शहादत दिवस: शोषित-वंचित-पिछड़ों की आवाज थे ‘भारत लेनिन’ बाबू जगदेव प्रसाद !

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भारत लेनिन जगदेव प्रसाद (फ़रवरी 02, 1922 – सितम्बर 05, 1974) एक क्रन्तिकारी व्यक्तित्व थे. यह उनका व्यक्तित्व और कृतित्व ही था कि दूसरे राज्यों के आन्दोलनरत साथी उनको अपने कार्यक्रमों में बुलाते, उनसे विचार-विमर्श करते और उनसे आवश्यक दिशा-निर्देश प्राप्त करते थे. उनका प्रभाव पूरे उत्तर भारत में सर्वमान्य था. यह उनके क्रन्तिकारी विचारों का ही प्रभाव था कि अमेरिकी और रुसी इतिहासकारों और पत्रकारों ने उनके साक्षात्कार को अपने-अपने देशों में छपा और बताया कि भारत के सवर्ण समुदाय भारत को जैसा दिखाते है और बतातें हैं वैसा नहीं है. भारत लेनिन जगदेव प्रसाद भारत को सच्चे अर्थो में सर्वहारा की दृष्टि से देखते थे. जबकि उनका आरोप था कि मार्क्सवाद में कोई समस्या नहीं है बल्कि समस्या भारतीय मार्क्सवाद में है, जिसकी जड़ें सवर्णवाद और ब्राह्मणवाद में है, क्योंकि, उन्हीं लोगों ने इसपर अपना कब्ज़ा जमा लिया है.

भारत लेनिन जगदेव प्रसाद के बढ़ाते प्रभावों को देखते हुए यह सहज ही कहा जा सकता है कि वह दिन दूर नहीं था जब पूरे भारत में उनका प्रभाव होता.

शोषित वंचित पिछड़े और बेसहारों की वो प्रमुख आवाज थे. यही कारण है कि शोषक जाति के रूप में भूमिहारों ने उनकी हत्या उस समय कर दी जब वो भाषण दे रहे थे.

भारत लेनिन जगदेव प्रसाद भारत के पहले जननायक थे जिनकी हत्या उस समय हुई जब वो भाषण दे रहे थे. भारत में भाषण देते समय दूसरी हत्या चंद्रशेखर उर्फ चंदू की हुई थी. चंद्रशेखर जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष रहे थे. इनकी हत्या भी उन्हीं ताकतों ने की थी जिन्होंने जगदेव प्रसाद की थी. यह महज संयोग नहीं है कि दोनों ही एक ही समुदाय से आते हैं. बल्कि सच यह है कि इस समुदाय और समाज ने सामाजिक न्याय के लिए अपनी अनेकों कुर्बानियां दी हैं.

भारत लेनिन जगदेव का व्यक्तित्व बहुत विशाल था, उनके बारे में एक लेख में सब कुछ कहना असंभव है. एक मोटा ग्रंथ लिखना पड़ेगा और हो सकता है वह भी कम पड़ जाए. इसलिए इस लेख में मैं शिक्षा पर उनके विचारो के एक अंश पर विचार कर उसे उद्धृत करना चाहूँगा.

शिक्षा पर उनका विचार, सबकी भागीदारी पर था. उनका कहना था शिक्षा पर सबको बराबर का अधिकार है. चाहे वह छात्र के रूप में हो या शिक्षक के रूप में. उनका सपना शिक्षा का सर्वव्यापीकरण और लोकतांत्रीकरण करना था.

यह अकारण नहीं था कि जब राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फुले स्कूल पढ़ाने जाती थीं तब द्विज/ सवर्ण समाज उनपर गोबर और कीचड़ फेकते थे. यह अकारण नहीं है कि जब अंग्रेजों ने शिक्षा को सार्वभौमिक (universalisation of education) करने की कोशिश की तब द्विज/ सवर्ण समाज ने उसका विरोध किया. (इस विषय पर ज्यादा जानकारी के लिए पढ़े – Foundations of Tilak’s Nationalism Discrimination. Education and Hindutva, by Prof. Parimala V. Rao, Orient BlakSwan, 2010). भारत में आज भी शिक्षा को सार्वभौमिक करने का प्रयास अंग्रेजों (असल में यूरोप और अमेरिका) के सहयोग से ही चल रहा है.

आधुनिक भारत के निर्माता डा. आंबेडकर ने कहा था “भारत एक राष्ट्र नहीं है राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर है”. उनके इस कथन को आज भी सच देखते हुए मुझे ख़ुशी नहीं हुई. बेहतर होता कि उनका यह कथन उनके जीवन काल में ही अप्रासंगिक और झूठा हो जाता.

एक स्वतः उठने वाला स्वाभाविक सवाल है कि सवर्णों की राष्ट्रीयता क्या है? उनकी राष्ट्रीयता को स्वर्ण जातीय वर्चस्व के रूप में समझ सकतें हैं. उनकी मनुस्मृति भी यही कहती है. उनके हिन्दू शास्त्र और धर्म-शास्त्र भी यही कहते हैं. इन्हीं परिस्थितियों में भारत लेनिन जगदेव प्रसाद कहते हैं “राष्ट्रीयता और देशभक्ति का पहला तकाजा है कि कल का भारत नब्बे प्रतिशत शोषितों का भारत बन जाए” (बोकारो, अक्टूबर 31, 1969, देखें ‘जगदेव प्रसाद वांग्मय’ द्वारा डा. राजेंद्र प्रसाद और शशिकला, सम्यक प्रकाशन, 2011). उनकी यह मांग सिर्फ सरकारी नौकरियों तक ही सीमित नहीं थी. उनकी मांग थी “सामाजिक न्याय, स्वतंत्रता और निष्पक्ष प्रसाशन के लिए सरकारी, अर्द्ध सरकारी और गैर-सरकारी नौकरियों में कम-से-कम 90 सैकड़ा जगह शोषितों के लिए सुरक्षित किये जाएं” (बिहार विधान सभा, अप्रैल 02, 1970). साथ ही “राजनीति में (भी) विशेष अवसर सिद्धांत लागू हो” (रुसी इतिहासकार पाल गार्ड लेबिन से साक्षात्कार, फ़रवरी 24, 1969). यह उनकी राष्ट्रीयता थी.

भारत लेनिन जगदेव प्रसाद एक दूरदृष्टा थे– जो वो आज से लगभग 50 साल पहले कह रहे थें, और उसपर अमल कर रहे थे. उसे आज के सामाजिक न्याय के ठेकेदार ने आजतक नहीं समझा या समझना नहीं चाहते.

बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर का कहना सही था कि भारत एक राष्ट्र न होकर कई राष्ट्र है. भारत की एक राष्ट्रीयता इसकी दूसरी राष्ट्रीयता को हेय दृष्टी से देखती है, नीची नज़रों से देखती है, उसे दूसरे दर्जे का नागरिक समझती हैं, या उसे नागरिक ही नहीं समझती है. उसे इन्सान ही मानने को तैयार नहीं है. जगदेव प्रसाद ने उनकी इन्हीं राष्ट्रीयताओं की चुनौती दी थी. जगदेव प्रसाद भारत के पहले नेता थे जिन्हें सवर्णों/ सामंतो ने भाषण देते समय गोली मार दी थी.

लेकिन मौलिक सवाल यह है कि सवर्णवादी वर्चस्व को कैसे चुनौती दिया जाए? गौतम बुद्ध, राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फुले, राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले सभी शिक्षा पर बल देते हैं. बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भी शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन के लिए सर्वोपरि माना है.

शिक्षा सिर्फ पढ़ने-लिखने की काबिलियत नहीं देती, बल्कि वह सोचने-समझने की क्षमता भी बढ़ती है. वह समाज को नए दृष्टि से देखती है. समाज के वास्तविक समस्याओं को समझती है और उसके समाधान भी सुझाती है. आज सिर्फ हमारे समाज ही नहीं बल्कि पूरे पिछड़ा-वंचित-शोषित समाज की ही असली समस्या है कि उनके पास चिन्तकों की कमी है. और जो हैं उन्हें यह समाज अपने पिछड़ेपन की वजह से नहीं पहचान पाता है और इसलिए उसे तवज्जो नहीं देता. इसका मूल कारण एक ही है– शिक्षा से वंचित होना. और वंचित करने वाला इस देश का ब्राह्मण और सवर्ण समाज है.

आजादी के लगभग 70 साल के बाद भी हम इस बात की लड़ाई लड़ रहे हैं कि भारत के पिछड़े-वंचित-शोषित समाज के लोगों की भागीदारी नहीं है. यह भागीदारी दो स्तरों पर नहीं है. पहला छात्र के रूप में और दूसरा शिक्षक के रूप में. भागीदारी की कमी प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक है. भारत में मई-जून 2016 में बौद्धिक वर्गों के बीच यह चर्चा का विषय रहा कि विश्वविद्य़ालयों के एसोशिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर पदों पर अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए प्रतिनिधित्व/आरक्षण नहीं है. भारत में 2006 में अर्जुन सिंह ने उच्च शिक्षा में अन्य पिछड़े वर्गों के छात्रों और शिक्षकों को क्रमशः एडमिशन और पद पर प्रतिनिधित्व/आरक्षण दिया. जिस चीज को सत्ताधारी जातिवादी नेता आज समझ रहे हैं, उसे भारत लेनिन जगदेव प्रसाद आज से लगभग 50 वर्ष पहले ही समझ रहे थे.

इसी क्रम में यह बताना जरुरी है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष चंद्रशेखर ‘चंदू’ भी शिक्षा के महत्व को समझते थे. इसलिए उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सभी वंचित-शोषित-पिछड़े (ST, SC, OBC, DA, DNT) समाजों के प्रतिनिधित्व के लिए लड़ाई लड़ी और प्रशासन को अपनी बात मनवाने पर मजबूर कर दिया. यह चंद्रशेखर का ही प्रयास था जिसके चलते आज जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पूरे दुनिया में अपनी शोध गुणवत्ता, सामाजिक आन्दोलनों और प्रतिबद्धताओं के लिए जाना जाता है.

भारत के दोनों महान हस्ती भारत लेनिन जगदेव प्रसाद और क्रन्तिकारी चंद्रशेखर कहते थे कि शिक्षा पर जातीय वर्चस्व टूटना चाहिए. समाज को बदलने के लिए शिक्षा और बौद्धिक लोकतंत्र जरूरी है. दोनों ने इसके लिए लड़ाईयाँ लड़ी, कुछ हद तक जीत दर्ज की और अंततः समाज के लिए अपनी शहादत दी.

भारत के दोनों सितारों के शहादत को हम इस संकल्प के साथ नमन करें कि हमें उनके सपनों को साकार करना है. दोनों हमारे समाज के लिए गर्व का विषय हैं। हमारा कर्तव्य है कि उनके द्वारा जलाये गये दीये की किरण समाज में फैलाती जाए. हमें इस पर गर्व होना चाहिए कि हमारे समाज के सभी महान व्यक्तित्वों ने जो कुछ भी किया पूरे समाज के लिए किया. यह हमारी पहचान और प्रेरणा स्रोत दोनों है.


 अनिल कुमार

असिस्टेंट प्रोफेसर, समाजशास्त्र, ईमेल studywithanil@gmail.com