आज के हिंदी/अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय: 24 अप्रैल, 2018

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नवभारत टाइम्स

फांसी से क्या होगा ?

बलात्कार पर रोक लगाने के लिए सरकार ने सजा और सख्त करने का जो रास्ता चुना है, उससे समाज के एक तबके को भले ही संतोष हुआ हो पर इससे समस्या के समाधान की कोई उम्मीद नहीं बनती। उलटे इसने कई नई आशंकाओं को जन्म दिया है, जिन्हें भांपकर कई सामाजिक संगठनों ने सरकार के फैसले का विरोध भी किया है। सरकार ने आपराधिक कानून (संशोधन) अध्यादेश 2018 के जरिए 12 साल से कम उम्र की बच्चियों से बलात्कार के दोषियों के लिए मौत की सजा का प्रावधान किया है। ऐसे मामलों से निपटने के लिए नई त्वरित अदालतें गठित की जाएंगी और सभी पुलिस थानों और अस्पतालों को बलात्कार के मामलों की जांच के लिए विशेष फॉरेंसिक किट उपलब्ध कराई जाएंगी। 16 साल से कम उम्र की लड़कियों के बलात्कार मामले में न्यूनतम सजा 10 साल से बढ़ाकर 20 साल की गई है और अपराध की प्रवृत्ति के आधार पर इसे बढ़ाकर जीवनपर्यंत कारावास भी किया जा सकता है। कठुआ में एक बच्ची के साथ रेप और उसकी हत्या के बाद देश भर में फैले आक्रोश को शांत करने के लिए सरकार यह अध्यादेश लाई है। लेकिन विडंबना यह है कि आज भी बलात्कार की समस्या पर गंभीरता से विचार नहीं किया जा रहा। सत्तारूढ़ राजनेताओं और कई बुद्धिजीवियों को भी लगता है कि कानून सख्त बना देने से संकट खत्म हो जाएगा। जबकि सचाई इसके विपरीत है। निर्भया कांड के बाद सरकार ने बलात्कार संबंधी कानूनी प्रावधानों को बेहद कठोर कर दिया, लेकिन रेप और महिलाओं के प्रति किए जाने वाले अन्य अपराध कम होने के बजाय बढ़ते ही जा रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2015 में बलात्कार के कुल 10,854 मामले दर्ज हुए जबकि 2016 में यह आंकड़ा 19,765 हो गया। असल समस्या है थाने से ही मामला बिगाड़ दिया जाना और अदालत में मुकदमा खड़ा ही न हो पाना। शहरों में तो रेप की शिकायत दर्ज भी हो जाती है, कस्बों और गांवों में तो उलटे शिकायत दर्ज कराने वाले ही गंभीर मुश्किलों में पड़ जाते हैं। जैसे-तैसे मामला अदालत तक पहुंच जाए तो वहां किस्मत वाले ही दोषियों को सजा दिलाने में कामयाब हो पाते हैं। बलात्कार के मामलों में सजा दिए जाने की दर अभी करीब 24 फीसदी है जबकि बच्चियों के मामले में तो यह मात्र 20 फीसदी है। अपराधियों में खौफ न पैदा होने का यही मुख्य कारण है। अगर मौजूदा कानूनों के तहत ही हर अभियुक्त को सजा मिलती तो हालात इतने ज्यादा नहीं बिगड़ते। अब फांसी के प्रावधान के बाद यह आशंका बढ़ गई है कि मामले दर्ज ही न कराए जाएं, क्योंकि रेप के 95 फीसदी मामलों में परिवार के सदस्य ही दोषी होते हैं। पीड़िताओं की हत्या के मामले भी इससे बढ़ सकते हैं। बहरहाल, अभी तो सरकारें किसी तरह सजा की दर बढ़ाकर दिखाएं।


जनसत्ता

महंगाई का ईंधन

पिछले दिनों थोक महंगाई के आंकड़े तनिक राहत की रंगत लेकर आए। थोक महंगाई की दर फरवरी में 2.48 फीसद थी, जो कि तनिक घट कर मार्च में 2.47 फीसद रह गई। लेकिन इस मामूली-सी राहत पर पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों ने सवालिया निशान लगा दिया है। पेट्रोल की कीमत चौहत्तर रुपए से ज्यादा हो गई है और इसी के साथ यह चार साल के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गई है। डीजल की कीमत भी पैंसठ रुपए से अधिक होकर रिकार्ड स्तर पर आ गई है। पिछले दस महीनों में पेट्रोल नौ रुपए से ज्यादा और डीजल लगभग बारह रुपए महंगा हो चुका है। इस स्थिति ने जहां उपभोक्ताओं के लिए परेशानी खड़ी कर दी है, वहीं सरकार के माथे पर भी चिंता की लकीरें दिख रही हैं। आगामी विधानसभा चुनावों और अगले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि के राजनीतिक फलितार्थ को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भारत अपनी जरूरत या खपत का करीब अस्सी फीसद तेल आयात करता है। इसलिए अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत बढ़ती है तो इसका भारत की घरेलू अर्थव्यवस्था पर गहरा असर पड़ता है।

यह असर दो तरह से होता है। एक तो यह कि आयात का खर्च काफी बढ़ जाता है और इसके फलस्वरूप देश के व्यापार घाटे में इजाफा होता है। दूसरे, पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ने से परिवहन तथा ढुलाई का खर्च बढ़ जाता है और इसका नतीजा बहुत सारी चीजों की मूल्यवृद्धि के रूप में आता है। इसलिए हाल में महंगाई की दर में जो राहत दिखी है वह काफूर हो सकती है। तेल की कीमतों में बढ़ोतरी के रुझान के पीछे वजह यह है कि तेल उत्पादक देशों के संगठन यानी ओपेक ने उत्पादन में कटौती की रणनीति अख्तियार की है। माना जाता है कि इसमें रूस की भी दिलचस्पी है। इसी के मद्देनजर हाल में दिल्ली में हुए अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा मंच के सम्मेलन को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कृत्रिम तरीके से तेल की कीमतें बढ़ाए जाने के प्रति आगाह किया। लेकिन इससे शायद ही कोई फर्क पड़े, क्योंकि ऐसी चीजें दुनियादारी और कारोबारी स्वार्थों से तय होती हैं। फिर, भारत के पास चारा क्या बचता है?

गौरतलब है कि दक्षिण एशियाई देशों में भारत में पेट्रोल-डीजल की कीमतें सर्वाधिक हैं। इसलिए कि देश में पेट्रोल-डीजल की विपणन दरों में आधी हिस्सेदारी करों की है। इन करों में कटौती क्यों नहीं की जा सकती? जब पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को नियंत्रण-मुक्त किया गया, तो यह तर्क दिया गया कि अंतत: इससे उपभोक्ताओं को लाभ ही होगा; अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत गिरेगी, तो पेट्रोल-डीजल का खुदरा मूल्य उन्हें कम चुकाना होगा। लेकिन हाल के कुछ महीनों को छोड़ दें, तो पिछले साढ़े तीन साल में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत नीचे थी। पर उसका लाभ उपभोक्ताओं को नहीं मिल पाया, क्योंकि कर बढ़ा दिए गए। नवंबर 2014 से जनवरी 2016 के बीच उत्पाद शुल्क में नौ बार बढ़ोतरी की गई। उत्पाद शुल्क में महज एक बार पिछले साल अक्तूबर में दो रुपए प्रति लीटर की कटौती की गई थी। एक बार फिर करों में कटौती की मांग हो रही है। लेकिन तेल पर निर्भरता घटाने और ऊर्जा के दूसरे संसाधनों के विकास पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।


हिंदुस्तान

प्रस्ताव ख़ारिज

यह तो होना ही था। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ कांग्रेस के महाभियोग प्रस्ताव की यात्रा ज्यादा लंबी नहीं होगी, यह तो शुरू से ही माना जा रहा था। देखने वाली बात यही थी कि किस स्तर पर इसका खेल खत्म होगा? अगर उप-राष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू इसे खारिज न भी करते, तब भी इसके बहुत आगे जाने की उम्मीद न थी। उसके बाद यह हो सकता था कि तीन जजों की इस पर निर्णय के लिए बनाई गई समिति में यह गिर जाता। मान लीजिए, यह वहां से भी आगे बढ़ जाता, तो सदन में मतदान के समय इसका गिरना तय ही था। कई विपक्षी दल इसके समर्थन में नहीं थे। खुद कांग्रेस के कई नेताओं की भी इसे लेकर असहमतियां थीं। राज्यसभा में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता मनमोहन सिंह ने ही इस प्रस्ताव पर दस्तखत नहीं किए थे। यही हाल कांग्रेस के बडे़ नेता पी चिदंबरम का भी था। और तो और, सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की विरोधी लॉबी माने जाने वाले जजों ने भले ही उनके खिलाफ मोर्चा लिया हो, लेकिन वे भी महाभियोग चलाए जाने के पक्ष में कतई नहीं हैं। और शायद कांग्रेस को भी महाभियोग प्रस्ताव के बहुत आगे जाने का भरोसा नहीं था, इसीलिए उसने मीडिया के आगे प्रस्ताव का ब्योरा रख दिया था। कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है और संसदीय राजनीति का जितना अनुभव उसके पास है, किसी और के पास नहीं है। उसे अच्छी तरह पता होगा कि इस तरह के प्रस्ताव का ब्योरा सार्वजनिक नहीं किया जाता। संभव है कि उसकी दिलचस्पी महाभियोग चलाने से ज्यादा दीपक मिश्रा से जुडे़ मुद्दों पर देश का ध्यान खींचने में हो। उप-राष्ट्रपति ने महाभियोग प्रस्ताव को खारिज करने के विस्तृत कारण गिनाए हैं, जो यही कहते हैं कि आरोपों में कोई दम नहीं है। कांग्रेस अब उनके फैसले को अदालत में चुनौती देगी। अदालत की जो लड़ाई वह राजनीतिक स्तर पर लड़ना चाहती थी, उसे अब अदालत में जाकर लड़ना होगा।

यह कोई नहीं मानेगा कि कांग्रेस का असल निशाना न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा ही हैं। उनके हटने से न तो कांग्रेस को कुछ मिलने वाला था और न ही उसका कोई भला होने वाला था। प्रधान न्यायाधीश के बहाने वह प्रधानमंत्री पर निशाना साधना चाहती थी, यह शुरू से ही काफी स्पष्ट था। मान लीजिए, कांग्रेस इसमें सफल हो भी जाती, तो इसका राजनीतिक नफा-नुकसान कितनी दूर तक जा पाता, इसका ठीक-ठीक आकलन संभव नहीं है। पर यह तय है कि महाभियोग राजनीति, न्यायपालिका और लोकतंत्र किसी के लिए भी अच्छा नहीं होता।

हमारी सभी लोकतांत्रिक संस्थाएं अपनी साख खोती जा रही हैं। महाभियोग इस प्रक्रिया को तेज ही कर सकता था। इस प्रक्रिया को रोकना है, तो सभी को अपने गिरेबान में झांकना होगा। राजनीतिक दलों से भले ही बहुत उम्मीद न हो, लेकिन प्रधान न्यायाधीश को यह जरूर सोचना चाहिए कि उनके सहयोगी उनसे नाराज क्यों हैं? और देश के सर्वोच्च न्यायालय में वह सब क्यों हो रहा है, जिसके चलते न्यायपालिका को राजनीति में खींचने के अवसर बन रहे हैं? उप-राष्ट्रपति ने अच्छा किया कि प्रस्ताव खारिज करने के पूरे कारण विस्तार से बताए। कारण जितने भी तार्किक हों, ये सवाल तो उठने ही लगे हैं कि प्रस्ताव को खारिज की ऐसी भी क्या जल्दी थी? यह बात अलग है कि उन्होंने महाभियोग प्रस्ताव को वहां पहुंचा दिया, जहां अंतत: उसे पहुंचना ही था।


दैनिक भास्कर

इंसानियत की भावना बचाएं जिस पर संविधान खड़ा है

कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी ने संविधान बचाओ अभियान की शुरुआत करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा पर करारा हमला बोला है। भले ही कांग्रेस समेत सात विपक्षी दलों की तरफ से प्रस्तुत सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग का प्रस्ताव खारिज हो गया हो लेकिन, उनके इस अभियान में लोकतांत्रिक संस्थाओं के क्षरण का मुद्‌दा स्पष्ट तौर पर शामिल है। लोकतंत्र में सत्ता और विपक्ष के बीच खींचतान चलती रहती है। इसके समन्वय से नीतियों और कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार होती है। वे दोनों राष्ट्रनिर्माण रथ के दो पहिए हैं, जो एक-दूसरे को संतुलित करते हैं न कि नष्ट। इसके लिए जरूरी है कि देश को चलाने वाले राजनीतिक दलों की संवैधानिक मूल्यों में आस्था हो। वह मूल्य बहुमत की मनमानी से संचालित नहीं होते बल्कि लोकतांत्रिक संस्थाओं की जीवंतता और अल्पमत व असहमति के आदर से निर्मित होते हैं। दुर्भाग्य है कि स्वाधीनता संग्राम के त्याग-बलिदान से निकले हमारे संवैधानिक मूल्यों को स्वार्थ और पाखंड के सहारे तिलांजलि देकर राजनीतिक दल सत्ता पर किसी तरह कब्जा करने में लगे हुए हैं। आजादी के आरंभिक वर्षों में संविधान निर्माताओं को देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं के निर्माण और उन्हें मजबूत करने की चिंता रहती थी। बाद में उसे धीरे-धीरे उसे कमजोर करने और कार्यपालिका को सशक्त करने की कोशिश तेज हो गई। आपातकाल उसके सबसे भयानक नतीजे के रूप में सामने आया। आज फिर कार्यपालिका को सर्वशक्तिमान बनाने का अभियान चल निकला है। सुप्रीम कोर्ट का मौजूदा विवाद उसी कोशिश का नतीजा है। इस दौरान सीएजी, सीवीसी, पिछड़ा वर्ग आयोग, अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग, महिला आयोग, अल्पसंख्यक आयोग, मानवाधिकार आयोग, प्रेस परिषद जैसी तमाम संस्थाओं की कमजोरियां प्रकट हो रही हैं। इसलिए अगर भाजपा नीत एनडीए सरकार यह अलोकतांत्रिक कार्य जानबूझकर कर रही है तो उसके बारे में जनता को जाग्रत करना विपक्ष का दायित्व है। उधर कांग्रेस संविधान को सिर्फ डॉ. आंबेडकर और दलितों से जोड़कर देख रही है, जो एक प्रकार की संकीर्णता है। ऐसे में राजनीतिक दलों से यही कहा जा सकता है कि संविधान बचाइए लेकिन, उससे पहले इंसानियत की उस भावना को बचाइए जिस पर संविधान खड़ा है।


दैनिक जागरण

ठंडे बस्ते में महाभियोग

राज्यसभा सभापति वेंकैया नायडू ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र के खिलाफ लाए गए महाभियोग प्रस्ताव को खारिज करके एक तरह से वही किया जो शुद्ध संकीर्ण राजनीतिक मकसद से हड़बड़ी में आगे बढ़ाई गई इस अधकचरी पहल का होना था। इस महाभियोग प्रस्ताव के संसद के दोनों सदनों से पारित होने के कहीं कोई आसार नहीं थे। यह सिर्फ एक राजनीतिक माहौल बनाने के लिए लाया गया था और शायद इसी कारण कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने यकायक संविधान बचाओ अभियान का भी श्रीगणोश कर दिया। यह महज एक दुर्योग नहीं हो सकता कि इस दौरान उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों के उस सार्वजनिक बयान का भी जिक्र किया जो महाभियोग प्रस्ताव में एक आरोप की शक्ल में दर्ज है। पता नहीं राहुल गांधी के सलाहकार कौन हैं और वे उन्हें क्या सलाह देते हैं, लेकिन इसमें दोराय नहीं कि उनके नेतृत्व में कांग्रेस सामंती मानसिकता का खुला परिचय दे रही है। बिना किसी पुष्ट आरोप के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को निशाने पर लेना न केवल कांग्रेस की सामंती मानसिकता का परिचायक है, बल्कि इसका भी कि उसे लोकतांत्रिक एवं संवैधानिक संस्थाओं की मान-मर्यादा की कहीं कोई परवाह नहीं रह गई है। संस्थाओं को नष्ट-भ्रष्ट करना कांग्रेस की पुरानी आदत रही है। जब-जब कोई संस्था उसके राजनीतिक हितों की पूर्ति में सहायक नहीं बनी तब-तब वह उसे या तो शक्तिहीन करने में जुट जाती रही या फिर बदनाम करने में। आपातकाल के काले दौर को अलग कर दें तो भी यह किसी से छिपा नहीं कि हाल में कांग्रेस ने किस तरह कैग, रिजर्व बैंक और निर्वाचन आयोग पर हमला बोलने में कोई संकोच नहीं किया। अगर उसने गलतियों से कुछ भी सीखा होता या फिर अपनी सामंती शैली का परित्याग किया होता तो वह मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाकर अपनी फजीहत नहीं कराती। 1महाभियोग प्रस्ताव खारिज करने के राज्यसभा सभापति के फैसले पर कांग्रेसी नेताओं ने यह कहने में देर नहीं लगाई कि यह हड़बड़ी में लिया गया फैसला है। शायद यह कहने के पहले इन नेताओं ने दस पन्नों के उस फैसले को पढ़ने की जहमत भी नहीं उठाई जिसमें महाभियोग प्रस्ताव खारिज करने के 22 कारण गिनाए गए हैं। इस प्रस्ताव को खारिज करने के साथ ही सभापति ने विपक्षी दलों को नसीहत और हिदायत भी दी है। इस फैसले के बाद इसके आसार बढ़ गए हैं कि भविष्य में कांग्रेस सरीखे दल अपुष्ट एवं आधे-अधूरे आरोपों के आधार पर उच्चतर न्यायपालिका के किसी न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने के पहले दस बार सोचेंगे। नि:संदेह राजनीतिक दलों को इसकी अनुमति नहीं दी जानी चाहिए कि वे क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थो को पूरा करने के इरादे से महाभियोग प्रस्ताव ले आएं। यह फालतू की जनहित याचिका दायर करने जैसा आसान काम नहीं बनना चाहिए। राज्यसभा सभापति का फैसला एक नजीर बने तो बेहतर। जो भी हो, इसकी संभावना नहीं दिखती कि चौतरफा आलोचना के बाद कांग्रेस को अपनी भूल का अहसास होगा। वह सभापति के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की तैयारी कर रही है, लेकिन उसके दुर्भाग्य से वहां उसका सामना मुख्य न्यायाधीश से ही होगा।


देशबन्धु

संविधान बचाओ अभियान

अनुमानों के अनुकूल राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू ने मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव के नोटिस को खारिज कर दिया है।  कांग्रेस समेत सात विपक्षी दलों के इस प्रस्ताव को उपराष्ट्रपति नायडू ने तकनीकी आधार और इसके लिए दिए जाने वाले तर्कों में मजबूत आधार नहीं होने के कारण खारिज किया है। भाजपा ने इस फैसले पर खुशी प्रकट की है और एक बार फिर कांग्रेस पर राजनीति करने का आरोप लगाया है। जाहिर है कांग्रेस भी अपने कदम पीछे नहीं लेगी। उसे भी अंदेशा होगा कि महाभियोग प्रस्ताव की बात खारिज हो सकती है, इसलिए उसने दूसरी योजनाएं तैयार रखी होंगी। अब ये योजनाएं क्या होंगी, इसका खुलासा आने वाले समय में हो सकता है।

फिलहाल कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी संविधान बचाओ नाम के अभियान को छेड़ चुके हैं। कांग्रेस पार्टी की योजना के मुताबिक यह अभियान अगले एक साल तक पूरे देश में चलाया जाएगा। इसके जरिए कांग्रेस दलितों और समाज के पिछड़े तबके तक अपनी पैठ बनाने की कोशिश करेगी। साथ ही जनता को यह संदेश देगी कि भाजपा के राज में संवैधानिक मूल्यों, परंपराओं को खत्म किया जा रहा है और दलितों-आदिवाासियों-पिछड़ों के साथ अन्याय हो रहा है। एक साल में ही आम चुनाव की दस्तक भी पड़ जाएगी।

जाहिर है अगले कुछ महीनों में भारी राजनीतिक उथल-पुथल देखने मिल सकती है। कांग्रेस विरोधी इस अभियान को लेकर अभी से हमलावर हैं। सवाल उठाए जाने लगे हैं कि आखिर खुद कांग्रेस ने अपनी सरकार के दौरान संविधान में कितनी आस्था दिखाई है। इसमें मुख्यरूप से आपातकाल का जिक्र है, साथ ही कांग्रेस द्वारा धारा 356 का दुरुपयोग कर कई बार, कई राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने का सवाल भी उठाया जा रहा है। इन आरोपों में कोई गलत बात नहीं है। कांग्रेस ने अपने सुदीर्घ शासन में कई गलतियां की हैं और उनका खामियाजा भी सत्ता गंवाकर उसने भुगता है। लेकिन अतीत के गलतियों के कारण किसी को भविष्य सुधारने से क्यों रोका जाए? अगर कांग्रेस संविधान बचाने की बात कर रही है, तो इसमें उसका राजनीतिक हानि-लाभ अपनी जगह होगा, लेकिन देश में शायद इससे बेहतर परिदृश्य ही बनेगा।

आज जिस तरह का माहौल हम देख रहे हैं, वह न केवल निराशाजनक है, बल्कि संविधान की मूल भावना के अनुरूप भी नहीं है। बीते चार सालों में अल्पसंख्यकों पर शाब्दिक, शारीरिक और मानसिक प्रहार कितनी बार हुए हैं, इसकी कोई गिनती नहीं है। अभी फिर एक नया मामला सामने आया है, जिसमें एक टैक्सी बुकिंग को इसलिए रद्द कर दिया गया, क्योंकि उसका चालक मुस्लिम था। बुकिंग रद्द करने वाले ने बड़ी शान से इस बात को ट्वीट किया मैं अपना पैसा जिहादी को नहीं देना चाहता। ऐसी नफरत क्या संविधान की रक्षा कर सकती है। कठुआ बलात्कार कांड, या अखलाक की हत्या, इस नफरत का ही तो विस्तार है। दुखद यह है कि अगर कोई इन घटनाओं की खुलकर निंदा करे तो फौरन धर्मनिरपेक्षता पर सवाल खड़े किए जाते हैं। याद रखना चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता हमारे संविधान का अहम हिस्सा है और इस पर सवाल खड़े करने का मतलब संविधान की भावना की उपेक्षा करना है।

दलितों, आदिवासियों के साथ जो अन्याय बदस्तूर जारी है, उसका भी एकबड़ा कारण संविधान की बातों को न मानकर कट्टर धार्मिक रूढ़ियों को तरजीह देना है। इसके अलावा गरीब जनता के बड़े वर्ग तक शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, भोजन इन सबकी पहुंच न होना संविधान का उल्लंघन है। बीते चार सालों में भाजपा एक के बाद एक राज्य की सत्ता पर काबिज होती जा रही है। अगर पूर्ण बहुमत से या फिर सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते वह सत्ता हासिल करती तो वह संविधानसम्मत माना जाता, लेकिन जनता देख रही है कि किस तरह कम सीटें हासिल करने के बाद भी भाजपा सरकार बना रही है, जबकि अधिक सीटें लाने वाली पार्टी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित ही नहीं किया जाता। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने हाल ही में एक सम्मेलन में अपने कार्यकर्ताओं से अगले 50 साल तक शासन करने की बात की है।

प्रधानमंत्री मोदी भी हमेशा 2025 के सपने दिखाते रहे हैं। क्या यह संविधान की भावना के खिलाफ नहीं है, क्योंकि सरकार तो केवल 5 साल की होती है और फिर चुनाव होते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने कल ही अपने सांसदों, मंत्रियों को संभल कर बोलने की हिदायत दी, क्योंकि उनके बयानों से विवाद खड़े होते हैं। श्री मोदी को सरकार की छवि की चिंता है, यह ठीक है। पर क्या उन्हें इससे ऊपर उठकर यह समझाइश नहीं देनी चाहिए थी कि आपके विचार अगर संवैधानिक भावनाओं के विपरीत हैं, तो उन्हें व्यक्त करने से बचें। राहुल गांधी का संविधान बचाओ अभियान कांगे्रस के भविष्य के लिए कितना मुफीद साबित होता है, यह तो बाद की बात है। लेकिन अगर इस अभियान से जनशिक्षण होता है और लोग देशप्रेम के इस ग्रंथ को सुनें, समझें और उससे शिक्षा लें, तो यह देश के लिए सचमुच फायदेमंद होगा।


The Times of India

Rape Ordinance
Every horrific rape that grabs headlines sets off a fresh clamour for ‘tough’ laws and legislators are only too eager to fall in line with what they see as the popular mood. Their job, however, is not merely to tail what appeals to public sentiment at the height of an outrage but to enact laws that best serve society. That means finding ways to make the laws tough on criminals while ensuring that they are reasonable and minimise the scope for the innocent to be targeted.

In the specific case of sex with a minor girl, for instance, there are situations which no reasonable person would term as rape, but the law as it stands would consider statutory rape. For example, if two classmates happen to have consensual sex and the girl happens to be below 18. In the eyes of the law, that would be rape because she is deemed to be not old enough to give consent to sex. Surely, that is not reasonable.
Ideally the age of consent ought to be lowered to 16, but legislators may be loath to do that in today’s conservative climate. The least they can do in that case is to have a provision in the law that decriminalises sex between consenting partners where both are above 13 and the difference in their ages is, say, not more than five years. The fact that the accused is almost automatically arrested on a mere complaint also needs to be reviewed because of its obvious potential for misuse.

That having been said, there are indeed areas in which the law needs to get tougher. One of these is in dealing with cases of kidnapping and gang rape. The law as it stands says those proved guilty of this must get not less than 20 years in jail. We would suggest that the death penalty be prescribed in such cases just as it is in cases where the victim dies or is left in a permanent vegetative state. But the key to acting tough against rapists lies more in ensuring the guilty are brought to book than in enacting laws that sound tough. Prescribing the most stringent punishment cannot be an effective deterrent if the chances of getting caught and then getting convicted are seen to be minuscule.


The Indian Express

It’s Good to Talk
The journey from Xiamen, a Chinese port city across the Taiwan Straits, to Wuhan in Hubei province is more than 1,000 km long, and when Prime Minister Narendra Modi meets Chinese President Xi Jinping on April 27 in Wuhan, they would have taken eight months to cover it — the two leaders last met in September 2017 in Xiamen. It is welcome that the peace between Asia’s biggest powers has held. Both leaders must now be congratulated for agreeing to meet face-to-face and talk about their differences and disagreements, and decide on how to resolve them. It is important for Beijing to understand Delhi’s aspiration for a place on the international high table. Equally, Delhi must comprehend the ambition and passion behind the rise and rise of China, as it snaps at the heels of the US.

The announcement over the weekend in Beijing during External Affairs Minister Sushma Swaraj’s visit has the potential to break the pattern of bitterness that has been developing between the two nations in recent years. Certainly, the Chinese seem to also want a “reset” in ties with India and have pulled out the carpet for Swaraj; she has met both President Xi and Vice-President Wang Qishan, a key decision-maker who has been seconded by Xi to deal with the US. It is being speculated that President Xi will treat Prime Minister Modi to a tour of the sprawling villa on the banks of the Yangtze river once favoured by Chairman Mao — the Great Helmsman’s villa can now be rented for overnight stays. The extent to which the Communist Party of China has changed and remains the same can be gauged from the fact that Xi has picked relaxed and beautiful Wuhan for his informal summit with India’s Prime Minister, not the relatively stiff Beijing.

The Modi-Xi meeting in Xiamen in August last year marked the formal end of the 72-day stand-off between India and China in Doklam. Other issues such as China’s refusal to support India’s full membership of the Nuclear Suppliers Group, its protection of Pakistan-based terrorist Masood Azhar at the UN, its determination to build a highway across Pakistan-Occupied Kashmir as well as its expanding presence across South Asia, have angered Delhi. With the future of 2.5 billion people at stake, there is no option for the leaderships of Delhi and Beijing but to sit across the table — or walk together on the banks of the Yangtze — and try and resolve their resentments. China’s economy may be five times larger and its armed forces several times stronger than India, but the fact remains that there is no alternative to dialogue. A new modus vivendi between Asia’s largest powers is the need of the hour.


The New Indian Express

Taking the Trade Route to Peace
It’s not always that so much is built into an ‘informal summit’ meeting. But Prime Minister Narendra Modi and China’s President-for-life Xi Jinping have a few wrinkles to smooth out when they meet in the picturesque city of Wuhan in central China on April 27-28. This meet comes before one scheduled in June for the Shanghai Cooperation Organisation summit in the eastern port city of Qingdao.

Though the decision to have the Wuhan summit—“a new starting point”—was made public by Chinese Foreign Minister Wang Yi during his Indian counterpart Sushma Swaraj’s Beijing visit, it’s believed to have been taken during Xi and Modi’s meeting last September. The indications are clear: not only do the two leaders assign importance to streamlining dialogue on issues strategic and economic, when the chill is down and the heat is not up yet, they obviously deem it fit to address it at their level, right at the top. The Chinese foreign minister said the talks would see an “exchange of views on overall, long-term and strategic matters concerning the future of China-India relations’’.

With US President Donald Trump breathing down Beijing’s neck for recalibrating trade ties, the latter would want to not only step up trade relations with India, it seems eager to put contentious issues, like the border dispute, within a framework agreement or a dispute resolution mechanism.

For India and Modi, a trade push before the 2019 polls would be beneficial. India though remains circumspect as Swaraj’s more nuanced statement showed, given China’s deep strategic investment in Pakistan, the Belt and Road Initiative inclusive of the $50-billion China-Pakistan Economic Corridor, via PoK, that includes the vital sea link, besides their play in Sri Lanka and Nepal. Notwithstanding the sense of encirclement, there’s a sense that Modi and Xi would do better to maintain a non-confrontational approach. That is what fosters the growth of trade, and there’s nothing quite like the hum of commerce to increase the chances of peace.