आज के हिंदी अख़बारों के संपादकीय: 15 फ़रवरी, 2018

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नवभारत टाइम्स 
आरबीआई का हथौड़ा

भारतीय रिजर्व बैंक ने फंसे हुए कर्ज की समस्या से निपटने के लिए खासकर सरकारी बैंकों की चूड़ी कुछ ज्यादा ही सख्ती से कस दी है। नए नियमों के मुताबिक बैंकों को इसी 1 मार्च से 2 हजार करोड़ रुपए से ऊपर के हर स्ट्रेस्ड लोन का मामला 180 दिन के भीतर सुलझा लेना होगा। इस दौरान उन्हें कर्ज वसूली की ऐसी योजना पेश करनी होगी, और अगर ऐसा नहीं हो सका तो संबंधित खाते को दिवालिया अदालत में भेज दिया जाएगा। इतना ही नहीं, 5 करोड़ रुपये से ज्यादा कर्ज वाले गैर-अदायगी खातों का व्यौरा हर हफ्ते देना होगा। जो बैंक इस दिशा-निर्देश का पालन करने में नाकाम साबित होंगे उनके खिलाफ जुर्माना लगाया जाएगा। सबसे बड़ी बात यह कि अभी तक जारी घोलमट्ठे के लिए जिम्मेदार सीडीआर, एसडीआर और एस4ए जैसे उपायों का किस्सा एक झटके में खत्म कर दिया गया है। कर्ज चुकाएं या दिवाला बोलकर किनारे हों, धुंधलके के लिए कोई जगह नहीं बची है। नॉन परफ़ॉर्मिन्ग असेट्स (एनपीए) यानि फंसा हुआ कर्ज पिछ्ले तीन वर्षों से भारतीय बैंकिंग सेक्टर का सिरदर्द बना हुआ है। इससे निपटने के उपायों पर रिजर्व बैंक और केन्द्र सरकार लगातार हाथ-पैर मार रही है लेकिन कोई ठोस समाधान अभी तक नहीं निकला है। एक तरीका यह सामने आया कि प्रभावित बैंकों को सरकारी पूंजी मुहैया कराई जाए। ऐसा किया भी गया, लेकिन इसको जैसे-तैसे मामला सलट जाने के संकेत की तरह लिया गया। इस पर रोक तभी लगेगी, जब कर्ज न लौटाने वाली कंपनियों को ऐसी सजा मिले, जो कुछ दूसरों के लिए भी नजीर बन सके। रिजर्व बैंक के नए नियमों से कंपनियों के ऊपर कुछ दबाव जरूर बनेगा, लेकिन हल तो तभी निकलेगा, जब कुछ बड़े कर्जखोर नपते हुए दिखेंगे। दिवालिया कानून में हाल के कुछ बदलावों से भी हालात थोड़े सुधरे हैं। मसलन, अभी दिवालिया घोषित किसी कंपनी को खरीद के लिए लगाई जाने वाली बोली में कंपनी के मौजूद प्रवर्तक तक हिस्सा नहीं ले सकते, जब तक उन्होंने बैंकों को कर्ज का भुगतान न कर दिया हो। इससे इस हाथ दे उस हाथ ले वाले खेल पर रोक लगी है। आरबीआई द्वारा चिंहित किए गए 40 बड़े खातों के अलावा डिफ़ॉल्ट करने वाले अन्य प्रवर्तक भी अपनी कंपनियों का नियंत्रण खो सकते हैं। यह ड़र उन्हें बैंकों के कर्ज चुकाने के लिए मजबूर करेगा। रिजर्व बैंक के मौजूदा फैसले को लेकर एक राय यह है कि इससे करीब 2 लाख 80 हजार करोड़ रुपये का कर्ज नए एनपीए की शक्ल ले लेगा। दूसरी राय यह है कि बैंकों को और कुछेक कंपनियों को भी इसके जरिये दोबारा पटरी पर लाया जा सकता हैं बहरहाल, आशंकाएं अपनी जगह हैं लेकिन सख्ती का कोई विकल्प नहीं है।


जनसत्ता

जखीरे में इजाफ़ा

लंबे समय से छोटे आधुनिक हथियारों की कमी से जूझ रही भारतीय सेना को नए हथियार मिलने का रास्ता आखिरकार साफ हो गया। रक्षामंत्री की अध्यक्षता वाली रक्षा खरीद समिति ने करीब सोलह हजार करोड़ रुपए की खरीद को हरी झंडी दे दी है। इस पैसे से सेना के तीनों अंगों- थलसेना, वायुसेना और नौसेना के लिए छोटे और अत्याधुनिक हथियार खरीदे जाएंगे। भारत को पाकिस्तान और चीन के साथ लगी सीमा पर जिस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, उनके मद्देनजर यह फैसला काफी महत्त्वपूर्ण है। सोलह हजार करोड़ रुपए के इस बजट में से सबसे ज्यादा खर्च असॉल्ट राइफलों की खरीद पर होना है। बारह हजार दो सौ अस्सी करोड़ रुपए की सात लाख चालीस हजार असॉल्ट राइफलें खरीदी जाएंगी। सेना को लंबे समय से सबसे ज्यादा जरूरत इन्हीं की रही है। इनकी खरीद में किसी तरह की देरी न हो, इसे ध्यान में रखते हुए सरकार ने इन्हें देश में ही तैयार करने का इरादा बनाया है। रक्षा अनुसंधान संगठन (डीआरडीओ) ने असॉल्ट राइफलों के डिजाइन तैयार किए हैं। एक हजार आठ सौ उन्नीस करोड़ रुपए की हल्की मशीनगनें खरीदी जाएंगी। इसके अलावा नौ सौ बयासी करोड़ रुपए से पांच हजार सात सौ उन्नीस स्नाइपर राइफलें लेने का फैसला हुआ है। इतना ही नहीं, नौ सेना को और ताकतवर बनाने के लिहाज से पनडुब्बी रोधी प्रणाली ‘मारीच’ खरीदी जाएंगी। राइफलों के लिए गोलियां विदेशों से खरीदी जाएंगी

सैन्य शक्ति के हिसाब से भारतीय सेना दुनिया की ताकतवर सेनाओं में है। सैनिकों के संख्या बल और हथियारों के जखीरे के हिसाब से चीन के बाद दूसरे स्थान पर भारत की सेना ही आती है। ऐसे में यह गंभीर सवाल तो खड़ा होता ही है कि इतनी बड़ी सेना होने के बावजूद हमारे जवानों के पास आधुनिक हथियार क्यों नहीं हैं। क्यों उन्हें पुराने घिसे-पिटे हथियारों से लड़ना पड़ रहा है? ऐसे में जवान देश की क्या, अपनी ही रक्षा नहीं कर पाएंगे! पुराने हथियारों का होना तो जवान के लिए निहत्थे होने जैसा है। जिन छोटे आधुनिक हथियारों की खरीद सरकार अब करने जा रही है उनकी जरूरत पिछले कई सालों से बनी हुई है। सेना के पास हथियारों की भारी कमी का मुद्दा समय-समय पर उठता रहा है। सैन्य जरूरतों को ध्यान में रखते हुए हर साल रक्षा बजट में संतोषजनक प्रावधान होते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्यों नहीं समय पर हथियार जवानों के हाथों में पहुंचते? क्यों दस-दस साल तक मामला लटक जाता है? ऐसा नहीं कि हथियारों की खरीद के लिए कोई प्रयास हुए ही नहीं

असॉल्ट राइफलों और सब मशीनगनों की खरीद के लिए पिछले एक दशक में जो परियोजनाएं बनीं वे सिरे नहीं चढ़ पार्इं। भ्रष्टाचार के आरोपों और खरीद प्रक्रिया तथा तकनीकी मानकों पर खरा नहीं उतरने की वजह से यह काम लंबे समय तक टलता गया। हालत यह है कि सीमा पर डटे जवानों के पास जो राइफल, मशीनगनें और कारबाइन जैसे जो हथियार हैं वे मानक स्तर को पूरा नहीं करते हैं। पाकिस्तान की ओर से आए दिन सीमाई इलाकों में हमले हो रहे हैं। उधर, डोकलाम में चीन की गतिविधियां चुनौती बनी हुई हैं। ऐसे में सेना को अत्याधुनिक हथियारों से तत्काल लैस करने की जरूरत है। देश की सुरक्षा से ज्यादा संवेदनशील मुद्दा कोई नहीं हो सकता, यह हमारे नीति-नियंताओं के लिए प्राथमिकता होनी ही चाहिए!


अमर उजाला

फंसे कर्ज पर सख्ती

तीसरी तिमाही में बैंकों का घाटा चौंकाने वाले स्तर पर पहुंचने के बाद रिजर्व बैंक ने फंसे कर्ज के समाधान के लिए चल रहे करीब आधा दर्जन नियमों को तत्काल प्रभाव से खत्म करने के साथ-साथ कर्जदारों और बैंकों पर सख्ती बरतने से संबंधित जो नए नियम लागू किए हैं, वे वाकई स्वागतयोग्य । हैं। दरअसल एनपीए (गैर निष्पादित परिसंपत्तियों) या बैड लोन के बढ़ते मामलों को देखते हुए बैंकों पर दबाव बनाने के उद्देश्य से सरकार ने पिछले साल रिजर्व बैंक को अधिक शक्तियां दी थी, उसी का नतीजा है कि केंद्रीय बैंक सख्त प्रावधानों के साथ सामने आया है। नए नियम के तहत फंसा कर्ज अगर 2,000 करोड़ रुपये से अधिक का है, तो रकम चुकाने के लिए छह महीने दिए जाएंगे। इस दौरान समाधान न होने सम्बंधित बैंकों को यह मामला इन्सोल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोर्ट में भेजना होगा। वहां कर्जदाता अगर कर्ज चुकाने की नई योजना पेश नहीं कर पाएगा, तो उन्हें डिफ़ॉल्टर घोषित कर दिया जाएगा एक अनुमान है कि नए प्रावधान के बाद करीब दो लाख करोड़ रुपए के कर्ज का मामला बैंकरप्सी कोर्ट में जाएगा। अब से पह्के फंसे हुए को पुनर्गठित कर दिया जाता तह, जिससे कर्जदाताओं को समय मिल जाता था। इससे बैंकों पर एनपीए का बोझ लगातार बढ़ता चला गया और तीसरी तिमाही में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का घाटा बहुत अधिक हो गया, जिसमें स्टेट बैंक सबसे ऊपर रहा। फंसे हुए कर्ज से संबंधित केंद्रीय बैंक के नए नियम कर्जदारों के लिए तो बेहद सख्त हैं ही, इनमें लापरवाही पर बैंकों पर जुर्माना लगाने का भी प्रावधान है। अब पांच करोड़ से अधिक के कर्ज के बारे में बैंकों को हर सप्ताह केंद्रीय बैंक को रिपोर्ट देनी पड़ेगी। एनपीए की समस्या के हल की दिशा में यह बेहतर कोशिश है, लेकिन यह स्थिति आई है, तो इसके लिए सरकारें भी कम दोषी नहीं। अव्वल तो कृषि की तुलना में उद्द्योग घरानों को कर्ज देने के मामले में जैसी उदारता बरती गई, वह दोहरी नीति ही कम क्षुब्धकारी नहीं थी। तिस पर अदालती आदेश के बावजूद बड़े बकायेदारों के नाम उजागर नहीं किए गए। मौजूदा सरकार ने तो एनपीए की अनदेखी कर बैंकों के लिए पैकेज तक जारी किए। रिजर्व बैंक की यह सख्ती प्रकारांतर से एनपीए के मामले में हमारी सरकारो की विफलता भी उजागर करती है।


हिंदुस्तान

महाघोटाला

विजय माल्या के वित्तीय घोटाले से जिनकी आंखें न खुली हों, उनकी अब खुल जानी चाहिए। पंजाब नेशनल बैंक में हुए घोटाले की ताजा खबर हैरान करने वाली भी है और परेशान करने वाली भी। मुंबई में बैंक की सिर्फ एक शाखा में 11,300 करोड़ रुपये का घोटाला यह बताता है कि हमारा बैंकिंग क्षेत्र अभी भी इतने ढीले-ढाले ढंग से चल रहा है कि उसमें बहुत आसानी से इतना बड़ा घोटाला किया जा सकता है। घोटाला कितना बड़ा है, इसे सिर्फ इसी आंकड़े से समझा जा सकता है कि पिछले साल बैंक की कार्यशील आमदनी महज 12,216 करोड़ रुपये थी। यानी सिर्फ एक घपले ने इसका लगभग पूरी तरह ही सफाया कर दिया। और जहां तक मुनाफे की बात है, तो बैंक पहले ही घाटे में चल रहा है। जाहिर है, यह घाटा अब और बढ़ेगा। इस पूरे घपले से बैंक को कितनी चपत लगी है, यह बैंक ने अभी स्पष्ट नहीं किया है। जो चीज सबसे ज्यादा हैरान करती है, वह है एक ही बैंक शाखा से इतनी बड़ी रकम की हेरा-फेरी हो जाना। यह ठीक है कि मुंबई देश की आर्थिक राजधानी है और देश के सबसे बड़े वित्तीय लेन-देन वहीं होते हैं, फिर भी एक ही शाखा से इतनी बड़ी रकम का पार हो जाना ऐसी बात है, जो आसानी से हजम नहीं होती। अभी यह भी नहीं पता कि यह पूरा घपला एकबारगी हुआ या यह पिछले कुछ समय से चल रही घपले की प्रक्रिया का कुल योग है। दोनों ही तरह से यह बताता है कि हमारी बैंकिंग व्यवस्था में सब कुछ चाक-चौबंद नहीं है।

खबर से सिर्फ इतना ही पता लगा है कि यह मामला कुछ कंपनियों को दिए गए एडवांस का है। तकरीबन एक साल पहले बेंगलुरु के भारतीय प्रबंधन संस्थान ने बैंक धोखाधड़ी के मामलों का अध्ययन किया था। इस अध्ययन में पाया गया था कि बैंकों में सबसे ज्यादा धोखाधड़़ी इसी एडवांस से होती है। इसे ही बैंकों के डूब गए कर्ज यानी एनपीए का सबसे बड़ा कारण बताया गया था। हम यह भी जानते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों का एनपीए लगातार बढ़ रहा है। लेकिन जब भी एनपीए की बात आती है, यह मान लिया जाता है कि कुछ लेने वाले हैं, जो बैंकों का पैसा लेकर बैठ गए हैं और वापस नहीं कर रहे। यह बात अक्सर नजरअंदाज हो जाती है कि इसमें से कितना बैंक के अपने तंत्र की खामियों की वजह से हो रहा है। ऐसी बातें तभी सामने आती हैं, जब रकम बहुत बड़ी हो, जैसे विजय माल्या के मामले में थी, या फिर पंजाब नेशनल बैंक के ताजा घोटाले के मामले में है। यानी सिर्फ तब, जब घोटाले की प्रकृति पर परदा डालना संभव न हो।

हमारे लिए यह चिंता का विषय इसलिए भी है कि पंजाब नेशनल बैंक एक सार्वजनिक क्षेत्र का बैंक है। यह ठीक है कि पिछले कुछ समय में पूंजी बाजारों से काफी पूंजी हासिल की गई है, लेकिन इसका मूल आधार तो वही पूंजी है, जो करदाताओं की मेहनत की कमाई से बैंक के पास पहुंची है। यहां यह भी बता दें कि ऐसे घपले-घोटाले अपने देश में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में ही सबसे ज्यादा होते हैं। भारतीय प्रबंधन संस्थान का अध्ययन भी बताता है कि हमारे देश में 83 प्रतिशत से ज्यादा बैंक घपले सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में होते हैं। एडवांस से संबंधित घपलों के मामलों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की हिस्सेदारी 87 प्रतिशत है। आम लोगों के पैसों के साथ इस तरह का व्यवहार किसी भी कीमत पर रोका ही जाना चाहिए।


दैनिक भास्कर

पीएनबी के बहाने बैंकिंग प्रणाली पर उठे सवाल

पंजाब नेशनल बैंक ने 11,500 करोड़ की लेन-देन की धोखाधड़ी करके एक बार फिर भारतीय बैंकिंग प्रणाली की कार्यपद्धति पर सवाल उठा दिये हैं। यह रकम बैंक के विदेशी खातेदारों के खाते में फर्जी तरीके से हस्तांतरित की गई ताकि उस खाते के आधार पर उन्हें दूसरे बैंकों से मदद मिल सके। ऐसा करने वाले बड़े कारोबारी ही रहे होंगे, क्योंकि इसमें व्यवसाय का दायरा भारत से लेकर विदेश तक फैला दिख रहा है। पंजाब नेशनल बैंक कर्ज देने के मामले में स्टेट बैंक के बाद देश का दूसरे नम्बर का और कुल संपत्ति के लिहाज से चौथे नम्बर का बैंक है। इस महत्वपूर्ण बैंक में एक हफ्ते के भीतर धोखाधड़ी की दूसरी बड़ी घटना चौकाने के साथ हमारे तंत्र की लापरवाही की ओर इशारा भी करती है। इस घटना के बाद से पहले गौरव मोदी नाम के व्यापारी ने 280 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी की थी और बैंक अभी तक यह जाहिर नहीं कर रहा है कि हाल की घटना उससे संबद्ध है या अलग। संभव है कि वित्त मंत्रालय इसे भ्रष्टाचार पकड़ने में अपनी कामयाबी के रूप में प्रचारित करे लेकिन, इस खबर से बैंक के शेयर 4 से 5 फीसदी तक तो गिरे ही हैं उसकी साख में जो बट्टा लगा है वह अलग है। भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने चेतावनी दी थी कि हमें सबसे पहले बैंकों के बही-खातों को दुरुस्त करने की आवश्यकता है, क्योंकि उसमें बहुत सारी गडबडियां हैं। उस समय सरकार और देश के तमाम उद्द्योगपति उन पर व्याज दरें कम करने का दबाव बना रहे थे। उसके बाद गवर्नर बने उर्जित पटेल ऐसा कोई काम करते उससे पहले नोटबंदी का निर्णय ले लिया गया। और यह मान लिया गया कि इससे देश की काली अर्थवयवस्था दुरुस्त हो जायेगी और बैंकिंग प्रणाली में भी चुस्ती आएगी। जबकि हाल में सरकार जिस तरह से बौन्ड़ जारी करके बैंकों के पुनरुउद्धार का कार्यकृम चला रही है उससे स्पष्ट है और बैंकों का स्वास्थ ठीक नहीं है। पिछ्ले साल के आंकड़े बताते हैं कि भारतीय बैंकिंग प्रणाली पर बट्टा खाते का बोझ 8 लाख करोड़ रुपये का है। इस सूची में भारतीय स्टेट बैंक के बाद पंजाब नेशनल बैंक का ही नम्बर आता है जिसके बट्टा खाते का ऋण 57,630 करोड़ रुपए है। समय आ गया है कि कॉर्पोरेट घरानों और बड़ी कम्पनियों द्वारा बैंकों को लगाई जाने वाली इस चपत पर सरकार उचित कार्रवाई करे।


राजस्थान पत्रिका 

शर्मनाक सियासत 

किसी ने सोचा न था कि राजनीति का स्तर इतना गिर जाएगा और चंद वोटों के लालच में राजनेता शहीदों के नाम पर ही सियासत करने लगेंगे। अफसोस कि अब ऐसा धड़ल्ले से होने लगा है। सेना की सर्जिकल स्ट्राइक हो या देश की सुरक्षा से जुड़े दूसरे मुद्दे, सबको राजनीतिक जामा पहनाया जाने लगा है। अधिकांश राजनीतिक दल ऐसे मुद्दे पर राजनीतिक रोटियां सेंकने से बाज नहीं आते। एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैशी ने सुंजवां सैन्य शिविर पर हुए आतंकी हमले में मारे गए लोगों पर एक बयान देकर देश को फिर शर्मशार किया है। उन्होंने कहा कि मुसलमानों को पाकिस्तानी समझने वालों को इससे सबक लेना चाहिए। हमेशा विवादों में रहने वाले ओवैशी शायद भूल गए हैं कि यह पहला मौका नहीं जब मुसलमानों ने इस देश के लिए जाना दी हो आजादी के समय 32 साल के अशफाक उल्ला खान की शहादत को लोग कभी न भूलेंगे। सन 1965 में भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए 27 साल के अब्दुल हमीद आज भी हर भारतीय के दिल में हैं। हमीद को ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया गया था। हजारों मुसलमानों ने हंसते-हंसते देश के लिए जान की बाजी लगाने में गर्व ही महसूस किया है। ओवैशी और उन जैसे दूसरे नेता शहादत को सियासत से जोड़कर क्या हासिल करना चाहते हैं? मुसलमानों के हमदर्द4बनने की कोशिश में ओवैशी क्या बोल जाते हैं, उन्हें स्वयं पता नहीं होगा। ओवैशी सरीखे नेताओं को समझ आ जाना चाहिए कि देश के मुसलमान भी दूसरे धर्म के लोगों की तरह इस देश को अपना समझते हैं। ओवैशी जैसे नेता उनको भड़काने की कोशिश तो करते हैं लेकिन सफल नहीं हो पाते। अगर सफल होते तो उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों में ओवैशी की पार्टी को एकाध सीट मिल जाती। भारतीय सेना बिल्कुल सटीक कहा है कि शहीद का कोई धर्म नहीं होता। देश के लिये जान देने वालों को धर्म के नजरिए से देखा जाना तुच्छ सोच का परिचायक है। ओवैशी जैसे नेताओं की देश ने पहले भी नहीं सुनी और आगे भी नहीं सुनेगा।


दैनिक जागरण

लड़खड़ाते बैंक 

यह गंभीर चिंता की बात है कि बैंकों के एनपीए यानी फंसे कर्ज की समस्या का कोई ठोस समाधान होता हुआ नहीं दिख रहा है। हालांकि केंद्र सरकार की  ओर से लगातर यह कहा जा रहा है कि वह पिछ्ली सरकार की ओर से दी  की इस समस्या से सही तरीके से निपट रही है, लेकिन अभी यह कहना कठिन है कि उसे अपेक्षित सफलता मिल पा रही है। यह निराशाजनक है कि दिवालियेपन सबंधी जिस नये कानून-आइबीसी से बैंकों के फंसे अथवा डूबे कर्ज की ठीक-ठाक वसूली होने की उम्मीद की जा रही थी, वह पूरी होती नहीं दिख रही है। कुछ ऐसी ही स्थिति दूसरे अन्य उपायों की भी है। अगर बैंकों के अधिकारी यह जानने लगे हैं कि कुल फंसे कर्ज में से एक चौथाई से अधिक की वसूली शायद ही हो सके तो इसका मतलब है कि सरकार के साथ ही रिजर्व बैंक को नये सिरे से कुछ करना होगा। इस मामले में जल्द ठोस कदम उठाये जाने इसलिये आवश्यक हैं, क्योंकि बैंक अपनी खराब वित्तीय स्थिति के लिये अधिक चर्चा में रहने लगे हैंं जब दुनिया भारत को तेज गति से तरक्की करनेवाले देश के रूप में देख रही है और और सरकार भारतीय बाजार को निवेश के आदर्श ठिकाने के तौर पर पेश करने में लगी हुई है, तब यह बिल्कुल भी ठीक नहीं कि हमारे बैंक अपनी खस्ताहाल आर्थिक स्थिति के लिये चर्चा में बने रहें। न केवल विदेशी निवेशकों का भरोसा जीतने, बल्कि की आम जनता को आश्वस्त करने करने के लिये यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि बैंक फंसे कर्ज के कारण लड़खड़ाते हुए न दिखें। अभी तो ऐसा लगता है कि सरकार और रिजर्व बैंक एनपीए की समस्या से पार पाने के लिये जो भी कर रहे हैं, बैंक उस पर पानी फेर दे रहे हैं।

यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि हमारे बैंक उन तौर तरीकों का सख्ती से पालन नहीं कर रहे हैं जिससे एनपीए न बढ़ने पाए। वे जिस तरह अपनी कार्यप्रणाली में अपेक्षित तब्दीली नहीं ला रहे, इसका एक नया प्रमाण देश के दूसरे सबसे बड़े बैंक पंजाब नेशनल बैंक में करीब 11 हजार करोड़ रुपये का घोटाला सामने आना है। इससे संतुष्ट नहिं हुआ जा सकता कि इस घोटाले का पर्दाफाश हो गया, क्योंकि इस सवाल का जवाब शायद ही किसी के पास हो कि क्या घोटाले में डूबी रकम को हासिल किया जा सकेगा? यह भी एक तरह के खतरे का ही संकेत है कि अभी चंद दिन पहले देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक ने 17 साल बाद 2416 करोड़ रुपये का घाटा का होने की सूचना दी। ध्यान रहे कि कि यह घाटा एक तिमाही का है। जिस तरह बैंक घाटे से बाहर आटे नहीं दिख रहे उसे देखते हुए यह सवाल उठेगा ही कि आखिर सरकार कब तक उन्हें उबारने ले लिये जनता के पैसे उनके खातों में डालती रहेगी? सबसे अजीब यह है कि बैंक मुसीबत में फंसे होने के बाद भी आंकड़ेबाजी के जरिये गुलाबी तस्वीर दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। इससे तो यही लगता है कि वे खुद में सुधार लाने के लिये प्रतिबद्ध नहीं।


प्रभात खबर 

बीमार होते बैंक 

फंसे हुये कर्ज की समस्या से बैंक लंबे समय से जूझ रहे हैं, पर डूबी पूंजी की वसूली का कोई खास उपाय कारगर नहीं हो पाया है समस्या कितनी विकराल हो चुकी, इसका अन्दाजा6रिजर्व बैंक के हाल के रुख से लगाया जा सकता है. देश के केंद्रीय बैंक ने इस हफ्ते सख्त रुख रवैया अपनाते हुये फंसे कर्ज के निपटारे की मौजूदा प्रणाली में बड़े संशोधन किये हैं. संशोधित नियमों के मुताबिक, बैंकों को दबाव वाली वाली परिसंपत्तियों की जल्द पहचान करनी होगी और इनके निपटारे की समयबद्ध योजना तैयार करनी पड़ेगी. अगर तय समय के भीतर बैंक परिसम्पत्तियों की वसूली विफल रहते हैं, तो रिजर्व बैंक उनपर जुर्माना लगायेगा. लेकिन असल सवाल संशोधित नियमों के समुचित अनुपालन की है. नियम बदलने से ऐसी कोई गारंटी नहीं मिल जाती है कि बैंक कर्ज वसूली में कामयाब होंगे. जुर्माने के प्रावधान से यह उम्मीद जरूर की जा सकती है कि बैंक बड़े कर्जे देने में ज्यादा सतर्कता बरतेंगे, लेकिन बड़ी जरुरत डूबे कर्ज की वसूली की है. बैड लोन की वृद्धी का नया चक्र संकेत करता है कि 5000 करोड़ या उससे ज्यादा के उद्दम यानी बडे कार्पोरेट भी कर्ज तुरंत लौटा पाने में असमर्थ हैं. हालत यह है कि कुछ कर्जदार कार्पोरेट के पास मौजूद कुल संपदा का बाजार मूल्य आज उतना भी नहीं है, जितना की उनकी देनदारी है. बैंको को उबारने के लिए सरकार की मदद का भरोसा वित्त व्यवस्था के लिए घातक है. बीते अक्तूबर मे सरकार ने घोषणा की थी कि वह अगले दो सालों में सरकारी बैंकों में विभिन्न उपायों से 2.11 लाख करोड़ रुपए का निवेश करेगी, ताकि वे घटते मुनाफे की चिंता से निकल कर नये कर्ज देने का साहस जुटा पायें. साल 2015 में भी सरकारी बैंकों में निवेश की ऐसी घोषणा हुई थी. लेकिन बैड लोन घटा पाने में यह कदम कारगर नहीं हुआ, समस्या बस आगे के लिए टल गई.साल 2008 से 2014 के बीच बैंकों ने खूब कर्ज बाँटा. इस दौरान सरकारी बैंकों का कर्जा बढ़कर 34 लाख करोड़ रुपए हो गया और अब इसका बड़ा हिस्सा बैड लोन बन गया है. साल 2014 के बाद भी इस चलन पर अंकुश नहीं लग सका. सरकारी क्षेत्र के सबसे बड़े बैंक भारतीय स्टेट बैंक ने 2016-17 में 20,339 करोड़ रुपये के फंसे कर्ज को बट्टे खाते में डाल दिया. सरकारी बैंकों के लिहाज से बट्टे खाते में डाले जाने वाली यह सबसे बड़ी राशि है. बीते वित्त वर्ष(2016-17) में बैंकों के बट्टे खाते में 81,683 करोड़ रुपये की राशि डाली गई थी. साल 2012-13 से तुलना करें, तो पांच सालों में सरकारी बैंकों में बट्टा खाते में डाली गई रकम तीन गुना बढ़ी है. बैड लोन का बढ़ता हुआ आकार बैंकिंग व्यव्स्था में सुधार के बड़े नीतिगत उपाय की मांग करता है,छिटपुट उपायों के दिन अब बीत चुके हैं. यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि बैंकों की बेहतर सेहत के बगैर न तो टिकाऊ अर्थवयवस्था मुमकिन है और न ही आर्थिक विकास की गति को सुनिश्चित किया जा सकता है.