरूप और उसमें बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री की भूमिका बताने के लिए काफी है। अभी तक इस घोटाले के चार मुकदमों में लालू प्रसाद को सजा सुनाई जा चुकी है और शेष दो मामलों की सुनवाई होनी है। लालू प्रसाद की सक्रिय राजनीति का अंत तो पहले ही हो गया है, अब उनका जमानत पर छूटना भी मुश्किल प्रतीत होता है। सीबीआई की विशेष अदालत ने चारा घोटाले के इस चौथे मामले में सजा सुनाते हुए जो टिप्पणियां की हैं, वे बताती हैं कि पशुचारा और दवा के फर्जी बिल बनाकर कोषागार से करोड़ों की गैरकानूनी निकासी करने के मामले में लालू प्रसाद की केंद्रीय भूमिका थी। इस मामले में अदालत ने उन्हें आपराधिक साजिश रचने, धोखाधड़ी, जालसाजी और सरकारी पद का दुरुपयोग करने का दोषी पाया ही है। बहुत पहले सीबीआई के पूर्व संयुक्त निदेशक यूएन विश्वास ने चारा घोटाले को एक लंबी रेल यात्रा के रूपक के जरिये समझाया था, जिसमें यात्री चढ़ते हैं, अपना हिस्सा लेकर अगले स्टेशन पर उतर जाते हैं, लेकिन लगातार गड़बड़ी होते देखकर भी कोई खतरे की जंजीर खींचकर रेलगाड़ी को रोकने की जरूरत महसूस नहीं करता! सिर्फ यही नहीं कि मुख्यमंत्री और वित्त मंत्री के जिम्मेदार पदों पर  रहते हुए लालू ने खुद भ्रष्टाचार किया, बल्कि भ्रष्ट अधिकारियों को बचाने से लेकर जांच में रोड़े अटकाने और सदन में गलतबयानी करने तक का काम किया। बीती सदी के आठवें-नौवें दशक में बिहार में राजनेताओं और नौकरशाहों ने मिलकर भ्रष्टाचार का यह सुनियोजित खेल तब खेला, जब वहां सरकारी कर्मचारियों को वेतन नहीं मिल पा रहा था। भ्रष्टाचार का यह संस्थानीकरण जितना भीषण था, उसे सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के आवरणों से ढकना उससे कम बड़ी विडंबना नहीं है। हालांकि यह भी बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस घोटाले के षड्यंत्रकारियों को उनके किए की सजा दिलाने में लगभग दो दशक लग गए, लेकिन महत्वपूर्ण राजनीतिक पद पर बैठने वाले व्यक्ति आज कठोर सजा भुगत रहे हैं, तो यह देश में कानून और व्यवस्था के राज का ही सबूत है।


राजस्थान पत्रिका

सत्ता के सब साथी

भ्रम और दिखावे की राजनीति ने देश के लोकतंत्र पर लगे सवालिया निशान को और गहरा कर दिया है। खबर है कि बसपा, रालोद और निषाद पार्टी ने उत्तर प्रदेश राज्यसभा चुनाव में क्रॉस वोटिंग करने वाले अपने विधायकों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया है। यह संदेश देने के लिए कि साम्प्रदायिक ताकतों का साथ देने वालों के लिए उनके दल में कोई जगह नहीं है। विचारधारा की राजनीति के नजरिए से निष्कासन के इस कदम का स्वागत होना चाहिए। लेकिन भारतीय राजनीति में जो दिख रहा है, उसे सौ फीसदी सच नहीं माना जा सकता। बसपा वही पार्टी है जो उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर दो बार सरकार बना चुकी है। बसपा प्रमुख मायावती 90 के दशक में भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बनीं। यही हाल राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) का रहा है। आज भाजपा को साम्प्रदायिक दल करार देने वाली पार्टी के मुखिया चौधरी अजित सिंह भी भाजपा के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार में मंत्री रह चुके हैं।
यानी राजनीति में विचारधारा और सिद्धान्त चुनावी घोषणाओं तक सिमटकर रह गए हैं। भाजपा जनसंघ के जमाने से खुद को सिद्धान्तों वाली पार्टी बताने से नहीं थकती थी। आज वह पार्टी सत्ता के लिए जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ सरकार चला रही है। भाजपा को पानी पी -पीकर गाली देने वाले नरेश अग्रवाल को वही पार्टी अब गले लगा रही है। जब तक निभ रही थी, तब तक तेलुगदेशम भाजपा के लिए अच्छी थी। अब भाजपा उस पर राजनीति करने का आरोप लगा रही है। देश पर सबसे लम्बे समय शासन में रही कांग्रेस की हालत भी दूसरे दलों से अलग नहीं है। जो लालू यादव कांग्रेस को कभी नहीं सुहाए, आज उनके साथ मेलजोल बढ़ा रही हैं। प. बंगाल में ममता बनर्जी को हराने के। लिए वामपंथी दलों के साथ हाथ मिलाने वाली कांग्रेस राज्यसभा की एक सीट जीतने के लिए तृणमूल कांग्रेस की शरण में जा बैठी। जनता समझने लगी है कि राजनीतिक दलों के लिए न सिद्धान्त बड़ी चीज है और न विचारधारा। उनके लिए बड़ी चीज हैं सत्ता। इसके लिए वे किसी से भी हाथ मिला सकते हैं।


 दैनिक जागरण

निर्थक तकरार

लंबित मुकदमों को लेकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के बीच जो तकरार हुई उससे देश को कुछ हासिल होने वाला नहीं है, क्योंकि सच्चाई यही है कि मुकदमों के समय पर निस्तारण के लिए न तो संप्रग सरकार ने ध्यान दिया और न ही राजग सरकार पिछले लगभग चार वर्षो में कोई ठोस पहल कर सकी है। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि विभिन्न अदालतों में लंबित मुकदमों और न्यायाधीशों की रिक्त संख्या को लेकर राहुल गांधी ने कानून मंत्री पर जो आरोप मढ़ा उसका उन्होंने जवाब दे दिया, क्योंकि तथ्य यही बताते हैं कि न तो निचली अदालतों में लंबित मुकदमों का बोझ कम हुआ है और न ही न्यायाधीशों के रिक्त पदों को भरने का काम प्राथमिकता के आधार पर किया जा रहा है। यही कारण है कि निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च अदालत तक में करीब तीन करोड़ मुकदमे लंबित हैं। यह ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट में लंबित मुकदमों की संख्या में कुछ कमी आई है, लेकिन उच्च न्यायालयों और निचली अदालतों के स्तर पर लंबित मुकदमों का अंबार कम होता हुआ नहीं दिख रहा है। यही स्थिति न्यायाधीशों के रिक्त पदों को भरने के मामले में भी है।1कानून मंत्री के इस दावे को खारिज नहीं किया जा सकता कि उनके अपने अब तक के कार्यकाल में रिकॉर्ड संख्या में उच्चतर न्यायपालिका में रिक्त न्यायाधीशों के पदों को भरने का काम किया गया है, लेकिन सवाल यह है कि निचली अदालतों में करीब छह हजार न्यायाधीशों के रिक्त पद क्यों खाली पड़े हुए हैं? इस सवाल पर केंद्र सरकार यह कहकर कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकती कि निचली अदालतों के स्तर पर पर्याप्त संख्या में न्यायाधीशों की नियुक्ति करना राज्य सरकारों का काम है, क्योंकि वर्तमान में देश के बीस राज्यों में भाजपा अथवा उसके सहयोगी दलों की सत्ता है। इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि मोदी सरकार के अब तक के कार्यकाल में न्यायिक प्रणाली के ढांचे को दुरुस्त करने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाए जा सके हैं। नतीजा यह है कि छोटे-छोटे मामले भी वर्षो से लंबित पड़े हुए हैं। लंबित मुकदमों के निस्तारण के लिए जिस स्तर पर पहल होनी चाहिए थी वह इस सरकार के कार्यकाल में भी क्यों नहीं हो सकी, इसका जवाब तो शासन में बैठे लोगों को ही देना होगा। यह ठीक नहीं कि न्यायिक प्रक्रिया में सुधार को लेकर जिस तरह संप्रग शासन में न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच कोई समझबूझ नहीं बन सकी वैसी ही स्थिति इस सरकार के समय में भी दिखी है। कार्यपालिका अथवा न्यायपालिका की ओर से यह कहते रहने का कोई मतलब नहीं कि लोगों को समय पर न्याय सुलभ कराने की आवश्यकता है, क्योंकि इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए जो कुछ भी किया जाना चाहिए वह देखने को नहीं मिल पा रहा है। इसमें दो राय नहीं कि लंबित मुकदमों के बोझ का एक कारण न्यायाधीशों की पर्याप्त संख्या न होना है, लेकिन एक अन्य वजह जटिल न्याय प्रक्रिया भी है। बेहतर हो कि कानून मंत्री राहुल गांधी को जवाब देने के साथ ही न्यायिक प्रक्रिया में सुधार के लिए कुछ कारगर कदम भी उठाने का काम करें।


प्रभात खबर

पड़ोसी देश और कूटनीति

बड़ी शक्तियों के संबंध मात्र द्विपक्षीय कारकों से निर्धारित नहीं होते हैं. उनके परस्पर संबंधों को क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय हलचलें भी प्रभावित करती हैं. यदि कोई दो बड़े देश पड़ोसी भी हों, तो कूटनीति के कई पेच सामने आते रहते हैं. वैश्विक आर्थिक विकास और राजनीतिक महत्व की दृष्टि से बेहद अहम भारत और चीन के आपसी रिश्ते इन्हीं जटिल परतों से दो-चार रहते हैं. चीन में भारतीय राजदूत गौतम बंबावाले ने ताजा साक्षात्कार में दोनों देशों के साझे हितों और विरोधाभासों को रेखांकित किया है, हांगकांग के अखबार ‘साउथ चाइना मॉर्निग पोस्ट’ के साथ बातचीत में उन्होंने कहा है कि ड्रैगन (चीन का प्रतीक) और हाथी ( भारत का सूचक ) एक साथ नृत्य कर सकते हैं, पर भारत को बेल्ट एवं रोड पहल को लेकर ठोस आपत्ति है. चीन की इस महत्वाकांक्षी परियोजना के तहत पाकिस्तानी साझेदारी में कश्मीर के अवैध कब्जेवाले इलाके में भी निर्माण कार्य की योजना है, जो कि भारतीय संप्रभुता को सीधी चुनौती है. इसी तरह से चीन डोकलाम में भी पैर पसारने की फिराक में है. यह

स्वागतयोग्य है कि भारतीय राजदूत ने जहां दोनों देशों के व्यापारिक संबंधों के बेहतर होते जाने का हवाला दिया है, वहीं विवादित मुद्दों पर भी दो टूक राय जाहिर की है. जब जून में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मिलेंगे, तो इन मसलों पर स्पष्टता के साथ बातचीत होने पर स्पष्टता के साथ की आशा है. लेकिन, भारत के अन्य पड़ोसी देशों के साथ गहराते चीनी रिश्ते को चिंता की
बात मानने की बंबावाले की राय को सीधे स्वीकार कर पाना आसान नहीं है. उनका तर्क है कि दक्षिण एशिया के देशों के साथ भारत के बहुत पुराने और मजबूत संबंध हैं. यह बात ऐतिहासिक तौर पर तो दुरुस्त है, किंतु अंतरराष्ट्रीय राजनीति की उथल-पुथल और आक्रामक चीनी विस्तारवाद के वातावरण में पहले के रिश्तों में तेज बदलाव घटित हो रहे हैं. म्यांमार, नेपाल, बांग्लादेश, मालदीव और श्रीलंका में न सिर्फ चीन का निवेश बढ़ता जा रहा है, बल्कि इन देशों के आंतरिक राजनीतिक समीकरणों में भी उसका प्रभाव बढ़ रहा है. पड़ोसी देशों के हालिया प्रकरणों को देखते हुए भारत कूटनीतिक तौर पर निश्चिंत रहने का जोखिम नहीं उठा सकता है. ऐसे में यह भी स्वीकार करना होगा कि पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को सकारात्मक बनाने के लिए सुविचारित नीतियों और प्रयासों की कमी रही है. चीन और पाकिस्तान के साथ बेहतरी की राह में तो सामरिक और रणनीतिक रोड़े हैं, परंतु अन्य देशों के साथ भरोसे की बनी-बनायी जमीन पर रिश्तों की नयी बुनियाद खड़ी करने की जरूरत है. इस सिलसिले में यह भी सोचा जाना चाहिए कि हमारे पड़ोसी देश किन कारणों से चीन के नजदीक होने लगे हैं. जैसा कि राजदूत ने रेखांकितकिया है और सरकार भी कहती रही है, चीन के साथ संबंध अच्छे करने की संभावनाएं हैं और बढ़ते वाणिज्य-व्यापार के साथ राजनीतिक संबंध भी सुधारे जा सकते हैं.


देशबन्धु

क्या अपने ही ठगेंगे हमको

फेसबुक पर डेटा चोरी का इल्जाम लगने से दुनिया में साइबर सुरक्षा पर नया विवाद खड़ा हो गया। आरोप है कि फेसबुक ने अपने उपभोक्ताओं की निजी जानकारियां कैम्ब्रिज एनालिटिका को दे दीं, जिसने चुनावों मेंं उसका गलत इस्तेमाल किया। दरअसल संचार तकनीकी की इस सदी में लोकतंत्र भी केवल लोक तक सीमित नहीं रह गया है, बल्कि सोशल मीडिया इसे अपनी उंगलियों पर नचा रहा है। अब वोटर केवल जाति, धर्म, वादों के आधार पर वोट नहीं देते, बल्कि उन्हें मनोवैज्ञानिक तौर पर प्रभावित कर उनके वोट हासिल किए जाते हैं। कैंब्रिज एनालिटिका पर भी यह आरोप है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उसने लोगों की राजनीतिक सोच और मानसिकता को प्रभावित किया, जिसे हम जोड़-तोड़ या जबरदस्ती कह सकते हैं। लोकतंत्र के साथ ऐसा खिलवाड़ करने में फेसबुक ने उसकी मदद की। यह विवाद पश्चिमी देशों का होता, तो हम भारत की महान परंपराओं, ऐतिहासिक गौरव आदि का वास्ता देकर उन्हें उपदेश दे सकते थे। लेकिन डेटा चोरी का यह मामला भारत तक फैला है।

2017 के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 24 करोड़ से ज्यादा लोग फेसबुक इस्तेमाल करते हैं। जब 2018 के आंकड़े आएंगे, तो यह संख्या शायद डेढ़-दो गुना बढ़ जाएगी, क्योंकि निजी कंपनियों में सस्ती दरों पर इंटरनेट सुविधा देने की होड़ लगी है। सोशल मीडिया प्लेटफार्म देने वाली कंपनियों के लिए भारत सबसे बड़ा डेटा बाजार है। और कड़वी सच्चाई यह है कि यहां का उपभोक्ता पश्चिमी देशों के नागरिकों की तरह साइबर सुरक्षा को लेकर जागरूक भी नहीं है। अधिकतर लोग केवल अपना एकाउंट बनाकर ही खुश हो जाते हैं, बिना इस बात की परवाह किए कि इस एकाउंट के जरिए उनकी निजता को हैक करने का खतरा भी हो सकता है।

भारत में विज्ञान, गणित और तकनीकी शिक्षा का जो हाल है, उसके कारण इनके प्रति एक अनजाना सा भय भी व्याप्त है। जिस तरह हम फर्राटे से अंग्रेजी बोलने वाले या किसी गोरी चमड़ी वाले के आगे मनोवैज्ञानिक रूप से पस्त महसूस करने लगते हैं, कुछ इसी तरह तकनीकी के आगे भी थोड़े डरे-सहमे रहते हैं। यही कारण है कि सोशल मीडिया साइट पर जो जानकारी हमसे मांगी जाती है, हम दे देते हैं और उसके साथ जुड़े नियमों व शर्तों को पढ़ना भी जरूरी नहीं समझते। हमारे इस आधे-अधूरे ज्ञान का फायदा विदेशी कंपनियां उठाती रही हैं और शायद देश के राजनेता भी। कैबिं्रज एनालिटिका विवाद सामने आया तो भाजपा ने कांग्रेस पर सबसे पहले आरोप लगाया कि वह 2019 के चुनाव के लिए इसके संपर्क में थी।

कांग्रेस ने भी आरोप लगाया है कि भाजपा ने इस कंपनी की मदद बिहार चुनाव में ली थी। वैसे कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने तो बाकायदा घोषणा भी कर दी कि फेसबुक और उसके सीईओ मार्क जकरबर्ग साफ साफ जान लें, भारत में अगर डेटा चोरी की शिकायतें मिलीं या फिर भारत की चुनाव प्रक्रिया में दखल देने की बात सामने आई तो किसी को बख्शा नहीं जाएगा। अच्छी बात है कि भाजपा चुनावी प्रक्रिया में किसी का दखल नहीं चाहती। पर कानून मंत्री यह क्यों भूल गए कि नरेन्द्र मोदी बतौर प्रधानमंत्री 2015 की अमेरिका यात्रा के दौरान फेसबुक के आफिस पहुंचे थे और वहां जी भर कर मन की बात की थी, सोशल मीडिया का गुणगान किया था।

भाजपा की दिन दूनी, रात चौगुनी लोकप्रियता के जो दावे किए जा रहे हैं, उसमें सोशल मीडिया का बड़ा योगदान है। नरेन्द्र मोदी तो लोकतंत्र के इस आधुनिक हथियार का महत्व खूब जानते हैं, इसलिए उन्होंने नमो ऐप भी बनवाया, जिसमें दावा किया गया कि जनता इस ऐप के जरिए उनसे सीधे जुड़ सकती है। पर अब यह आरोप भी लग रहे हैं कि इस ऐप को डाउनलोड करने से आपकी निजी जानकारियां भी इसमें चली जाती हैं और आगे इनका गलत इस्तेमाल हो सकता है। ईलिऑइट एल्डर्सन नाम के एक ट्विटर अकाउंट से दावा किया गया कि नमो ऐप डाउनलोड करने पर आपका निजी डेटा बिना आपकी सहमति के किसी अमेरिका स्थिति क्लैवक ट्रैप नाम की कंपनी के पास चला जाता है। कंपनी की वेबसाइट पर बुक माय शो, स्टार टीवी, जोमैटो जैसे ब्रैंड का जिक्र है कि ये सोशल मार्केेटिंग के लिए क्लैवक ट्रैप की सेवाएं लेते हैं।

इस नए खुलासे के बाद अब कांग्रेस और भाजपा के बीच नए तरह का सोशल मीडिया युद्ध छिड़ गया है। कांग्रेस डिलीटनमोऐप कैैंपेन चला रही है, तो भाजपा इसे बेबुनियाद बता रही है, साथ ही कुछ सोशल वेबसाइट्स के जरिए यह भी प्रचारित करवा रही है कि कांग्रेस के इस अभियान के कारण नमो ऐप को और भी लोग डाउनलोड कर रहे हैं और प्रधानमंत्री पर लोगों का भरोसा बढ़ रहा है। कुल मिलाकर कांग्रेस और भाजपा के एक-दूसरे पर आरोपों के बीच फेसबुक, कैैंब्रिज एनालिटिका और नमो ऐप सब पर लगे आरोप कहीं गुम होते दिख रहे हैं और लग रहा है कि लोग फिर आभासी दुनिया से छले जाएंगे। पर हमें याद रखना चाहिए कि इस आभासी दुनिया में खतरे तो वास्तविक ही हैं और डेटा चोरी की घटनाएं भी। हाल ही में आधार के इस्तेमाल के कारण 5 सौ रुपए में आपकी निजी जानकारियां दूसरों तक पहुंचने का आरोप सामने आया था। फेसबुक और कैबिं्रज एनालिटिका तो विदेशी कंपनिया हैं, लेकिन आधार तो सरकार की योजना है और नमो ऐप भाजपा की, तो क्या अब भारत की जनता परायों के साथ-साथ अपनों से भी ठगी जाएगी।


The Hindu

Unity In Defeat

Elections to the Rajya Sabha would have been dull, predictable affairs if not for stories of intrigue and betrayal. In this round of biennial elections to the upper house of parliament, the element of drama was provided by the 10th seat from Uttar Pradesh, eventually won by the Bharatiya Janata Party over the Bahujan Samaj Party through a combination of cross-voting and last-minute switch of loyalties. BSP legislator Anil Kumar Singh was open about his rebellion, and his support for the BJP candidate. Independent member Raghuraj Pratap Singh, who is close to the SP, helped the BJP’s cause too. The battle for the 10th seat, which the BJP could not have won on its own, supposedly held long-term implications for the political churn that U.P. is now witnessing. The BJP saw it as a test of the new bonding between the SP and the BSP, which won for the SP two Lok Sabha by-elections recently. Chief Minister Yogi Adityanath sought to paint the result less as a satisfying win for his party and more as a disturbing result for the BSP, saying the SP took votes from others but did not return them. More than getting an additional seat, the BJP was hoping that the outcome would sow the seeds of distrust between the SP and the BSP. Although clearly unhappy with the defeat, BSP leader Mayawati was unwilling to let it jeopardise the nascent understanding with the SP, and said the loss would not affect her party’s growing proximity to the SP. Indeed, she saw it as a consequence of what she claimed was the BJP’s strategy to drive a wedge between the two parties. Instead of driving them apart, the result seems to have brought the SP and the BSP closer.

Despite its success in the polls in U.P., the BJP is no closer to undermining the opposition in the Rajya Sabha. The Telugu Desam Party has quickly made the transition from a disenchanted ally to a fierce opponent. The Telangana Rashtra Samiti, even while trying to maintain good equations between its government and the Centre, is working towards a federal front opposed to both the Congress and the BJP. The 29 seats (out of 58) that the BJP won in this round will not alter the balance in the Rajya Sabha, at least not immediately. If in U.P. the election brought two opposition parties closer, in West Bengal it created more differences between the Left and the Congress. The Trinamool Congress’s support may have been for Abhishek Manu Singhvi as an individual, and not for his party, the Congress, but the net effect was that the Left was unhappy with the Congress and its candidate. The elections to the Rajya Sabha are not a reflection of the strengths of the parties on the ground, but they can alter political equations and have a bearing on direct elections in the near future.


 The Indian EXPRESS

Law Must Prevail

The move by the Uttar Pradesh government to withdraw 131 cases related to the Muzaffarnagar-Shamli riots of 2013 amounts to a subversion of the criminal justice system in the country. The list of accused in these cases includes senior BJP leaders including party legislators, who claim that the charges against them are politically motivated. These leaders have been pressing the state government to withdraw the cases — 12 of them related to murder — where the accused are Hindus. State law minister Brijesh Pathak’s recent remark that the “politically motivated” cases will be withdrawn indicates that the UP government is ready to oblige them.

The fact is over 60 people were killed in these riots and large-scale destruction of property was reported. Most of the cases are at various stages of trial and the victims are expecting that the culprits will be punished. The UP government’s decision to intervene midway in the process forecloses the possibility of a closure in these cases. This newspaper has reported how many victims already feel short-changed by the tardy investigation and prosecution. In two of the murder cases, a trial court had acquitted all the accused after the prosecution failed to establish their role in the crime. As one of the victims, whose parents had been killed, asked this newspaper, “Did nobody kill them?” Police investigation in many of these cases, no doubt, has been shoddy: FIRs were filed in a hasty manner, with entire villages booked for murder and arson in some cases. Complainants point to discrepancies in the FIRs and accuse the police of changing the names of rioters they had identified. The government ought to address their complaints and rectify errors in the investigation. It is the government’s responsibility to ensure that due process is upheld and justice is delivered as quickly as possible. Any attempt to close cases without proper investigation and other procedures will send out the message that the government is hostage to partisan interests. It will also destroy the people’s faith in the criminal justice system and erode their faith in the state’s ability to function as a custodian of constitutional values.


The New Indian Express 

Naidu Shah Spat Does Nothing For Andhra  

When it came to power, the BJP-led NDA government had raised hopes of a new era in Centre-state relations with its avowed guiding principle of cooperative federalism and it seemed for a time that the increased tax devolution to the states would indeed usher in the long-awaited achhe din for Team India comprising the prime minister and the chief ministers. Sadly, four years on, that spirit of cooperation lies in a shambles, ironically, with the exit of the TDP from the NDA, and the ongoing public spat between the two former friends.

The nine-page letter from BJP President Amit Shah to Andhra Pradesh CM and TDP chief N Chandrababu Naidu detailing the quantum of central assistance extended to the cash-strapped state after the creation of Telangana hasn’t helped one bit. By imputing political motives and insinuating diversion of funds, he has handed Naidu one more chance to claim yet another affront to the self-respect of Telugus.

Had he been more polite than political, Shah could have made a forceful argument on how the Centre has helped the state and left some room for an “informed debate” as he suggested. In his riposte, Naidu contradicted the “facts” put out by Shah and the one inescapable conclusion from their “debate” is that one of them is surely lying.

Coming as this does in the charged political atmosphere in the state, it has compounded the prevailing confusion. With opposition parties whipping up public sentiments over the denial of special category status—promised by the BJP at the time of division of the state—the least the Centre and state could do is tone down the rhetoric, and come up with evidence to buttress their arguments. After all, the people are entitled to know the truth.

Having promised special status, the BJP has been citing the 14th Finance Commission report for its U-turn long after the panel chairman himself denied having made any such recommendation. Shah, otherwise eloquent throughout his letter, was tellingly silent on this one question. Why, Mr Shah? Why?


The Times Of India

Allies Matter

The Rajya Sabha (RS) elections in which 59 retiring members, nearly one-fourth of the house, were replaced saw BJP pull away from the rest of the field. Before the elections BJP was at 58 and Congress held 54 seats. Having won 28 and 10 seats respectively, BJP tally has risen to 69 while Congress is down to 50. The position of India’s two leading coalitions in RS roughly mirrors their respective strengths in India’s federal apparatus. More than 1,450 MLAs are from BJP but around 2,650 MLAs are from non-BJP parties.

BJP-led NDA is projected to reach a simple majority in RS in 2020, if parties retain their current strengths in the forthcoming assembly elections. Even before that, growing numbers in the Upper House give the Modi government increased ability to get key bills passed, by negotiating issue-based support from non-NDA and non-UPA parties. But growing ally troubles are also chipping away at this progress. Shiromani Akali Dal has been criticising BJP’s supposed failure to follow coalition dharma, Shiv Sena has said it will contest future elections alone, and TDP has exited NDA acrimoniously.

Regional parties are no pushovers and national parties like BJP and Congress have no option but to work with them. Non-BJP/ Congress parties won 21 of 59 seats in Friday’s RS polls. However, BJP president Amit Shah appears to favour a high-risk maximalist brand of politics. Note how BJP returned the favour for Mayawati’s tacit support to SP in Gorakhpur and Phulpur, fielding an additional candidate who knocked out BSP’s Bhimrao Ambedkar despite SP-Congress support. Mayawati will likely now pitch the defeat of Dalit icon’s namesake as a BJP conspiracy, and be even more motivated to build a strong anti-BJP alliance with SP.

Meanwhile, parliamentary strategy is becoming less about seat counts than posturing. Congress has joined TDP and YSRCP in moving no-confidence motions despite clearly lacking the numbers in Lok Sabha. Even with numerically few MPs, TDP, YSRCP, AIADMK and TRS have succeeded in stalling Parliament. In this scenario BJP should seize the moral high ground, by enabling the no-confidence motions to proceed. More importantly, BJP has to mollify allies at some point. It may be a bitter pill to swallow but while replacing Congress as India’s pre-eminent party, RS polls also indicate that BJP has made little progress in displacing regional parties, except in UP.


The Telegraph

Travel Woes

I s the dream of the fabled achchhe din finally real? The World Travel and Tourism Council would want the people to believe it is. In a recent report, the council has announced that India is all prepared to establish itself as the third largest travel and tourism economy — it currently ranks seventh — by 2028 in terms of direct and total gross domestic product. The 10 million jobs that are expected to be created in this sector would double revenue within a decade. Adequate employment generation has been a persistent problem for the Narendra Modi- led government which had, incidentally, come to power with the promise of creating one crore jobs. With nearly 31 million people still out of work, this move by the tourism industry is opportune. A buoyant tourism sector can also help ensure that people do not miss out on the famed Indian hospitality especially at a time when the United States of America has advised extra caution to those planning to visit it. But surprisingly, for a country with as much historical and geographical diversity as India, footfall of tourists from overseas is comparatively low. The reasons are clear. Airports in the country are already choked, with many estimated to reach their maximum capacity by 2022. Poor rail and road connectivity means that several places that could have attracted tourists lie unexplored. Additionally, it does not augur well for the country — or for the ruling dispensation — that swachhta often eludes popular tourist spots. In fact, the image of an India steeped in filth and poverty has become so commonplace that it has given rise to a new form of tourism: poverty tourism, whereby foreigners are taken on tours of slums.

However, the most important question is that of safety. In 2016, 382 cases of crimes against nonnatives were reported, with as many as 12 murdered and 19 allegedly raped. This, apart from the regular ogling, teasing and duping. A lot of it has to do with the understanding of the foreigner as the’ other’, distant from the’ self’. Also, there is a perception of the solitary female traveller as’ easy’ even though, today, there is a noticeable number of lone women tourists, both domestic and international. Specially appointed tourist police have been introduced in some cities but the system is mired in problems such as weak presence and communication barriers. Now, with demands expected to soar upwards within a decade, such infrastructural and security lapses need to be rectified as soon as possible.