सुप्रीम कोर्ट पर न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा के फ़ैसलों का ग्रहण

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सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा बुधवार को रिटायर हुए। अपने पीछे वे विवादों का लंबा सिलसिला छोड़ गए हैं। उन्हें कई चीजें पहली बार करने का श्रेय है। हालांकि, सब गलत कारणों से। न्यायमूर्ति मिश्रा कम से कम तीन मुख्य न्यायाधीशों के खास लगे। विशेषतौर पर राजनीतिक प्रभाव वाले मामलों या फिर जो अन्य कारण से संवेदनशील रहे उनकी सुनवाई के लिए सौंपे जाने के लिहाज से।

दीपक मिश्रा जब मुख्य न्यायाधीश थे तो जज बीएच लोया का केस इनकी अध्यक्षता वाली पीठ को दिया गया था। नौ अन्य वरिष्ठ जजों की उपेक्षा या उन्हें नजरअंदाज करके। आपको याद होगा कि जज लोया सीबीआई के विशेष जज थे जो अन्य मामलों के साथ शोहराबुद्दीन शेख और उनकी पत्नी के फर्जी मुठभेड़ के मामले की सुनवाई कर रहे थे – यह मामला देश के मौजूदा गृह मंत्री से संबंधित है। कुछ लोगों, खासकर वो जो उस समय की सरकार के खिलाफ थे की राय में यह मौत संदिग्ध थी।

सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर इस मामले की जांच किसी स्वतंत्र एजेंसी से कराने की मांग की गई। मुख्य न्यायाधीश मिश्रा की पंसद पर भारी प्रतिक्रिया हुई और आम तौर पर माना गया कि चार वरिष्ठतम जजों की प्रेस कांफ्रेंस का कारण यही था। विवाद के मद्देनजर न्यायमूर्ति मिश्रा ने इस मामले से खुद को अलग कर लिया था परन्तु बाद के जजो का भरोसा उनमें बना रहा।

जब रंजन गोगोई मुख्य न्यायाधीश थे और उनपर यौन उत्पीड़न का आरोप लगा तो उन्होंने एक विशेष पीठ बनाई। खुद उसके अध्यक्ष बने तथा जिन दो जजों को चुना उनमें एक अरुण मिश्रा थे। इसकी सुनवाई छुट्टी के दिन हुई और फैसला बेंच के अध्यक्ष द्वारा पास किए जाने की सामान्य व्यवस्था से हटकर यह जिम्मा न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा को सौंपा गया और आदेश में मीडिया को सलाह थी कि आरोपों को प्रकाशित करने में संयम दिखाया जाए। (आप रिया चक्रवर्ती का मामला दिखाया जाना याद कीजिए)।

इतना ही नहीं, न्यायमूर्ति मिश्रा एक वरिष्ठ जज थे पर अवकाशकालीन बेंच में भी बैठते थे – आमतौर पर यह कनिष्ठ जजों के लिए छोड़ दिया जाता है। भूमि अधिग्रहण के सरकार से संबंधित एक मामले में न्यायमूर्ति मिश्रा की पीठ के समक्ष एक ऐसा मामला आया जिसपर 2014 में भी फैसला हुआ था। तब भी तीन जजों की पीठ थी और फैसला किसानों के पक्ष में हुआ था।

इस बार न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की पीठ ने पिछले फैसले को नजरअंदाज कर दिया और अलग नजरिया अपनाया …. न्यायिक अनुशासन कहता है कि मामला बड़ी पीठ को भेज दिया जाना चाहिए था। नतीजा यह हुआ कि एक ही अदालत के दो जजों का नजरिया एक ही मामले में अलग था – इसलिए पांच जजों की एक बड़ी पीठ बनी। पर पीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मिश्रा ही रहे।

परेशान किसानों के एसोसिएशन ने न्यायमूर्ति मिश्र से अपील की कि वे इस केस से अलग हो जाएं। पर न्यायमूर्ति मिश्रा ने ऐसा नहीं किया। ….. (हमलोग यही जानते सुनते पढ़ते रहे हैं कि जज खुद ही मामलों से अलग हो जाते रहे हैं। मुझे याद नहीं आता है कि इससे पहले मैंने कब किस मामले में पढ़ा या सुना हो जब किसी जज से कहा गया हो कि वे इस मामले की सुनवाई से अलग हो जाएं। यह अलग बात है कि उनके पास अपने तर्क थे। खबर में विस्तार है।) …. एक अन्य मामले में न्यायमूर्ति मिश्रा ने प्रधानमंत्री की तारीफ करते हुए उन्हें वर्सेटाइल जीनियस (बहुमुखी प्रतिभा का धनी) और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित एक दूरदृष्टा कहा।

….. इसकी आलोचना हुई क्योंकि सुप्रीम कोर्ट सरकारी कार्रवाई, चूक, आदेश और नीतियों आदि के संबंध में फैसला करती है। सरकार के प्रमुख की ऐसी प्रशंसा न्याय पाने वालों के मन में न्यायपालिका की निष्पक्षता पर संशय पैदा करती है। न्यायमूर्ति मिश्रा उस लक्ष्मण रेखा को फिर पार कर गए थे।

न्यायमूर्ति मिश्रा के बारे में यह भी जाना जाता है कि वे बार को विरोध करने के लिए मजबूर कर देते हैं। और अंत में न्यायमूर्ति मिश्रा ने प्रशांत भूषण मामले में फैसला दिया और उन्हें उनके दो ट्वीट के लिए अदालत की आपराधिक अवमानना का दोषी माना। एक ट्वीट मौजूदा मुख्य न्यायाधीश से संबंधित था और दूसरा पिछले चार मुख्य न्यायाधीशों की आलोचना से संबंधित था। खंडपीठ का मानना था कि ट्वीट से न्यायपालिका पर से लोगों का भरोसा हिल जाएगा। …. आलेख में बताया गया है कि ऐसा होना होता तो किन अन्य मामलों में भी हुआ होता।

(इंडियन एक्सप्रेस में तीन सितंबर 2020 को प्रकाशित रेखा शर्मा का के आलेख के खास अंशों का अनुवाद। अखबार ने बताया है कि आप दिल्ली हाई कोर्ट की पूर्व जज हैं। “गुडबाय जस्टिस मिश्रा” उपशीर्षक है, उनकी विरासत एक मुश्किल समय में देश की सर्वोच्च अदालत पर एक धब्बा है। अनुवाद वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह का है जो उन्होंने फ़ेसबुक पर पोस्ट किया। आभार सहित प्रकाशित )



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