चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सौ साल!

चंद्रभूषण चंद्रभूषण
ओप-एड Published On :


चीन की कम्युनिस्ट पार्टी आने वाली 1 जुलाई को अपने सौ साल पूरे करने जा रही है। दुनिया में कई कम्युनिस्ट पार्टियां इससे ज्यादा उम्र की हैं। आम पॉलिटिकल पार्टियों का तो कहना ही क्या, खुद को सौ साल से ज्यादा पुरानी बताने वाली बहुतेरी मिल जाएंगी। अपने देश की कांग्रेस पार्टी भी उनमें से एक है जिसकी स्थापना 1885 में हुई थी और अपने जीवन के 135 वर्ष जिसने पिछले दिसंबर में ही पूरे कर लिए थे। लेकिन चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की कुछ बातें उसे दुनिया के बाकी राजनीतिक दलों से एक दर्जा ऊपर ले जाती हैं।

जैसे एक तो यही कि अपनी स्थापना के मात्र सात साल के अंदर उसके ज्यादातर नेता और लगभग सारे सदस्य युद्ध सरदारों के हाथों मार दिए गए, फिर भी उसने न सिर्फ खुद को नए सिरे से खड़ा किया, बल्कि रक्षात्मक रणनीति को कभी खुद पर हावी नहीं होने दिया। दूसरी बात यह कि इतनी भयानक वैचारिक लड़ाइयां शायद ही किसी पार्टी के भीतर चली हों कि कई बार पार्टी का आधा नेतृत्व ही राजनीतिक क्षितिज से परे चला गया, इसके बावजूद चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर कभी कोई टूट नहीं हुई। दुनिया की लगभग सारी कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ अभी एम या एल या यू जैसा कोई विशेषण लगा हुआ है, लेकिन इस पार्टी का नाम सीधा-सपाट कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना (सीपीसी) है।

ऐसा इसलिए कि 1 जुलाई 1921 को पार्टी गठन के बाद से उसका कभी कोई पुनर्गठन हुआ ही नहीं। लोग पार्टी के भीतर ही लड़ते-मरते रहे। क्रांति के बाद तो क्या क्रांति से पहले भी नई पार्टी बनाने की जहमत नहीं उठाई। तीसरी खास बात यह कि दुनिया की और कई पार्टियों की तरह इस पार्टी ने भी अपने देश में क्रांति संपन्न की लेकिन उनसे कहीं आगे बढ़कर वह अपने देश को दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक-सामरिक शक्ति बनाने की राह पर भी ले गई। अभी यह मुकाम दूसरे नंबर का है लेकिन अगले सात साल में पहला हो सकता है।

 

कहां से कहां पहुंचे

ध्यान रहे, 1949 में जब चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने चीन की सत्ता संभाली थी तब इस देश के अलग-अलग इलाके अलग-अलग देशों के कब्जे में थे। उत्तरी चीन और ताइवान पर दशकों से काबिज जापान द्वितीय विश्वयुद्ध में कमर टूट जाने के बाद ही वहां से हटा था। शंघाई फ्रांसीसियों के कब्जे में था। हांगकांग और करीबी इलाके अंग्रेजों के हाथ में थे। मकाऊ पर पुर्तगाली काबिज थे जबकि अमेरिका खुद को चीन की स्वाभाविक शासक बताने वाली पार्टी क्वोमिंतांग को खुला संरक्षण और हर तरह की मदद पहुंचाते हुए उसके सत्ता में आने पर पूरे चीन को अपने ‘स्फेयर ऑफ इन्फ्लूएंस’ में रखने की रणनीति पर काम कर रहा था। जो भीतरी इलाके विदेशियों के कब्जे में नहीं थे, उनपर जिसका दांव लग गया, वही ताल ठोककर राज कर रहा था। ‘वारलॉर्ड’ या ‘युद्ध सरदार’ ऐसे ही शासकों को कहा जाता था।

ऐसे देश को महज सत्तर साल में दुनिया की एक महाशक्ति में बदल देना खुद में एक चमत्कार है, लेकिन इसके साथ ही कुछ बड़ी समस्याएं भी चीन और उसकी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ जुड़ी हैं, जिन्हें लेकर दुनिया में तरह-तरह के सवाल पूछे जाते हैं। उनका आधिकारिक जवाब कहीं से मिलेगा, इसकी कोई उम्मीद नहीं है लेकिन उनको लेकर शुरुआती खोजबीन इस अजूबे की समझ सुधारने में कुछ मदद जरूर पहुंचा सकती है।

सबसे पहला तो यही कि इक्कीसवीं सदी के इस खुले माहौल में बिना विपक्ष वाली इस एकदलीय सत्ता का भविष्य क्या है? दूसरा यह कि क्या चीन अब एकदलीय कम्युनिस्ट सत्ता से आगे बढ़कर कोरियाई शासक किम जोंग उन या रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन की तरह एक व्यक्ति की सत्ता वाली किसी अघोषित शासन प्रणाली की तरफ बढ़ रहा है? और तीसरा यह कि 2028 में या कोरोना आपदा के कारण शायद इससे भी थोड़ा पहले चीन अगर जीडीपी के मामले में अमेरिका को पीछे छोड़ देता है तो क्या वह दुनिया का नेतृत्व करने की स्थिति में होगा? याद रहे, 1890 में अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया था और तब से अब तक इस स्थिति में कोई अंतर नहीं आया है। दूसरे शब्दों में कहें तो क्या निकट भविष्य में चीन संसार की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को अपनी ओर आकर्षित कर पाएगा? ऐसा राज-समाज वह बन पाएगा कि दुनिया के बाकी देश उसके जैसा बनना चाहें?

 

विकल्प का सवाल

इन सवालों के जवाब खोजने के क्रम में ही हम चीन और उसकी कम्युनिस्ट पार्टी के हालिया इतिहास की जांच-पड़ताल करेंगे। बहुदलीय व्यवस्था कम्युनिस्ट सत्ताओं के बीच कभी गंभीर विमर्श का मुद्दा नहीं बनी क्योंकि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को वे सैद्धांतिक रूप से निरंकुश पूंजीवादी शक्ति का छलावा मानती हैं। लेकिन जनप्रतिनिधियों के चयन में जनता को अधिक विकल्प कैसे दिए जाएं, यह बहस चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में जरूर चलती रही है। 1989 में पेइचिंग के थ्येनआनमन चौक पर छात्रों के हफ्तों लंबे विशाल विरोध प्रदर्शन में मुख्य मांग भ्रष्टाचार के खात्मे की थी तो एक छोटी धारा वहां बहुदलीय लोकतंत्र को भी मुद्दा बनाए हुए थी। उस आंदोलन को कुचल देने का फैसला करने के बाद चीन के बुजुर्ग कम्युनिस्ट नेता तंग श्याओफिंग ने उदार अर्थनीति को कठोर राजनीति के साथ लागू करने का फॉर्म्यूला दिया, जिसे उनके बाद च्यांग जेमिन ने कुछ नरमी से अपनाया।

यह स्थिति 2012 तक, हू चिंथाओ और वन च्यापाओ के जमाने तक चली, जिसमें चीन ने तेज तरक्की की। उसका भीतरी माहौल राजनीतिक रूप से न सही सांस्कृतिक रूप से काफी उदार हुआ और पड़ोसी देशों से लेकर अमेरिका तक से उसके संबंध भी काफी अच्छे होते गए। इस दौरान चीन को दुनिया की फैक्ट्री का तमगा मिला। यहां तक कहा गया कि 2008-09 की मंदी को 1929 जैसी हो जाने से चीन ने अकेले दम पर रोक लिया, वरना विश्व अर्थव्यवस्था के पास संभलने के लिए तीसरे विश्वयुद्ध जैसा कोई गर्हित रास्ता ही बचता। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह रहा कि चीन में भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया। चीनी सत्ताशीर्ष के दो सदस्यों छुंगचिंग प्रांत के गवर्नर और केंद्रीय रेलमंत्री को भ्रष्टाचार के आरोप में गद्दी छोड़नी पड़ी जबकि स्वयं प्रधानमंत्री वन च्यापाओ पर रिटायरमेंट के ठीक पहले आरोप लगा कि उनके बहनोई ने 2 अरब डॉलर का आर्थिक साम्राज्य खड़ा कर लिया है।

मौजूदा चीनी राष्ट्रपति और कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव शी चिनफिंग स्वतंत्र चीन के अकेले ऐसा नेता हैं, जिनके सत्ता में आने के पहले ही ऐसी बातें बाहरी चर्चा में आ चुकी थीं कि शीर्ष पद के लिए पार्टी ने उनके सिवा किसी और को चुना तो चीन से कम्युनिस्टों का राज चला जाएगा। भ्रष्टाचार के अलावा इसकी बड़ी वजह चीनी समाज में विषमता का बढ़ना था। सस्ते कर्ज का लाभ लेकर लोग तरह-तरह के कमाल करने लगे थे। जिले-जिले में कई प्रकार की, एलजीबीटीक्यू की पांचों कैटेगरी में अलग-अलग सौंदर्य प्रतियोगिताएं होने लगी थीं और सभी के आयोजक इनसे मोटी कमाई करने लगे थे।

2015 में हमारी चीन यात्रा के दौरान विदेश मंत्रालय के जिस अफसर ने हमारी डिब्रीफिंग की थी, उसके बारे में भारतीय अंग्रेजी अखबार द हिंदू के पेइचिंग स्थित संवाददाता ने हमें बताया कि तीन साल पहले आप इस बंदे से एक अतिरिक्त शब्द भी नहीं निकलवा सकते थे। और तो और, आप यह भी न जान पाते कि रेबैन के चश्मे के पीछे आपकी बात सुनते हुए यह सो रहा है या चुपचाप हंसे जा रहा है। इस तरह उदारवाद की ओर चीन की यात्रा में शी चिनफिंग के आगमन से एक जोरदार ब्रेक लगा और लोग खुले माहौल के बजाय मजबूत नेता और मजबूत राष्ट्र की अवधारणा का आनंद लेने लगे।

 

मजबूत नेता की बीमारी

हम जानते हैं कि पिछले कुछ सालों का समय पूरी दुनिया में संरक्षणवाद, राष्ट्रवाद के गौरवगान और हर कीमत पर खुद को मजबूत बनाने में जुटे नेताओं का रहा है। इससे हर जगह लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट देखी गई है और लोकतंत्र की प्रहरी समझी जाने वाले संस्थाएं कमजोर पड़ी हैं। लेकिन अन्य समाजों में सरकारें बदलने के साथ इनके दोबारा मजबूत होने की उम्मीद की जा सकती है, जो रूस, चीन और तुर्की जैसे ‘एक कदम आगे दो कदम पीछे’ की रफ्तार से लोकतंत्र की तरफ बढ़ रहे समाजों में नहीं की जा सकती।

चीन में सत्ता परिवर्तन की एक न्यूनतम संभावना यह बनी हुई थी कि दस साल में दो कार्यकाल पूरे कर लेने के बाद वहां चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव, उसकी पूरी टीम और उसके नेतृत्व वाली समूची सरकार कार्यमुक्त हो जाती थी। 2017 में महासचिव के कार्यकाल की सीमा समाप्त करके कम्युनिस्ट पार्टी ने इसका भी बंटाधार कर दिया। उसका अगला अधिवेशन अक्टूबर 2022 में होना है। तभी पता चलेगा कि चीन की राजनीतिक दिशा कैसी रहने वाली है। रहा सवाल चीन के बाकी दुनिया के लिए रोल मॉडल बनने का तो यह दावा वहां की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी 1949 में अपनी सरकार बनाने के साथ ही करती आ रही है।

कुछ मामलों में उसका कहना ठीक भी है। साइंस-टेक्नॉलजी में चीन की रफ्तार असाधारण है। इसके कई क्षेत्रों में सक्रिय दुनिया भर के वैज्ञानिक वहां जाकर काम करना चाहते हैं और कुछ तो कर भी रहे हैं। प्रकृति और संस्कृति के संरक्षण में दक्षिणी और मध्य चीन की कई जगहें दिल खुश कर देती हैं। पढ़ाई और स्वास्थ्य काफी कुछ प्राइवेटाइज होने के बावजूद बाकी दुनिया से कम झल्लाहट पैदा करते हैं। लेकिन यह सब होते हुए भी अमेरिका तो छोड़िए, भारत से वहां घूमने गए मेरे जैसे इंसान के लिए भी चीन का जीवन सहज नहीं है। जीडीपी में चीनी हुकूमत अमेरिका को कोसों पीछे छोड़ दे तो भी स्वतंत्रता के अभाव में अपने लोगों को भरमाने के लिए उसको क्षेत्रीय वर्चस्व जैसे टोटके ही अपनाने पड़ेंगे।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।