15 अगस्त को एक स्वतंत्रता सेनानी के बेटे की अरज: रखियो, ग़ालिब मुझे इस तल्ख़नवाई में मुआफ़!


निश्चित ही आज के पावन दिन, ‘ हम तल्ख़ी-ए-कलाम  पर माइल ज़रा न थे ‘ पर अब वाकई  सहा नहीं जाता, ‘ अंधेरे में ह्रदय के संदेही शंकाओं के आघात हैं।’  मेरे देश को ये मृत्यु उपत्यका बनाने पर आमादा हैं… | … हे महान 15 अगस्त… मेरे महबूब… मुझसे पहली सी  मोहब्बत न मांग!  हम  सभी इस चमन के बुलबुल हैं पर ये इस गुलशन को गुलख़न ( भट्टी) बनाये दे रहे हैं


मनोहर नायक मनोहर नायक
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रखियो , ग़ालिब, मुझे इस तल्ख़नवाई में मुआफ़
आज  कुछ  दर्द मिरे दिल  में  सिवा  होता  है..

पंद्रह अगस्त हो या छब्बीस जनवरी  इनको और इनसे जुड़ी चीज़ों, रस्मों को लेकर इधर बरसों से बेगानापन बढ़ता ही गया है…और पिछले सात साल से तो समय कहर सा गुज़र रहा है… गोकि बाहर शहर और शहरों में चकाचौंध  और अफरातफरी है, मॉलों में मौज है, रेस्तरांओं में व्यंजन और भीड़ भरपूर है, खाते- पीते लोग ख़ूब पर्यटनशील हैं… चीखते बैंडबाजे हैं, इतराती  बारातें हैं… महामारी की आशंका बलवान है, पर सब कुछ लिमिट पार है … फ़ेसबुक पर या इतर  पारिवारिकता का प्रसार है, निज गौरव से मुदित अपनों का गुणगान है, एलबम और अपना विशेषांक है, पूरा कुनबा  दोस्तों पर मेहरबान है … अरे ‘इनका’ भी दिन आज महान है , बेटे-बेटी, बहू- दामाद को भी  असीसने का पुटियाता  इसरार है … रोज़ बदलती अदाएं  हैं , यहां से वहां की छलांग है… गनीमत कि शोक अभी  ज़्यादा नि:शब्द, कम वाचाल है… जयंतियों  की तो स्थायी वंदनवार है… वैसे , अपने घर – परिवार में भी संतोषजनक उजास है, बेटे -बेटियां सामान्यतः  ख़ुशहाल हैं… मेलमिलाप, त्योहार है… लगभग इत्मीनान है… लगता है मार तमाम बरबादी के बाद  यह सब  कुछ  ज़्यादा ही इफ़रात है… गोया  तबाही के पीठ पीछे गहरी ओमनादकारी आत्मजयी डकार है…  यह सब भी दिल को डुबोता जाये है… इस मस्ती के आलम में भी पस्ती भीतर पैठी  जाये  है… कुछ टूटते जाने की गहन- सी अनुभूति है…! … ख़ैर, जहान तो अपने तौर ही चलेगा , लेकिन अंदरख़ाने का हाल यह है कि इन मोदी – बरसों में चौतरफ़ा ध्वंस  और उस पर राष्ट्रीयता के तूर्यनाद से कान पक गये,  आंखें थक गयीं ,जी भर गया  और मन ऊब गया है.. . इस दिन के लिये शुभकामनाओं से ह्दय भरा हुआ है पर ओरछोर उत्साहहीनता है … जुनूने- इश्क़ की हिम्मत जवान थी जिनसे / वो आरज़़ुएं कहाँ  सो गयीं, मेरे नदीम |

बचपन  राष्ट्रीयता से ओतप्रोत और उसके प्रेम में पगा हुआ था …. घर के माहौल में राष्ट्रीय आंदोलन की मिठास थी… बैठक नेताओं के चित्रों से सज्जित थी… गांधी- नेहरू- विनोबा – जयप्रकाश- लोहिया घर के बुज़ुर्गों की तरह आत्मीय थे…. पोनी -तकली- चरखा के साथ खादी का अंतहीन विस्तार था | स्वतंत्रता सेनानी पिता गणेश प्रसाद नायक और संगीतज्ञ मां गायत्री नायक का मान था… पिता के सेनानी और राजनीतिक यशस्वी मित्रों का सुह्रद घेरा था… उस दौर के किस्से ही किस्से थे… मन मुग्ध था और ह्रदय विभोर | पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी का घर -बाहर जीवन में बड़ा अर्थ था…. इन दिवसों पर  उल्लास  और उत्साह उमड़ता था  , उम्मीद जगमगाती थी … लाउडस्पीकर पर बजते देशभक्ति के गाने प्रेम की हिलोरें उठाते थे… ध्वजारोहण के बाद स्कूलों में बूंदी खाते थे …. | देश की बदलती आबोहवा के साथ यह उमंग शिथिल पड़ती गयी… पर इन दिवसों  का मान ऊंचा रहा, निजी तौर पर स्वतंत्रता सेनानी परिवार का होने सुख अक्षुण्ण  रहा आया … फिर वह समय आया जिसे मोहभंग का दौर कहा गया और 15 -26 के दिवस सुबह-सुबह स्मृति के हल्के झोंके के साथ  बिना गाये-बजाये आते- जाते गये,  उनमें औपचारिकता भरती गयी |

इस समय जो सरकार है राष्ट्रवाद उसकी ढाल व तलवार है… उसने  इसके बांध के सभी गेट सटाक खोल दिये  हैं,  जनता डूब – उतरा रही है और राष्ट्रगान बज रहा है… ‘ एक गाना जो गाया नहीं होगा किसी ने / क़ैदी से छीनकर गाने का हक़ दे दिया होगा / वह गाना कि उसे जब चाहो तब नहीं जब वह बजे तब सुनो / बार बार एक एक अन्याय के बाद वह बज उठता है। ‘ … राष्ट्रवाद निरंतर पुरज़ोर बज रहा है …  पर अब भले देशप्रेम की कर्री मार हो पर  इस बार का स्वाधीनता- दिवस विशेष है, क्योंकि यह पचहत्तरवां है ,हीरक जयंती वाला! … पर क्या  करें कि जश्न की  कोई प्रेरणा  ही नहीं | … पिछले सालों पर ये सात साल बहुत भारी पड़े हैं, बहुत मटियामेट हो चुका है, आगे की आशंकाएं भयावह है , धूमिल के शब्दों में कहें तो, ‘ मेरा डर चर रहा है मुझे ।’  हम थक चुके  हैं  या फिर धूमिल के शब्दों में ही , ‘ क्या आज़ादी तीन थके हुए रंगों का नाम है / जिसे एक पहिया ढोता है ‘ …  इतनी बड़ी तारीख़ को जानते हुए भी दिल है कि मानता  नहीं…. नागरिक स्वतंत्रताएं जब ख़त्म की जा रही  हों , उन पर ख़तरा लगातार बढ़ रहा हो, जब पचहत्तर वर्षों की लोकतंत्री, संसदीय और संवैधानिक विरासत व परम्पराओं को सोच-समझकर ध्वस्त किया जा रहा हो… यह आज़ादी, यह संसद, विधि-विधान-व्यवस्था आख़िर उस जनता के  लिये ही तो है जो घोर अरक्षित, दंडित, प्रताड़ित है, जिसे ज़हर से  विभाजित किया और लड़ाया जा रहा हो… ऐसे में कैसा स्वतंत्रता दिवस! पुराने दिनों,  उसके किस्सों और जज़्बे को याद कर के ही कुछ रोमांचित – रोमानी हो लिया जाये… पर यह भी मेरे जैसे के, बूते से बाहर है , जिसके पिता की जेल डायरी के शुरू में  ही आराइशी लिखावट में लिखा था ‘ टु लिव फ़ॉर एन आइडिया, टु डाई फ़ॉर अ कॉज ‘ …. जो मुझसे कहा करते थे ,  ` अरे मनोहर ये चाइल्ड ऑफ़ रेवोल्यूशन हमीं लोग तो हैं। ‘ .. इन सात सालों में नफ़रती, संवैधानिक, संसदीय, लोकतांत्रिक इतना मलबा फैल गया है कि उसके  पार अतीत के स्वप्नलोक में जाना  क्या झांकना भी बेहद यंत्रणापूर्ण है… और  फिर उसका फ़ायदा भी क्या… उससे क्या होने जाने वाला क्या ! …  यादों के गरेबानों के रफ़ू पर / दिल की गुज़र कब होती है / एक बखिया उधेड़ा , एक सिया / यूँ उम्र बसर कब होती है… !

तो आज पंद्रह अगस्त को मन वह सब भव्य और यादगार चीज़ों को  नहीं याद कर रहा जिन्हें आमतौर पर याद किया जाता है, वह  उसके भयावह हादसों को याद कर रहा है … किसी विचारक का यह कथन पढ़ा था कि अपने देश की बदहाली, व्यथा, दुर्भाग्य, बेबसी को कातरता से याद करने के पीछे  प्रेम   ही कारण  होता है…  पिछले दो साल के  जनता की अपार पीड़ा, अवमानना के दृश्य चलचित्र की तरह  दिल – दिमाग़ में घूम जाते हैं… मजदूर हों या  किसान या कश्मीर के अभागे लोग, या असहाय कोरोना के हज़ारों हज़ार  मरीज…  इस सबको देखते रहना भी अपने पर कैसा ज़ुल्म था और याद करना कैसा सितम है… ‘ रुलाई गुप्त कमरे में ह्रदय के उमड़ती सी है ‘ … तो इस महान दिवस को इस बार इस व्यथित प्रेम का ही अर्पण सम्भव है। … वो कथित निकम्मे – निठल्ले सत्तर  साल अपनी तमाम बदमाशियों, फ़रेबों, जालसाज़ियों,  षड़यंत्रों कमियों-सीमाओं के बावजूद इतने भले तो थे कि अपनी बात कही जा सकती थी , लड़ा जा सकता था, आवाज़ उठायी जा सकती थी जो संसद और महत्वपूर्ण संस्थाओं और जगहों पर गूंजती और सुनी भी जाती थी… ख़बरदार अख़बार संसद में लहराते भी थे… मेलमिलाप, भाईचारे धर्मनिरपेक्षता की बातों में सार्थकता दिखती थी और ‘ लब पे हर्फ़े ग़ज़ल दिल में कंदीले ग़म’ वाला दौर ज़माने में सांस ले रहा था… पर देखते ही देखते साम्प्रदायिकता ने तीन डग में हिंदुस्तान नाप लिया… बाबरी ध्वंस, गुजरात नरसंहार और 2014 की जीत… 75-84 के घोर आलोचकों ने मौक़ा मिलते ही दोनों को एकमेक  कर दिया… ‘  हवा में फड़फड़ाते हिंदुस्तान के नक्शे पर गाय ने गोबर कर दिया। ‘

देश ने इन सात सालों में जो भुगता है वह दोहराने की ज़रूरत नहीं.. जो हो रहा है वह वे कर चुके हैं, वे उसे दोहराते रहने वाले हैं…  ” रोज़ाना नयी आफ़त, नयी वारदात  का आघात है ‘ … संघ-सरकार के लिये क्या गीत क्या ग़ज़ल, क्या कंदील और क्या ग़म… उन्होंने अपने लोगों के मुंह में गालियाँ और हाथों में मशाल दे रखी है, रोशनी नहीं आग भड़काने और धुंए के लिये… आप देखिये फिर फिर वही घटनाएं होती हैं… दिल्ली में हरिजन बच्ची से बलात्कार और उसकी हत्या, जंतर मंतर पर भाजपाई जमात द्वारा मुसलमानों के ख़िलाफ़ हत्यारे नारे, दिल्ली के ही द्वारका में हज हाउस के विरुद्ध नारेबाज़ी  कानपुर में एक मुसलमान से जय श्रीराम बुलवाने के लिए उसकी पिटाई , जंतर-मंतर पर तो एक पत्रकार  के साथ यही ज़बरदस्ती… सड़क से संसद तक सबको दोहराता जाता देखिये…  फ्लैश बैक की तरह … किसान बिल, 370 वाला बिल ऐसे  ही पारित हुए थे जैसे  कुछ विधेयक मानसून सत्र में हुए और जिन्हें दही-पापड़ी और धोखला  की तरह तैयार कर पास करना  बताया गया|   राज्यसभा में आने वाले  दिनों की झलक दिखा दी गयी है!

ऊपर धूमिल के अलावा फ़ैज़, मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय की काव्य पंक्तियाँ उद्धृत हैं…. मुक्तिबोध और सहाय जी आगे आने वाले समय को पहचानने वाले कवि हैं | अभी असम और पड़ोसी राज्य मणिपुर मरने मारने पर उतारू थे, वहाँ दोनों की सीमा पर केन्द्रीय सुरक्षा बल तैनात हुए तो बरबस रघुवीरजी की पंक्ति याद आयी, ‘ केन्द्रीय पुलिस भारत की एकता ।’ पैगासस  जासूसी मामले पर फ़ैज़ याद आये, ‘ हर सदा पर लगे हैं कान यहाँ / दिल संभाले रहो ज़ुबां की तरह।`  सहायजी हमें इस ‘लज्जित और पराजित युग’ के बारे में  सचेत करते हैं जिसमें, ‘ एक दिन ऐसा आयेगा… कि किसी की कोई राय न रह जायेगी…. क्रोध होगा पर विरोध न होगा’| एक  विद्वान का कथन है कि, ‘ मेरे शरीर पर उन लड़ाइयों के भी  घाव हैं जो मैंने नहीं लड़ीं ‘… रघुवीरजी हमारी इस लाचारी  पीड़ा, शर्म  को अनेक तरह से  व्यक्त करते हैं… एक कविता में ऐसा कुछ आता है कि, एक दिन वे सारी लड़ाइयां / अपना हिसाब मांगने आयेंगी / जो मैंने नहीं लड़ीं | या, मुझे कुछ और करना था/  पर में कुछ और कर रहा हूँ…  इसी कविता में वे कहते हैं , ‘ पांच राज्यों के अकाल में जीवित रह  जाने की शर्म ढोते हुए। ‘

मुक्तिबोध के यहाँ तो जैसे आज के समय  की एक एक हरकत  है…  ‘अंधेरे में ‘ कविता में ‘ क्या शोभायात्रा / किसी मृत्त्य-दल की ‘  को याद कीजिये जिसके चमकदार बैंड-दल में ‘ … लोगों के चेहरे /मिलते हैं मेरे देखे हुओं से / लगता है उसमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार ‘ … इस शोभायात्रा में कर्नल, जनरल, मार्शल के साथ , ‘ कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक,  जगमगाते कविगण/ मंत्री भी, उद्योगपति, विद्वान / यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात / डोमाजी उस्ताद ‘ भी शामिल है … आगे की पंक्तियाँ हैं, ‘ भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब / साफ़ उभर आया है/ छुपे हुए उद्देश्य / यहाँ निखर आये हैं, / यह शोभायात्रा है किसी मृत्यु- दल की’ |  मुक्तिबोध के काव्यांश में कहें तो हम पर ‘ रात के जहांपनाह’ का शासन है   ‘ सब हैं क़ैद उसके चमकते तामझाम में ‘ और वह भी ख़ूब है, ‘ दोनों ओर पैर फंसा रखे है / राम और रावण को ख़ूब ख़ुश  ख़ूब हंसा रखा है ‘ | अलकिस्सा यह है कि, ‘ दिन के उजाले में भी अंधेरे की साख है / इसलिए संस्कृति के मुख पर / मनुष्यों की अस्थियों की राख है / ज़माने के चेहरे पर / ग़रीबों  की छातियों की खाक है ‘ ! ये स्थितियां अब चरम पर पहुँच रही हैं |

निश्चित ही आज के पावन दिन, ‘ हम तल्ख़ी-ए-कलाम  पर माइल ज़रा न थे ‘ पर अब वाकई  सहा नहीं जाता, ‘ अंधेरे में ह्रदय के संदेही शंकाओं के आघात हैं।’  मेरे देश को ये मृत्यु उपत्यका बनाने पर आमादा हैं… | … हे महान 15 अगस्त… मेरे महबूब… मुझसे पहली सी  मोहब्बत न मांग!  हम  सभी इस चमन के बुलबुल हैं पर ये इस गुलशन को गुलख़न ( भट्टी) बनाये दे रहे हैं…मेरी बात चचा ग़ालिब के शब्दों में सुन लीजियो :
महब्बत थी चमन से, लेकिन अब यह बेदिमाग़ी है
कि मौज- ए- बू- ए- गुल से नाक में आता है दम मेरा

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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