कॉरपोरेट फंडिग से बीजेपी चले और सीएसआर फ़ंडिंग से संघ!

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पुण्य प्रसून वाजपेयी

 

1952 से लेकर 2019 तक के लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दलो को हमेशा से फ़ंडिंग होती रही है। पहले टाटा-बिरला सरीखे उद्योगपतियों ने फंडिग की और अब सैकड़ों कारपोरेट है जो राजनीतिक दलो को फंडिग करते है । लेकिन पहली बार 90 फ़ीसदी से ज्यादा फंडिंग सिर्फ एक पार्टी यानी बीजेपी के हिस्से में जा रही है । और बाक़ी दस फ़ीसदी फंडिग कांग्रेस समेत अन्य 5 राष्ट्रीय दलो को और क्षत्रिय दलो में बंट रही है । यानी जो कारपोरेट फंडिग पहले राजनीतिक दलो में चेक एंड बैलेंस का काम करती थी अब वह एकतरफ़ा हो चुकी है। वहीं कारपोरेट जिस सामाजिक ज़िम्मेदारी को निभाते हुये अपने मुनाफ़े का दो फ़ीसदी सीएसआर यानी कारपोरेट सोशल रिसपाल्बेलेटी फंड सरकार को देते हैं, उस फंड का भी 90 फ़ीसदी हिस्सा राष्ट्रीय संवयसेवक संघ के प्रकल्पो में लग रहा है। यानी जो सीएसआर फंड पहले कई सामाजिक संगठनों को ज़िन्दा रखता था अब वह संघ के विस्तार और उसके द्वारा किये जा रहे कार्यो में ही खप रहा है। और जो रक़म बीजेपी को मिल रही है या जो रक़म सीएसआर फंड की है, वह इतनी ज्यादा है कि एक तरफ मंहगें होते चुनाव में दूसरे राजनीतिक दल बीजेपी के सामने टिक नहीं सकते है और दूसरी तरफ संघ का विस्तार कारपोरेट पूँजी के आसरे फैलने से कोई रोक नहीं सकता है। मोदी सत्ता का ये ऐसा अनूठा माडल है जिसकी कल्पना इससे पहले कभी किसी ने की नहीं होगी ।

कारपोरेट फंडिग की रफ्तार 2013 के बाद से जिस तरह तेज हुई उसमें माना यही गया कि मोदी को पीएम बनाने के पीछे कारपोरेट के बड़ी पूँजी झोंक दी । क्योंकि 2013 से 2021 के बीच कारपोरेट फंडिग की रक़म ने बीते 50 सालो की कुल फंडिग के रिकार्ड को भी तोड़ दिया। अगर वाजपेयी के वक्त से ही कारपोरेट फंडिग को परखे तो 2003 से २2013 [ मोदी के पीएम उम्मीदवार के एलान से पहले तक ] कारपोरेट की राजनीतिक दलो को फंडिग 460 करोड़ रुपये हुई । लेकिन उसके बाद कारपोरेट फंडिग की रफ्तार में ग़ज़ब का इज़ाफ़ा हुआ। इलेक्ट्रोल बांड की शुरुआत से पहले तक यानी 2013 से फ़रवरी 2018 तक 2416 करोड़ रुपये की फंडिग हुई । और इलेक्ट्रोल बांड आते है इसकी रफ़्तार और तेज हो गई । मार्च 2018 से अक्टूबर 2021 तक सिर्फ़ इलेक्ट्रोल बांड के ज़रिये कारपोरेट फंडिग 7995  करोड़ रूपये की हुई । चुनावों पर नजर रखने वाली संस्था एशोसियशन फ़ार डेमोक्रेटिक रिफार्म [ एडीआर] के मुताबिक़ इस फंडिग का औसत 82 फिसदी हिस्सा बीजेपी के खाते में गया । 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले के साल 2018-19 में राष्ट्रीय राजनीतिक दलो को कुल कारपोरेट फंडिग 876 करोड़ रूपये की हुई जिसमें 698 करोड़ रूपये सिर्फ बीजेपी के खाते में गये । कांग्रेस को 112 करोड़ रूपये तो एनसीपी को 11.34 करोड़ रूपये मिले। और 2019 में बीजेपी चुनाव जीत गयी तो कारपोरेट फंडिग की रक़म बीजेपी के लिये और बढ़ गयी। 2019-20 में बीजेपी को 750 करोड़ रूपये तो कांग्रेस को 139 करोड़ रूपये, एनसीपी को 59 करोड़ रूपये और ममता बनर्जी की टीएससी को 8 करोड़ रूपये मिले।

कारपोरेट को लेकर बड़ा सवाल पहली बार ये भी उभरा कि क्षत्रपों को भी अब कारपोरेट फंडिग कम हो गई या नहीं के बराबर। जिन राज्यों में बीजेपी का प्रभाव नहीं है वहाँ ज़रूर क्षेत्रिय पार्टी को कारपोरेट फंडिग हुई। मसलन 2019-20 में तेलगांना की टीआरएस को 89 करोड़ रूपये, टीडीपी को 81 करोड़ रूपये, वायएसआर कांग्रेस को 74 करोड़ रूपये, नवीन पटनायक की बीजेडी को 45 करोड़ रूपये। इस क़तार में नीतीश कुमार की जेडीयू को 13 करोड़ तो अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को 10 करोड़ रूपये और तेजस्वी की आरजेडी को तो 5करोड़ ही मिले। यानी देश की राजनीति कैसे बीजेपी केन्द्रित हो गई है और कारपोरेट भी समझ चुका है कि राजनीतिक दलो में पैसे बाँटने से कुछ होगा नहीं चाहे कोई किसी राज्य का सीएम ही क्यों ना हो। यानी संघीय ढाँचे में सीएम की ताकत भी मोदी काल मेंइतनी कमजोर हो गई कि राज्यों में काम कराने के लिये भी केन्द्र की बीजेपी सत्ता से काम चल सकता है, ये मैसेज साफ है। इसका बड़ा उदाहरण कृषि को लेकर बनाये गये तीन क़ानूनों से भी समझा जा सकता है । कृषि राज्य का मामला है लेकिन तीन क़ानूनों के आसरे इसे केन्द्र से जोड़ दिया गया और राज्य कुछ कर भी नहीं पाये। फिर केन्द्रीय एंजेसी सीबीआई या ईडी का राज्यों में पहुँच कितनी बढ़ी ये भी किसी से छुपा नहीं है, तो कारपोरेट ने भी खुद को मोदी सत्ता से जोड़ लिया।

इसका दूसरा चेहरा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा है। मनमोहन काल तक संघ की विचारधारा हिन्दुत्व पर रेंगती रही। संघ की कार्यशौली भी खुद को सामाजिक – सांस्कृतिक संगठन के तौर पर रही, लेकिन मोदी सत्ता के बाद संघ ने उस इन्फ्रस्ट्रक्चर से खुद को जोड़ा जो एनजीओ या दूसरे सामाजिक संगठन का काम था । कारपोरेट की सामाजिक जिम्मेदारी यानी सीएसआर फंड का बड़ा हिस्सा आरएसएस के प्रकल्पों को पूरा करने में लगने लगा। यानी आरएसएस जहाँ चाहे स्कूल खड़ा करे, अस्पताल बनाये । या कोई भी ऐसा प्रकल्प बनाना चाहे जिससे उसका जुड़ाव हो वह बना सकता है क्योकि पैसे की कमी नहीं है । मनमोहन काल तक सीएसआर फंड का पैसा संघ तक पहुँचता नहीं था। वाजपेयी काल में कभी इतना सोचा नहीं गया लेकिन मोदी काल में अब सीएसआर का फंड सिर्फ संघ तक ही पहुँचता है तो संघ की कार्यशौली भी बदल गई। क्योंकि सीएसआर फंड कितना ज्यादा है और संघ के सामने अब एक एक रुपये जमा करने कर अपने कार्यो को अंजाम देने का कोई संकट भी नहीं है। मसलन नागपुर में ही हेडगेवार स्मृति भवन के निर्माण के लिये संघ ने एक-एक रुपये जोडे़ । इसी तरह विवेकानंद स्मारक के लिये भी एक-एक रुपये जमा किये । लेकिन अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिये एक-एक रुपये जोड़ने की ज़रूरत नहीं पड़ी। नागपुर में नागपुर कैंसर अस्पताल के निर्माण में भैयाजी जोशी जुड़े। और सीएसआर के बजट का पैसा भी लगा । यानी एक लंबी क़तार है जिसमें आरएसएस के 36 संगठनों से जुड़े एक हज़ार से ज्यादा एनजीओ लगातार अपना विस्तार कर रहे है। और संघ को भी अपने विस्तार के लिये अब हिन्दुत्व का राग की ज़रूरत नहीं है । बल्कि सामाजिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिये संघ के पास अगर सीएसआर का बजट है तो फिर तमाम संगठन का फैलाव खुद ब खुद हो जायेगा।

2021 में सीएसआर का बजट क़रीब 33 हज़ार करोड़ रूपये से ज्यादा का रहा। और आरएसएस ने 25 हज़ार से ज्यादा प्रकल्पों पर काम शुरू किया । जिसमें वनवासी कल्याण आश्रम के 4935 प्रकल्प , विश्व हिन्दु परिषद के 4129 प्रकल्प  विद्याभारती के 3980 प्रकल्प , भारतीय मज़दूर संघ के 3800 प्रकल्प , भारत विकास परिषद के 150 प्रकल्प , दीन दयाल शोध संस्थान के 125 प्रकल्प । यानी संघ से जुड़े तमाम संगठनों के पास अपने काम को अंजाम देने का बजट है । तो ऐसे में संघ का विस्तार भी लोगों की ज़रूरत या कहे संघ के साथ जुड़े तमाम क्षेत्रों के लोगों के लिये राहत भी है। खुद आरएसएस के स्वयंसेवकों को अब शाख़ाओ के आसारे विस्तार की ज़रूरत कम है क्योकि किसी भी नयी जगह पर शाखा खुद ब खुद खड़ी हो जायेगी अगर वहाँ के लोग जान जाये कि उनके इलाक़े में कोई स्कूल या अस्पताल संघ ने बनवाया है। संघ का टारगेट है कि 2025 तक जब आरएसएस के सौ बरस पूरे होगें तब तक देश भर में एक लाख शाखायें हो। जो अभी क़रीब 60 से 65 हज़ार है। लेकिन जब संघ का विस्तार ही कारपोरेट पूँजी पर जा टिका हो तब शाखाओं में शारीरिक व्यायाम तो हो सकता है लेकिन विचारधारा नजर नहीं आयेगी क्योकि संघ के तमाम संगठन अगर हेडगेवार या गुरु गोवलकर या देवरस के विचारो को रखने लगेगें तो संकट मोदी गवर्नेस को होगा । सरकार चलाने को लेकर होगा । तो आसान और सरल रास्ता कारपोरेट पूँजी के आसरे बीजेपी और संघ दोनों की सत्ता बरकरार रहे इससे बेहतरीन विचार और क्या हो सकता है। फिर विपक्ष गाहे-बगाहे हिन्दु-राष्ट्र या हिन्दुत्व का मुद्दा उठाकर संघ या बीजेपी को कठघरे में खड़ा कर वोट का ध्रुवीकरण करने में जब मदद कर ही देता है तो बीजेपी और संघ को और क्या चाहिये ।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।