चुनाव चर्चा : खुरपेंच कम नहीं हैं अमित शाह के ‘मिशन कश्मीर’ में

चन्‍द्रप्रकाश झा चन्‍द्रप्रकाश झा
काॅलम Published On :


जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव की तैयारियां शुरू हो गईं हैं। निर्वाचन आयोग ने अब कहा है कि वह इस बार की अमरनाथ यात्रा के बाद विधानसभा चुनाव कार्यक्रम की घोषणा कर सकता है। यह यात्रा अगली 1 जुलाई से शुरू होगी और 15 अगस्त को खत्‍म होगी।

आयोग ने हाल में राज्य में लोकसभा की सभी छह सीटों पर चुनाव कराये थे पर विधानसभा चुनाव नहीं कराये। इसके पीछे सुरक्षा का कारण बताया गया था। आयोग का यह निर्णय लोगों को हज़म नहीं हुआ। राज्य में सभी लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव कमोबेश शांतिपूर्वक ही संपन्न हुए। उन्हीं क्षेत्रों में विधानसभा खंड भी फैले हैं। तब पुलवामा कांड के बाद के माहौल में सुरक्षा का मुद्दा ऊपर कर दिया गया था, जिसके साये में और सारी बातें छुप गयीं। अब वो छुपी बातें खुलने लगी हैं। सुरक्षा तो एक बहाना था।

वास्तविक कारण सुरक्षा के नहीं, बल्कि सियासी थे। चुनावी गोटें सतही नज़र से देखने के बजाय तह में जाकर देखने से ही  सियासी चालें समझ में आ सकती हैं।  मीडियाविजिल के इस स्तम्भ में हम कश्मीर में चुनाव को लेकर लगातार चर्चा करते रहे हैं, जिनके विवरण दोहराने की ज़रूरत नहीं है। पिछली लोकसभा में अनंतनाग सीट मई 2019 तक करीब तीन बरस खाली रखने और सुरक्षा के नाम पर वहां उपचुनाव नहीं कराने के स्पष्ट अलोकतांत्रिक कदम से लेकर अनेक बातों का उल्लेख हम पिछले अंकों में कर चुके हैं।

बहरहाल, निर्वाचन आयोग के अलावा केंद्र सरकार ने भी चुनावी तैयारियों के लिए अपनी तरफ से आवश्यक कदम उठाने पर विचार-विमर्श शुरू कर दिए हैं। राज्य विधानसभा भंग है। वहां लागू राष्ट्रपति शासन की मौजूदा अवधि 19 जून को समाप्त होने वाली है। राष्ट्रपति शासन की अवधि बढ़ाने का काम नई लोकसभा का गठन हो जाने के बाद संसद के 17 जून से 26 जुलाई तक बुलाये जा रहे बजट सत्र में पूरा हो जाने की संभावना है।

बताया जाता है कि भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष एवं नए केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह,  विधानसभा चुनाव से पहले जम्मू-कश्मीर में निर्वाचन क्षेत्रों का नए सिरे से परिसीमन  कराना चाहते हैं। गृहमंत्री ने जम्मू-कश्मीर के मुद्दों पर विचार-विमर्श के लिए हाल में सचिव स्तर की बैठक के बाद कुछ केंद्रीय मंत्रियों के साथ भी बैठक की। उनकी जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सतपाल मालिक के साथ अलग से बैठक हो चुकी है। वह इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक राजीव जैन तथा गृह सचिव राजीव गाबा से भी गहन विमर्श कर चुके हैं। गृहमंत्री के जल्द राज्य का दौरा करने की संभावना है लेकिन परिसीमन जटिल कार्य है। उसमें कुछ वैधानिक खुरपेंच भी हैं, जिनकी चर्चा हम इस अंक में बाद में करेंगे। पहले कुछ और बातें जिनमें लद्दाख की चर्चा भी है।

लद्दाख

मोदी सरकार 2.0 के समक्ष लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से पृथक कर केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा देने की मांग भी विचाराधीन बतायी जाती है। लद्दाख देश का सबसे बड़ा संसदीय निर्वाचन क्षेत्र है। पिछली लोकसभा में लद्दाख से भाजपा सदस्य थुप्स्तन छेवांग ने इसे केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा नहीं दिए जाने के विरोध में सांसद पद और पार्टी से भी नवंबर 2018 में इस्तीफा दे दिया था। उनके अनुसार भाजपा ने चुनावी वादा किया था कि वह सत्ता में आने के छह माह के भीतर लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दे देगी। इस बार के आम चुनाव में भी लद्दाख से भाजपा के ही प्रत्याशी जम्यांग त्सेरिंग नामग्याल चुने गए हैं। जम्मू-कश्मीर का 58.33 प्रतिशत क्षेत्रफल लद्दाख का है लेकिन राज्य की दो प्रतिशत से कुछ ही ज्यादा आबादी लद्दाख की है। वहां करीब  46 प्रतिशत मुस्लिम, 39 प्रतिशत बौद्ध और 12 फीसदी हिन्दू समुदाय के लोग हैं। लद्दाख में एक ही लोकसभा सीट और चार विधानसभा सीटें हैं।

पिछला विधानसभा चुनाव

विधानसभा के नवम्बर-दिसंबर 2014 में हुए पिछले चुनाव में किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। तब भाजपा ने अप्रत्याशित रूप से दिवंगत पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के साथ मिलकर सरकार बनाई थी। उनके निधन के बाद उनकी पुत्री महबूबा मुफ़्ती 4 अप्रैल 2016 को पीडीपी-भाजपा गठबंधन की दूसरी सरकार की मुख्यमंत्री बनीं। दोनों दलों के बीच कभी कोई चुनावी गठबंधन नहीं रहा। दोनों ने सिर्फ सत्ता पर काबिज होने के लिए चुनाव-पश्चात का गठबंधन किया, जो अगले चुनाव के पहले ही टूट गया।

प्रेक्षकों का कहना है कि भाजपा इस गठबंधन की सरकार के रहते हुए 2019 के आम चुनाव में उतरने का जोखिम नहीं लेना चाहती थी क्योंकि यह सरकार मतदाताओं के बीच ध्रुवीकरण बढ़ाने के उसके सियासी मंसूबों की कामयाबी में रोड़ा बन गई थी। भाजपा ने अपनी ही सांझा सरकार गिरा दी। महबूबा मुफ़्ती सरकार का 19 जून 2018 को पतन हो गया। यह सरकार गिर जाने के बाद जम्मू-कश्मीर के विशेष संविधान के अनुच्छेद 92 के तहत राज्यपाल शासन लागू किया गया। इसके छह माह बाद 19 दिसंबर 2018 की मध्य रात्रि से वहां राष्ट्रपति शासन लागू है।

राज्यपाल की अनुशंसा पर विधानसभा तब भंग कर दी गई थी जब महबूबा मुफ्ती ने कांग्रेस तथा पूर्व मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस के समर्थन से नई सरकार बनाने का दावा पेश करने की घोषणा कर एक पत्र फैक्स से राजभवन प्रेषित कर दिया। राजभवन का कहना था कि उसे ऐसा कोई फैक्स नहीं मिला। दो विधायकों की पार्टी पीपुल्स कांफ्रेंस के प्रमुख सज्जाद लोन ने भी  भाजपा और कुछेक अन्य विधायकों का समर्थन प्राप्त होने का दावा कर नई सरकार बनाने की कोशिश शुरू कर दी।

राज्यपाल मलिक ने नई सरकार बनाने की प्रक्रिया में विधायकों की खरीद-फरोख्त होने की आशंका व्यक्त कर विधानसभा को भंग करना श्रेयस्कर समझा। कुल 89 सीटों की विधानसभा में उसे भंग किये जाने के वक़्त पीडीपी के 29, भाजपा के 25, नेशनल कॉन्फ्रेंस के 15, कांग्रेस के 12 और जम्मू-कश्मीर पीपुल्स कॉन्फ्रेंस दो विधायक के अलावा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी तथा जम्मू-कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट के एक-एक  और तीन अन्य अथवा निर्दलीय सदस्य थे। सदन में दो सीट मनोनीत महिला सदस्यों की है।

मिशन कश्मीर

भाजपा ने इस बार के लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में कश्मीर से धारा 370 और 35ए को हटाने के मुद्दे को शामिल किया था। वह अरसे से इन्हें समाप्त करने की मांग करती रही है। विपक्षी दल और खास कर राज्य की क्षेत्रीय पार्टियां इसके खिलाफ हैं लेकिन भाजपा 2014 के पिछले चुनाव की तरह इस बार भी लोकसभा की तीन सीटें- जम्मू, उधमपुर और लद्दाख जीत लेने के बाद उत्साहित है। तीन अन्य  सीटें- अनंतनाग, बारामुला और श्रीनगर नेशनल कांफ्रेंस ने जीती है। बताया जाता है कि भाजपा इस मुस्लिम बहुल राज्य में किसी हिन्दू को मुख्यमंत्री बनाने का अपना पुराना सपना साकार करना चाहती है। मुख्यमंत्री पद के लिए भाजपा के दावेदारों में केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह और निवर्तमान विधानसभा अध्यक्ष निर्मल सिंह शामिल बताये जाते हैं।

इस बार के चुनाव में राज्य में सर्वाधिक करीब तीन लाख मतों के अंतर से उधमपुर से निर्वाचित जितेंद्र सिंह, जम्मू-कश्मीर के संविधान में परिवर्तन लाने के मुखर पक्षधर हैं ताकि अन्य बातों के अलावा विधानसभा का कार्यकाल घटा कर पांच वर्ष ही किया जा सके। वह मोदी जी की पिछली सरकार में भी  मंत्री थे। उन्होंने इस बार मंत्री बनने के बाद राज्य की अपनी पहली यात्रा में अपनी बात पर फिर जोर दिया। उनकी बात अमित शाह के मिशन कश्मीर का हिस्सा लगती है।

खुरपेंच

परिसीमन का कार्य आसान नहीं है। केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर के संविधान में संशोधन लाये बिना राज्य में परिसीमन करने के लिए अधिकृत नहीं है। वर्ष 1934 में पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर रियासत के राजा हरि सिंह के शासन में तब के विधायी निकाय, प्रजा सभा के लिए प्रथम चुनाव से पहले वहां का एक संविधान बना था। इस रियासत का बाद में भारत में विलय हो  गया। 1957 में भारत के संविधान से अलग और कश्मीर के 1934 के ही संविधान पर आधारित राज्य के नए संविधान के प्रावधानों के तहत कायम विधानसभा के चुनाव छह बरस पर कराये जाते हैं। जम्मू-कश्मीर के 20 वें संविधान संशोधन (1988) के जरिये विधानसभा की सीटों की संख्या 111 कर दी गयीं। इनमें से 24 पाकिस्तान अधिकृत हिस्से में हैं जहां  राज्य के संविधान की धारा 48 के तहत चुनाव कराने की अनिवार्यता नहीं है। इसलिए सदन की प्रभावी सीटें 89 ही हैं जिनमें 46 सीटें कश्मीर घाटी में, 37 जम्मू में और चार लद्दाख  में हैं।

तब बनी शेख अब्दुल्ला सरकार के कार्यकाल में विधानसभा की 43 सीटें कश्मीर घाटी और 30 सीटें जम्मू संभाग के लिए आवंटित की गईं। बाद में कश्मीर के लिए 46, जम्मू के लिए 37 और लद्दाख के लिए 4 सीटें कर दी गईं। वर्ष 2011 की पिछली जनगणना के मुताबिक राज्य के 25.93 प्रतिशत क्षेत्रफल में फैले जम्मू संभाग की आबादी राज्य की 42.89 प्रतिशत है। कश्मीर संभाग राज्य के 15.73 प्रतिशत क्षेत्रफल में फैला है और उसकी आबादी का हिस्सा 54.93 प्रतिशत हैं। शेष क्षेत्रफल और आबादी लद्दाख की है। जम्मू की आबादी में 62.55 प्रतिशत वाले डोगरा समुदाय तथा कश्मीर की आबादी में 96 प्रतिशत वाले मुस्लिम समुदाय का प्रभुत्व है। अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सभी सात निर्वाचन क्षेत्र जम्मू संभाग में हैं। अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई सीट आरक्षित नहीं है जबकि वे कश्मीर  संभाग में मौजूद हैं।

संविधान संशोधन

राज्य में गुलाम नबी आज़ाद सरकार के कार्यकाल में तीनों भौगौलिक क्षेत्रों में विधानसभा की सीटें 25 प्रतिशत बढ़ाने का प्रस्ताव किया गया जिससे सदन में कुल 22 सीटों की वृद्धि हो सकती थी लेकिन संविधान में संशोधन लाने के वास्ते इस सरकार को विधानसभा में दो-तिहाई बहुमत हासिल नहीं था और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने प्रस्ताव का विरोध किया। नतीजतन परिसीमन का खुरपेंच वहीं अटक गया।

अब लगता है कि अमित शाह ने वो खुरपेंच ठीक करने की ठानी है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने  परिसीमन के बारे अधिकृत रूप से अभी कोई खुलासा नहीं किया है लेकिन जानकार लोगों का कहना है कि अमित शाह के ‘मिशन कश्मीर’ में राज्य में कश्मीर का राजनीतिक प्रभुत्व कम करने का इरादा है। भाजपा के असर वाले जम्मू में परिसीमन की मांग लम्बे अरसे से उठती रही है। नए परिसीमन से क्षेत्रफल तथा मतदाता के आधार पर सीटें जम्मू संभाग में बढ़ सकती हैं और कश्मीर में कम हो सकती हैं।

राज्य में 1993 में तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन के कार्यकाल में तदर्थ परिसीमन हुआ था।  बाद में 1995 में रिटायर जस्टिस केके गुप्ता कमीशन द्वारा पूर्ण परिसीमन तब किया गया जब वहां राष्ट्रपति शासन था। अगला परिसीमन 2005 में होना था लेकिन 2002 में तत्कालीन फारूक अब्दुल्ला सरकार के कार्यकाल में जम्मू -कश्मीर संविधान (1957) के तहत लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 47(3) में संशोधन लाकर परिसीमन पर 2026 तक रोक लगा दी गई। बताया जाता है कि जम्मू-कश्मीर संविधान (1957) के तहत राज्यपाल को धारा 47(3) में संशोधन करने का अधिकार है। सरकार की तरफ से तो कुछ नहीं कहा गया है लेकिन भाजपा के प्रदेश सचिव अशोक कौल की बातों से स्पष्ट संकेत मिले हैं कि उनकी पार्टी का मिशन कश्मीर चालू है। उन्होंने प्रस्तावित परिसीमन का स्वागत करते हुए कहा कि यह ‘संवैधानिक आवश्यकता’ है जिसे पूरा करने का यह उचित अवसर है।

विरोध

इस बार के चुनाव में अनंतनाग में हार गईं पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने राज्य में प्रस्तावित परिसीमन का विरोध किया है। पूर्व मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला का कहना है कि जब भाजपा पूरे देश में एकसमान क़ानून लागू करने, जम्मू-कश्मीर से धारा 370 और 35ए को हटाने की बात कहती है तो उसकी सरकार को राज्य में परिसीमन भी तभी करनी चाहिए जब वह पूरे देश में हो। ओमर अब्दुल्ला 2008 के विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के साथ गठबंधन की सरकार में जनवरी 2009 से 2014 के पिछले विधानसभा चुनाव तक मुख्यमंत्री रहे थे। वह पूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला के पुत्र हैं और 2002 में उनकी जगह पार्टी अध्यक्ष बन चुके हैं। फारूख अब्दुल्ला इस बार भी श्रीनगर से लोकसभा सदस्य निर्वाचित हुए हैं।

भारत में परिसीमन

भारत में आम तौर पर प्रत्येक जनगणना के बाद संसदीय एवं विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं का परिसीमन किया जाता रहा है ताकि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत में वोटरों की संख्या कमोबेश एक जैसी रहे। यह कार्य संविधान की धारा 82 के अनुसार पारित परिसीमन अधिनियम के तहत गठित किये जाने वाले परिसीमन आयोग के जरिये किया जाता है। परिसीमन आयोग के आदेश बाध्यकारी हैं और उन्हें अदालती चुनौती नहीं दी जा सकती है।  आयोग के अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान या अवकाश प्राप्त न्यायाधीश होते हैं। इसके सदस्यों में निर्वाचन आयोग के प्रतिनिधि के अलावा सम्बंधित राज्य के पांच-पांच सांसद और विधायक भी होते हैं।

पहला परिसीमन आयोग 1952 में बना था। वर्ष 2002 तक हर दशक में ऐसे आयोग गठित किये जाते रहे। वर्ष 2002 में भाजपा के ही नेतृत्व वाली अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में यह कह कर संविधान में संशोधन कर निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन पर 2026 तक के लिए रोक लगा दी गई कि तबतक सभी राज्यों में आबादी वृद्धि में एकरूपता आ जाएगी। इस रोक के कारण ही तब से लोकसभा की सीटों में वृद्धि नहीं हुई है।

बहरहाल, अब देखना है कि गृहमंत्री अमित शाह अपने मिशन कश्मीर में क्या गुल खिलाते हैं और विधानसभा के नए चुनाव के पहले परिसीमन कैसे और कितनी जल्दी पूरा कराने में कामयाब होते हैं।


लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं और मीडियाविजिल के लिए मंगलवारी स्‍तंभ चुनाव चर्चा लिखते हैं