चढ़ते चुनाव के साथ राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के बीच साफ़ होते फ़र्क

चन्‍द्रप्रकाश झा चन्‍द्रप्रकाश झा
काॅलम Published On :


सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव के लिए मतदान के सात चरणों में से चार चरणों में 29 अप्रैल तक 375 सीटों के वास्ते वोटिंग पूरी हो गई है। पांचवें चरण में 6 मई को सात राज्यों की 51, छठे चरण में 12 मई को सात राज्यों की 59 और सातवें एवं अंतिम चरण में 19 मई को आठ राज्यों में 59 सीट पर मतदान शेष हैं। अंतिम चरण में उत्तर प्रदेश की वाराणसी सीट भी शामिल है जहां से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार दूसरी बार भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी के रूप में नामांकन पत्र दाखिल कर चुके हैं।

मोदी 2014 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा और उसके नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) के औपचारिक रूप से घोषित दावेदार थे। इस बार भी  वही उसके घोषित प्रत्याशी हैं। राहुल गांधी को कांग्रेस ने प्रधानमन्त्री पद का दावेदार घोषित नहीं किया है। यह भारत के संसदीय लोकतंत्र की राजनीतिक शासन व्यवस्था में राहुल गांधी और मोदी जी के बीच बहुत बड़ा फर्क दर्शाता है। राहुल गांधी ने यह जरूर कहा है कि वह जरूरत पड़ने पर प्रधानमंत्री पद की बागडोर संभालने के लिए तैयार है। तमिलनाडूु की प्रमुख पार्टी  द्रमुक के नेता एमके स्टालिन ने अपनी तरफ से राहुल गांधी को प्रधानमन्त्री पद के लिए विपक्षी गठबंधन का दावेदार कहा है, फिर भी उन्हें इस पद के लिए कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाले यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस (यूपीए) का प्रत्याशी घोषित नहीं करने के ठोस कारण होंगे।

इनमें से एक प्रधामंत्री के चयन में संसदीय प्रक्रियाओं के निर्वहन का दायित्वबोध हो सकता है। दूसरा बड़ा कारण इस चुनाव बाद की राजनीतिक परिस्थितिओं में यूपीए का विस्तार करने की गुंजाइश बचाये रखना शामिल लगता है। गौरतलब है कि राहुल गांधी ने लगातार कहा है कि उन्हें देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं का समर्थन मिल रहा है जिनकी मोदी जी ने धज्जियां उड़ा दी हैं।

हम जानते हैं कि भारत के संसदीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री ही कार्यपालिका प्रमुख हैं जिन्हें राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 75 के तहत ‘नियुक्त’ करते हैं। राष्ट्रपति को ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त करना होता है जिन्हें लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों का बहुमत समर्थन हासिल हो। जिन्हें प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाता है उनको अपनी सरकार का स्पष्ट बहुमत राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित अवधि में लोकसभा में साबित करने की अनिवार्यता है। स्पष्ट है कि भारत के नागरिक आम चुनाव में अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोकसभा सदस्य चुनते हैं। ये निर्वाचित लोकसभा सदस्य ही प्रधानमंत्री को चुन सकते है। प्रधानमंत्री संसद के किसी भी सदन के सदस्य हो सकते हैं। अगर वे सांसद नहीं हैं तो उन्हें छह  माह के भीतर लोकसभा अथवा राज्यसभा का सदस्य बन जाने की आवश्यकता है।

भाजपा ने मोदी जी को नई सरकार के प्रधानमंत्री का दावेदार घोषित कर दिया है तो कारण समझे जा सकते हैं क्योंकि उसका पूरा चुनाव प्रचार उन्ही पर केंद्रित है लेकिन जरूरी नहीं है कि अन्य दल भी प्रधानमंत्री पद के लिए अपने दावेदार घोषित कर के ही लोकसभा चुनाव लड़ें। किसी भी पक्ष ने प्रधानमंत्री पद के लिए अपने दावेदार की कितनी भी घोषणा कर रखी हो, उसे अपने संसदीय दल का नेता चुनने की संवैधानिक प्रक्रिया पूरी करनी ही पड़ेगी।

चुनाव से पहले प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदार पेश करने की प्रथा भाजपा ने ही शुरू की थी  जब उसने 1998 के आम चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का अपना दावेदार घोषित कर दिया था। मोदी जी और अटल बिहारी वाजपेयी को छोड़ किसी को भी प्रधानमंत्री का औपचारिक रूप से दावेदार घोषित करने की संभवतः एकमात्र नज़ीर 2009 के लोकसभा चुनाव में डाक्टर मनमोहन सिंह की है। कांग्रेस ने वह चुनाव अपने मेनिफेस्टो पर उनकी तस्वीर डाल कर लड़ा था, लेकिन वह 2004 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए कांग्रेस के घोषित प्रत्याशी नहीं थे। उस चुनाव के बाद कांग्रेस संसदीय दल ने तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी को अपना नेता चुना था। बाद में सोनिया गांधी ने इस पद के लिए डाक्टर मनमोहन सिंह को मनोनीत कर दिया जिस पर कांग्रेस संसदीय दल ने अपनी स्वीकृति दे दी।

देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर उनके बाद ‘ नेहरू-गांधी’ परिवार की इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को भी प्रधानमंत्री का दावेदार औपचारिक रूप से घोषित नहीं किया गया था। यह दीगर बात है कि कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य को प्रधानमंत्री पद का स्वतः दावेदार मान लिए जाने की अघोषित परम्परा रही है। बहरहाल, भारत के संसदीय लोकतंत्र में चुनाव से पहले किसी दल का प्रधानमंत्री का अपना ‘ उम्मीदवार’ पेश करना अगर असंवैधानिक नहीं है तो उसकी संवैधानिक मान्यता भी नहीं है। संभव है कि राहुल गांधी इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया के निर्वहन के लिए अतिरिक्त रूप से सतर्क हों।

विखंडित जनादेश

दूसरा बड़ा कारण इस बार के आम चुनाव में किसी भी पक्ष को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने की संभावना है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि किसी पक्ष को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में कांग्रेस वह प्रयोग फिर कर सकती है जो उसने पिछले वर्ष कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में विखंडित जनादेश के बाद भाजपा को सत्ता संभालने से रोकने के लिए किया था। कांग्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा के पुत्र एवं पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी के जनता दल-सेकुलर और कांग्रेस की सांझा सरकार बनाने के लिए  समर्थन देने में बड़ी तेजी की। देवेगौड़ा 1996 के आम चुनाव के बाद केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 13 दिन में गिर जाने पर अपनी पार्टी के लोकसभा सदस्यों की संख्या बहुत कम होने के बावजूद कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बन गए थे। देवेगौड़ा इस बार का भी लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं और राज्य में उनकी पार्टी का कांग्रेस से गठजोड़ बरकरार है।  देवेगौड़ा दक्षिण भारत के दिग्गज नेताओं में शामिल हैं जहां की कुल लोकसभा सीटों के संपन्न हो चुके मतदान में भाजपा की स्थिति ‘पतली’ बताई जाती है।

मीडिया और सियासी हलकों में चर्चा है कि इस बार के चुनाव में 2014 में नज़र आई ‘मोदी लहर’ जैसा कुछ भी नहीं है। पिछली बार मोदी लहर के बावजूद भाजपा को अपने बल पर लोकसभा में स्पष्ट बहुमत के लिए आवश्यक 272 से 10 ही अधिक कुल 282 सीटें मिल पायी थीं। इस बार मतदाताओं के बीच मोटे तौर पर केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा और एनडीए के प्रति रोष है जो अलग-अलग राज्यों और क्षेत्रों में कम या ज्यादा हो सकता है। कयास लग रहे हैं कि इस बार किसी भी पक्ष और उनके मतदान-पूर्व के गठबंधन को नई लोकसभा में स्पष्ट बहुमत मिलना मुश्किल होगा। ऐसे में नई सरकार के गठन में भाजपा और कांग्रेस के गठबंधन से अभी तक बाहर क्षेत्रीय दलों की अहम भूमिका हो सकती है।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री नारा चंद्रा बाबू नायडू की तेलुगुदेशम पार्टी, ओडिसा के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक का बीजू जनता दल, तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर की तेलंगाना राष्ट्र समिति, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी, उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी और इसी प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह यादव की समाजवादी पार्टी में से कोई भी भाजपा या कांग्रेस के गठबंधन में अभी शामिल नहीं है। चुनाव के बाद इन पार्टियों का राजनीतिक महत्व इस पर निर्भर करेगा कि वे कितनी सीटें जीतती है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी की अलग ही राय है। उनका कहना है कि  अब तक औपचारिक रूप से विपक्षी दलों के गठबंधन का प्रधानमंत्री चुनाव के बाद ही तय हुआ है और वही इस बार भी होगा।

सर्वे

इस वर्ष जनवरी से अप्रैल तक के 13 सर्वे में इंडिया टीवी-सीएनएक्स, टाइम्स नाउ-वीएमआर और ‘जन की बात’ को छोड़ सभी ने विखंडित जनादेश की संभावना व्यक्त की है। इनमें से जिन तीन के सर्वे में एनडीए को बहुमत मिलने का आकलन है वे भी ज्यादातर बहुत कम सीटों के अंतर से है। टाइम्स नाउ वीएमआर के जनवरी के सर्वे में त्रिशंकु लोकसभा की संभावना व्यक्त की गई थी। लेकिन उसके अप्रैल के नवीनतम सर्वे में एनडीए को सात सीटों का बहुमत दर्शाया गया है। कुछ और सर्वे में यूपीए को भी बहुमत नहीं मिलने की संभावना व्यक्त करते हुए कहा गया है कि भाजपा लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर सकती है लेकिन भाजपा और कांग्रेस के गठबंध से बाहर की पार्टियां को कुल मिलाकर कांग्रेस से ज्यादा सीटें मिल सकती है। ऐसे में इन क्षेत्रीय दलों में से अधिकतर को साथ लिए बगैर नई सरकार का गठन संभव नहीं होगा। मतदाताओं के बीच मोटे तौर पर केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा और एनडीए के प्रति रोष है जो विभिन्न राज्यों और क्षेत्रों में कम या ज्यादा हो सकता है। कयास लग रहे हैं कि इस बार किसी भी पक्ष और उनके मतदान-पूर्व के गठबंधन को नई लोकसभा में स्पष्ट बहुमत मिलना मुश्किल होगा। ऐसे में नई सरकार के गठन में भाजपा और कांग्रेस के गठबंधन से अभी तक बाहर क्षेत्रीय दलों दलों की अहम भूमिका हो सकती है।

कई राजनीतिक टीकाकारों के बीच आम सहमति है इस चुनाव में मोदी जी की चिंताओं का एक बड़ा कारण राहुल गांधी का उभार और चुनावी नैरेटिव है। उनके मुताबिक़ वह भाषा एवं व्यवहार से लोगों के बीच शिष्ट माने गए हैं,  बेरोजगारी, गरीबी, कृषि संकट जनता के मुद्दों को उठा रहे हैं और अपनी तरफ से आकर्षक योजनाएं भी पेश कर रहे है। दूसरी ओर मोदी जी के चुनाव प्रचार में कुछ हद तक शिष्ट भाषा एवं व्यवहार का अभाव है। वे मुद्दों की तलाश में भटक गए लगते हैं और जनता के बीच अपनी सरकार के कामकाज, उपलब्धियों और भावी कार्यक्रम पर ध्यान केंद्रित नहीं कर सके हैं। उनके चुनाव प्रचार में जोर पुलवामा आतंकी हमला और उसके बदले में पाकिस्तान के बालाकोट में भारतीय वायुसेना की कार्रवाई पर फिसल गया है जो जनता के वास्तविक मुद्दे नहीं बन पाए हैं। अमेरिका के प्रतिष्ठित अखबार न्यूयार्क टाइम्स की राय में राहुल गांधी के राजनीतिक उभार मोदी राज के पांच वर्षों में ‘आर्थिक अक्षमताओं, बहुसंख्यकवादी आक्रामकता और सांस्थानिक पराभव“ से ही संभव हो सका है।