जन्माष्टमी के स्वागत के बीच ‘कामसूत्र जलाओ’ अभियान के मायने…


भारत ने आज़ादी के बाद अमेरिका और रूस से टक्कर लेने की सोची थी। अब प्रचार ये है कि भारत, अफ़गानिस्तान से बेहतर है। सत्तर साल की तमाम उपलब्धियों को नकारने का अभियान हमें बारूदी गंध में डूबे ‘अफ़गानिस्तान से बेहतर होने’ पर गर्व करने का पाठ पढ़ा रहा है। …तो प्यारे भारतवासियों, इस कुबेला को बरदाश्त करने की हद क्या है? कब तक चुप रहोगे…बोलो..वरना ज़बान खो दोगे!…वैसे, मर्ज़ी आपकी…..सर भी है आपका!!


डॉ. पंकज श्रीवास्तव डॉ. पंकज श्रीवास्तव
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कल तक बड़े गर्व से कहा जाता था कि जब युरोप में अंधकार युग चल रहा था तो भारत में ऋषि वात्स्यायन, कामसूत्र लिख रहे थे। ऐतिहासिक कालक्रम को देखते हुए यह बात सच भी है, लेकिन ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ का नारा लगाने वाले आरएसएस के आनषंगिक संगठन बजरंग दल ने अहमदाबाद की एक दुकान में रखी कामसूत्र को धर्मविरोधी बताते हुए जला डाला। उन्होंने दावा किया कि इसमें हिंदू देवी-देवताओं के अश्लील चित्र हैं।

निश्चचित रूप से तमाम दक्षिणपंथी विचारकों के लिए भी यह माथा पीटने का समय है, क्योंकि कामसूत्र के बाद ये उत्साही बजरंग दली खुजराहो और कोणार्क के मंदिर भी ध्वस्त करने निकल पड़ें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जब धर्म का मतलब तोड़ना, फोड़ना, जलाना हो जाये तो कोई भी लंपट ख़ुशी-ख़ुशी ‘धार्मिक’ होना चाहेगा। और यहाँ तो लंपटों को संगठित करके राजनीतिक शक्ति हासिल करने का अभियान ही चलाया गया जो अब भस्मासुर होने की ओर है।

यह ग़ौर करने की बात है कि बजरंग दल कोई ‘फ्रिंज’ संगठन नहीं है। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का युवा संगठन है। आरएसएस की शाखाओं में दीक्षित और प्रशिक्षित लोगों का दल है। इन्हें किस तरह का प्रशिक्षण मिला है वह कामसूत्र के जलाने से स्पष्ट है। सिर्फ़ ध्वंस का काढ़ा पीने वाले न कोई रचना कर सकते हैं और न ही किसी रचना का मूल्य समझ सकते हैं। यह आत्महंता आस्था है।

विडंबना ये है कि कामसूत्र को तब जलाया गया जब द्वारका से लेकर मथुरा तक कृष्णजन्माष्टमी मनाने की तैयारी हो रही थी। कृष्ण की कथा मर्यादाओं के अतिक्रमण का घोष है। कृष्ण का रास और प्रेम भी बजरंग दल वालों का निशाना बन सकता है जो वैलेंटाइन डे पर प्रेमी जोड़ों का शिकार करना धार्मिक कार्य समझते हैं। कृष्ण और राधा का प्रेम अब मंदिरों में स्थापित है जिन्होंने कभी विवाह नहीं किया। राधा तो किसी और की पत्नी भी मानी जाती हैं। कृष्ण, गोपियों के साथ खुलेआम रास रचाते थे और किसी से विवाह नहीं किया जबकि बजरंग दल वाले प्रेमी जोड़ों को पकड़कर शादी कराने का अभियान चलाते हैं। पता नहीं भागवत पुराण पढ़कर वे क्या समझेंगे जिसमें रास वर्णन ऐंद्रिकता की तमाम ऊँचाइयों को छूते हैं। यमुनास्नान कर रही गोपियों के वस्त्र लेकर भाग जाने वाले कृष्ण को वे क्या सज़ा देंगे?

कृष्ण कथा में बहते प्रेम और आनंद ने पूरी दुनिया को आकर्षित किया है। जो हिंदू नहीं हैं, वे भी कृष्ण के रंग में सराबोर होते रहे हैं। लेकिन नफ़रती अभियान का नतीजा है कि मथुरा में श्रीनाथ जी के नाम से चलने वाले एक डोसा सेंटर में काम करने वाले इरफ़ान नाम के एक लड़के की पिटाई की गयी। वजह ये कि वह एक मुस्लिम है जबकि दुकान का नाम श्रीनाथ जी है। अगर इन लंपटों को अनन्य कृष्ण भक्ति में डूबे रसखान मिल जायें तो उनकी भी लिंचिंग हो जायेगी क्योंकि उनका नाम सैयद इब्राहिम था। मक़बरा भी मथुरा में है और ज़ाहिर है ख़तरे में है, भले ही वे लिख गये हों–

मानुस हौं तो वही रसखान,बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥
अगला नंबर उन तमाम कृष्ण भक्त कवियों का होगा जो मुस्लिम थे लेकिन कन्हैया के प्रेम में पागल थे। मौलाना हरसत मोहानी जैसे कृष्ण के आशिक़ जन्माष्टमी पर मथुरा में हर हाल में पाये जाते थे (हसरत की भी क़ुबूल हो मथुरा में हाज़िरी, सुनते हैं आशिक़ों पे तुम्हारा करम है आज)। ‘मौलाना, कृष्णभक्त और इंकलाब -ज़िंदाबाद जैसा नारा देने वाला कम्युनिस्ट’ हसरत मोहानी भारत की धरती पर कभी हो सकता था, आज नहीं।

नज़ीर अकबारबादी का क्या होगा जो कन्हैया के बालपन का ऐसा चित्रण कर गये हैं-

यारो सुनो ! यह दधि के लुटैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन॥
मोहन सरूप निरत करैया का बालपन
बन-बन के ग्वाल गाएँ चरैया का बालपन॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥

सईद सुल्तान
ने तो कृष्ण को नबी का दर्ज़ा दिया है, लेकिन उनके लिए मथुरा की गलियों में घूमना संभव नहीं रहा। उन्होंने कहा था कि इस्लाम बताता है कि अल्लाह ने दुनिया के हर हिस्से में नबी भेजे हैं। दूसरे धर्मों के नबियों को सम्मान देने का भी निर्देश है क्योंकि वे भी अल्लाह की ओर से भेजे हो सकते हैं। उन्होंने अपनी किताब नबी बंगश में कृष्ण को नबी का दर्जा दिया। नबी वह होता है जो लोगों को ईश्वर की ओर प्रेरित करता है।सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने जब कृष्ण के सपने में आने की बात अपने शिष्य अमीर ख़ुसरो को बतायी तो ख़ुसरो ने ‘छाप तिलक सब छीनी रे से मोसे नैना मिलायके’ कृष्ण को समर्पित कर दिया- ‘...ऐ री सखी मैं जो गई थी पनिया भरन को, छीन झपट मोरी मटकी पटकी मोसे नैना मिलाईके…!

और हमारा प्यारा ‘अख़्तर पिया’..नवाब वाजिद अली शाह! उनके दौर में तो कृष्ण-लीला बाक़ायदा सरकारी आयोजन थी। ख़ुद नवाब वाजिद अली शाह कृष्ण बनकर रास रचाते थे! 1843 में नवाब वाजिद अली शाह ने राधा-कृष्ण नाटक कराया जिसके निर्देशक वे ख़ुद थे। उन्हें सम्मान से पुकारे जाने वाला एक नाम कन्हैया भी था।

इस तरह की साझा संस्कृति पर नाक भौं सिकोड़ने वाले हमेशा रहे हैं, और दोनों तरफ़ रहे हैं, लेकिन इस संस्कृति में पगकर जीवन में नया रस भरने वालों को मारा जाये, यह बौद्धों और बौद्धस्तूपों को नष्ट करने के लिए चले बर्बर अभियान के बाद ‘राज्य के संरक्षण’ में पहली बार हो रहा है। ऐसी घटना अंधकार युग का दस्तक होती हैं। यह गणतंत्र होने की कसौटी से गिरते हुए किसी बर्बर युग में पहुँचना है।

ज़ाहिर है, मूर्खता और लंपटता को संगठित करके सरकार बन जाने का अभियान अब भारत नाम के विचार के लिए ख़तरा बन चुका है। कामसूत्र को फाड़ने जलाने का अभियान स्कूलों में पढ़ाई जा रही विज्ञान की किताबों को भी निशाना बनायेगा, क्योंकि कक्षा छह की किताबों में भी बहुत कुछ ऐसा है जो धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध है। कोई बजरंगी कह सकता है कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर है, ये ग्रेविटेशनल फोर्स पढ़ाकर धर्म क्यों भ्रष्ट कर रहे हो? समाजशास्त्र और इतिहास की किताबों को तो वे बरबाद कर ही रहे हैं!

और हाँ, निशाने पर जीन्स ही नहीं, कल आम पैंट भी होगी क्योंकि ईसाईयों की देन है ( गणवेश भी फाड़े जा सकते हैं)। आरएसएस ने स्थापना के साथ ही महात्मा गाँधी के  सेक्युलर, आधुनिक, लोकतांत्रिक भारत के विचार के ख़िलाफ़ जो नफ़रत फैलाई है, उसका नतीजा आज भारत भुगत रहा है। नफ़रत और मूर्खता को संगठित होकर सरकार तो बनायी जा सकती है, देश नहीं बनाया जा सकता।

भारत ने आज़ादी के बाद अमेरिका और रूस से टक्कर लेने की सोची थी। अब प्रचार ये है कि भारत, अफ़गानिस्तान से बेहतर है। सत्तर साल की तमाम उपलब्धियों को नकारने का अभियान हमें बारूदी गंध में डूबे ‘अफ़गानिस्तान से बेहतर होने’ पर गर्व करने का पाठ पढ़ा रहा है।

तो प्यारे भारतवासियो, इस प्रेम विरोधी कुबेला को बरदाश्त करने की हद क्या है? कब तक चुप रहोगे…बोलो..वरना ज़बान खो दोगे!

वैसे, मर्ज़ी आपकी…..सर भी है आपका!!

 

लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।