बोकारो: भूखल घासी की भुखमरी से मौत नहीं, राज्य प्रयोजित हत्या है! पढ़िए ग्राउंड रिपोर्ट…

विशद कुमार विशद कुमार
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बीते 7 मार्च को झारखंड के बोकारो जिले में भूखल घासी (42 वर्ष) की मौत भूख से हो गयी थी। मीडियाविजिल ने इसे प्रमुखता से छापा था। घासी के घर में चार दिनों से चूल्हा नहीं जला था। अब हफ्ते भर बाद विशद कुमार ने इस मामले की विस्तृत पड़ताल की है, तो जैसे विवरण सामने आए हैं और भूखल घासी की जो कहानी देखने को मिली है, वह दिल दहलाने वाली है। पूरी कहानी पढ़कर एक बार सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि भुखमरी से होने वाली मौत को क्यों न मृत्युदंड माना जाए? (संपादक)


जैसे ही भूखल घासी की मौत की खबर आयी, उससे बोकारो जिले के ही नहीं बल्कि समूचे राज्य के सरकारी अमले में कर्तव्यबोध का मानो उफान सा आ गया। झारखंड सरकार के खाद्य आपूर्ति एवं सार्वजनिक वितरण विभाग के सचिव, निदेशक संतोष कुमार, बोकारो उपायुक्त मुकेश कुमार, जिला आपूर्ति पदाधिकारी भूपेंद्र ठाकुर, बेरमो एसडीओ प्रेम रंजन समेत कई अधिकारी कसमार प्रखंड मुख्यालय से मात्र 15 किलोमीटर दूर करमा शंकरडीह पहुंचे। इन्होंने घटना की जानकारी ली और संवेदना भी व्यक्त की। जैसा कि इस तरह के हर मामले में होता है, सचिव ने बीडीओ, एमओ व सिंहपुर पंचायत के मुखिया की जमकर क्लास ली। पीड़ित परिवार को कई सुविधाएं ‘ऑन द स्पॉट’ मुहैया करायी गयीं। मृतक की पत्नी रेखा देवी के नाम पर तुरंत राशन कार्ड बनवाकर दिया गया। साथ ही तुरंत उसके नाम पर विधवा पेंशन और अम्बेडकर आवास की भी स्वीकृति हो गयी। रेखा देवी के नाम पर पारिवारिक योजना का लाभ स्वीकृत कर 10 हजार रुपये का तुरंत भुगतान किया गया। सचिव द्वारा बाकी 20 हजार रुपये खाता खुलवा कर जल्द से जल्द ट्रांसफर करने का निर्देश दिया गया।

भूखल घासी के परिवार वालों के लिए जिंदगी में पहली बार मिली सरकार की इतनी बड़ी नेमत दरअसल किसी मजाक से कम नहीं है। इस बात को समझने के लिए ज़रूरी है कि हम घासी के अतीत, उसकी जिंदगी और भुखमरी तक उसको पहुंचाने वाली पूरी परिस्थिति को जानें।

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भूखल घासी अचानक नहीं मरा। उसकी तबियत एक साल पहले से खराब चल रही थी। ऐसी स्थिति में उसे और उसके परिवार वालों को खाने के लाले रहे हैं, इसके बावजूद न तो गांव वालों की, न ही गांव के जनप्रतिनिधियों, प्रखंड व पंचायत के सरकारी कर्मियों की नजर उसकी दुर्दशा पर कभी पड़ी। अगर उसका आयुष्मान भारत योजना कार्ड होता तो संभवतः एक साल से बीमार भूखल का इलाज हो सकता था, लेकिन बीमारी की कौन कहे जब नरेगा का कार्ड होने के बावजूद उसे काम नहीं मिल सका।

झारखंड नरेगा वाच के संयोजक जेम्स हेरेन्ज ने हमें बताया कि घासी का नरेगा रोजगार कार्ड भी था, जिसकी संख्या JH-20-007-013-003/211 है। बावजूद इसके उसे फरवरी 2010 के बाद से काम नहीं दिया गया था। दूसरी तरफ उसका नाम बीपीएल पुस्तिका की सूची संख्या 7449 में दर्ज होने के बावजूद सरकारी राशन कार्ड नहीं बना था।

हमने बगोदर से भाकपा(माले) के विधायक विनोद कुमार सिंह से बात की। वे कहते हैं, ”इस मामले में सबसे बड़ा दोष सरकारी नीतियों का है। योजनाएं बनती हैं दलित, आदिवासी व गरीब जनता के लिए, मगर वह वोट की राजनीति तक ही सिमट कर रह जाती हैं। पंचायत प्रतिनिधि अपने क्षेत्र की समस्याओं को ऊपर के अधिकारियों तक तो पहुंचाते हैं, मगर अधिकारी उनकी सुनते ही नहीं हैं। इसका उदाहरण यह है कि भूखल घासी के राशन कार्ड का आनलाइन आवेदन दिया हुआ था, बावजूद उसका कार्ड नहीं बना था, जो सरकारी भ्रष्टाचार पर कई सवाल खड़े करता है। मतलब साफ है कि सरकार का अधिकारियों पर नियंत्रण लगभग खत्म हो चुका है।”

करमा शंकरडीह टोला में लगभग 35 घर दलितों के हैं। लगभग भूमिहीन, इन दलितों के पास रोजगार का कोई स्थायी साधन न होने के कारण बरसात को छोड़कर दूसरे अन्य मौसम में ये लोग रोजगार के लिए देश के अन्य राज्यों में पलायन करने को मजबूर होते हैं। जहां बरसात में ये लोग गांव के आस-पास के अन्य किसानों के खेतों में मजदूरी करते हैं, वहीं अन्य मौसम में हाथ-आरी से लकड़ी चीरने का काम, मिट्टी काटने का काम तथा आसपास के क्षेत्रों में मकान निर्माण में दैनिक मजदूरी का काम करते हैं, वहीं कुछ लोग रोजगार के लिए अन्य राज्यों में पलायन कर जाते हैं।

भूखल घासी उर्फ लुधू घासी भी एक साल पहले तक बंगलुरु में काम करता था। एक साल पहले उसके मां-पिता दोनों का एक सप्ताह के अंतराल में ही देहांत हो गया। वह घर आया। सामाजिक रीति-रिवाज के अनुसार उसे ही मुखाग्नि देनी पड़ी। जब वह बंगलुरु से लौटकर आया था तब उसकी तबियत ठीक नहीं थी। सामाजिक रीति रिवाज के चक्कर में रोज नहाने और बिना कपड़े के रहने के कारण उसकी तबियत और बिगड़ती चली गयी। इस सामाजिक रीति रिवाज के चक्कर में उसकी आर्थिक स्थिति भी काफी कमजोर हो गयी और समुचित इलाज नहीं होने के कारण वह शारीरिक रूप से काफी कमजोर होता चला गया।

रोजगार के लिए दोबारा वह बंगलुरु नहीं जा सका। वह गांव में ही कभी-कभी दैनिक मजदूरी कर लिया करता था। पत्नी रेखा देवी भी इधर-उधर कुछ काम करने लगी थी, बावजूद घर की बदहाली बरकरार रही, खाने के लाले पड़ने लगे। अंतत: उसे सबसे बड़ा 14 वर्षीय बेटे की पढ़ाई छुड़वाकर गांव से करीब 16 किमी दूर स्थित पेटरवार के एक होटल में काम करने को भेजना पड़ा। फिर भी कोई अंतर नहीं आया, क्योंकि भूखल घासी में काम करने की क्षमता पूरी तरह समाप्त हो चुकी थी। एक तो बीमारी, ऊपर से खाने के लाले। अंतत: भूखल घासी 6 मार्च 2020 को ज़िंदगी की जंग हार गया।

भूखल घासी की मौत की खबर 6 मार्च की शाम को ही कसमार प्रखंड के बीडीओ राजेश कुमार सिन्हा को दी गई थी, लेकिन तीन चार घंटा बीत जाने के बाद भी कोई भी अधिकारी या कर्मी घटनास्थल पर नहीं पहुंचा था। दूसरी तरफ क्षेत्र के ही आजसू पार्टी के नेताओं के दबाव में भूखल घासी के शव को जला दिया गया। बहाना यह बनाया गया कि स्थानीय श्मशान घाट नदी और जंगल किनारे है, इसलिए जंगली जानवरों के भय से शव को जलाना पड़ा। आनफ-फानन में भूखल के शव को जलवाने में क्षेत्र के आजसू पार्टी के विधायक लंबोदर महतो और प्रशासन की भूमिका बतायी जाती है। ऐसी हरकत से शव का पोस्टमार्टम नहीं हो पाया।

यह क्षेत्र गोमिया विधानसभा में पड़ता है, जहां के विधायक लंबोदर महतो अवकाश प्राप्त प्रशासनिक अधिकारी हैं। उनका रुख जिले के प्रशासनिक अधिकारियों के प्रति साफ्ट होने की वजह से ऐसा किया गया। दूसरी तरफ गांव के ही कुछ लोगों का आरोप है कि जिले के डीडीसी ने मृतक के चौदह वर्षीय बेटे से एक कागज लिखवाकर कि उसके पिता का इलाज बंगलुरु में चल रहा था, इलाज से संबंधित सारे कागजात व दवाइयां लाश के साथ जला दी गयीं।

जो जन कल्याणकारी योजनाएं बनती हैं, उसकी ईमानदारी और सुव्यवस्थित तरीके से लागू करने की जिम्मेवारी स्थानीय निकाय की होती है। मुखिया अपने क्षेत्र के सभी लोगों की दशा-दुर्दशा से परिचित होता है, किसे सरकारी योजनाओं के लाभ की जरूरत है किसे नहीं है? वह अच्छी तरह जानता है। ऐसे में भूखल घासी जैसे लोगों के पास सरकारी राशन कार्ड का न होना बहुत बड़ा सवाल है क्योंकि भूखल घासी का नाम पहले से ही बीपीएल सूची में दर्ज है। ऐसे मामलों में क्षेत्र के मुखिया पर गैर-इरादतन हत्या का मामला दर्ज किया जाना चाहिए।

रिम्स के मेडिसिन विभाग के अध्यक्ष डा. जे.के. मित्रा से बात करने पर पता चलता है कि आखिर भुखमरी के शिकार व्यक्ति का पंचनामा करवाने से प्रशासन क्यों बचता है। वे बताते हैं, “भूख से होने वाली मौत का बाहर से मेडिकली कोई लक्षण नहीं दिखता है, सिवाय पोस्टमार्टम के। भूख से हुई मौत में मरीज के लीवर का वसा पूरी तरह गल जाता है। साथ ही पेट और अन्न स्टोरेज में अन्न के अंश नहीं होते। पोस्टमार्टम से भूख से होने वाली बीमारियों का पता नहीं चलता है। जैसे खाना नहीं मिलने से विटामिन बी-12 की कमी होती है, जिससे हार्ट अटैक आ सकता है। यह पोस्टमार्टम में नहीं दिखेगा। टीबी के मरीज की मौत खाना न मिलने से कमजोरी की वजह से हो सकती है, लेकिन पोस्टमार्टम में मौत की वजह टीबी ही दिखेगी।”

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झारखंड में भूख से मौत की यह कोई पहली घटना नहीं है। पिछले तीन साल के दरम्यान राज्य में भूख से 23 मौतें हुई हैं। हर मौत पर सरकारी अमला दो-चार दिन तक अपनी सक्रियता इस कदर दिखाता है गोया ऐसी घटना अब अंतिम होगी मगर फिर से सब कुछ यथावत हो जाता है। भूख से हुई तमाम मौतों को प्रशासन बीमारी से हुई मौत साबित करने में जुट जाता है।

सिमडेगा की 11 वर्षीया संतोषी की मौत हो या रामगढ़ के 40 वर्षीय चिंतामल मल्हार की, सभी मौतों को प्रशासन बीमारी से हुई मौत साबित करने की कवायद में सफल भी हो जाता है और सरकारी आंकड़ों में भूख से होने वाली मौत गायब हो जाती है। यही कारण है कि ऐसी मौतों को रोकने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए जाते हैं। वैसे भी इन मौतों को बीमारी या कुपोषण मान भी लिया जाए, तो भी इन मौतों में जो कारण उभर कर सामने आते हैं वे भोजन की अनुपलब्धता को ही दर्शाते हैं।

भात भात चिल्लाते हुए मर गयी थी संतोष

लगभग एक दशक पूर्व झारखंड के बोकारो जिला मुख्यालय से मात्र तीन-चार किलोमीटर दूर के इलाके में तीन लोगों की भूख से मरने की खबर आयी थी। यह खबर ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए थी क्योंकि बोकारो में ही एशिया का सबसे बड़ा इस्पात कारखाना भी है। एक गांव है द्वारिका ब्राह्मण जहां दो लोगों की मौत इसलिए हो गयी थी क्योंकि उन्हें मनरेगा की मजदूरी लगभग आठ माह से नहीं मिली थी और उनके कई दिन फांके में गुजरे थे क्योंकि गांव के अन्य लोगों ने भी उनकी भूख मिटाने में अपने हाथ खड़े कर दिए थे। कारण था कि उस गांव के लगभग सभी लोग मजदूर थे और सभी बमुश्किल अपना भेट भर पाते थे। गांव का नाम भले ही ब्राह्मण द्वारिका था, मगर यहां ब्राह्मण कम दलित अधिक थे।

इसकी कहानी यह है कि ब्राह्मणों ने दशकों पहले यहां दलितों को अपनी सेवा करने के लिये बसाया था। वहां आठ लोगों को मनरेगा की मजदूरी नहीं मिली थी। दो की मौत के बाद जो हंगामा खड़ा हुआ, उसके बाद जिला प्रशासन की कुम्भकर्णी नींद टूटी और बाकी मरने से बच गए। जहां बाकी की जान जाने से बच गयी, वहीं जिला प्रशासन भी भूख से हुई मौत पर अपनी जवाबदेही से बच गया। उसने बड़ी चालाकी से शहर के एक नर्सिंग होम से दोनों की मौत का सर्टिफिकेट हासिल कर लिया जिसमें मौत का कारण भूख नहीं, डायरिया बताया गया था। यह सर्टिफिकेट सबसे बड़ा मजाक था क्योंकि जिनके पास खाने के लिए अनाज का एक दाना तक नहीं था, वे निजी नर्सिंग होम में इलाज करा रहे थे।

तीसरी मौत की घटना बहुत मार्मिक है। बोकारो के ही पुरूलिया रोड स्थित कांशीझरिया के बगल में बसा एक छोटा सा टोला है। बमुश्किल दस-बारह घरों वाला मुसलमानों के इस टोले की एक सोलह साल की लड़की की मौत भूख से हो गयी थी। उस लड़की का पिता मानसिक रूप से विक्षिप्त था और मां इधर-उधर कुछ काम करके या भीख मांगकर अपना और उनका पेट पालती थी। घर के नाम पर दूसरे किसी की दीवार से सटी पलास्टिक की चादर से बनी कथित छत के नीचे वे रहते थे। बर्तन के नाम पर प्लास्टिक की गिलास और लोटा था। खाना पकाने के लिए अल्युमिनियम के दो बर्तन थे। यही उनकी कुल जमा पूंजी थी। लड़की को बुखार आया था तो किसी ने उसे बुखार उतरने की दवा दे दी थी और उसका बुखार उतर भी गया था मगर बुखार उतरते ही वह भूख-भूख की गुहार लगाकर छटपटाने लगी थी। बेटी की छटपटाहट देख मां कुछ खाना मिलने की आस में कई जगह हाथ-पैर मारी, मगर कहीं से कुछ नहीं मिला। अंतत: भूख की छटपटाहट से बेटी के प्राण पखेरू उड़ गए।

इसकी भूख से हुई मौत को मीडिया ने कोई तवज्जो नहीं दी थी। अमूमन जैसा कि होता है, भूख से हुई मौतों के बाद जब वे खबरें सुर्खियों में होती हैं तो सरकारी सुविधाएं मरने वालों के परिवार तक पहुंचनी शुरू हो जाती हैं। हम घटना के करीब 10 दिन बाद गए थे और उसकी मां सहित गांव के लोगों ने बताया था कि कोई भी सरकारी मदद नहीं मिली थी। हमने इस बाबत जानकारी के लिए जिला कलेक्टर एवं सिविल सर्जन से भेंट करने की कोशिश की थी मगर वे दोनों नदारद थे।

2017 के अक्टूबर में झारखंड के सिमडेगा की 11 वर्षीय संतोषी कुमारी की भूख से हुई मौत काफी चर्चा में इसलिए रही कि उसकी मां कोयली देवी का राशन कार्ड आधार कार्ड के अभाव में नहीं बना था, इस कारण उसे सरकारी राशन नहीं मिल पा रहा था। संतोषी स्कूल में मिलने वाले मध्याह्न भोजन से अपनी भूख मिटाती थी और थोड़ा खाना बचाकर अपनी मां के लिए भी लाती थी। कहना न होगा कि दोनों मां-बेटी को चौबीस घंटे में एक बार ही भोजन मिल पाता था। कभी-कभी कोयली देवी को कुछ काम मिल जाने से दोनों को दो समय भी खाना नसीब हो जाता था। इस बीच संतोषी की मौत का कारण बना, स्कूल का बंद हो जाना। कतिपय कारणों से कुछ दिनों के लिए स्कूल बंद हो गया। संतोषी को लगातार चार-पांच दिनों तक खाना नहीं मिल पाया और अंतत: वह भात-भात रटते-रटते मर गयी।

उसी माह धनबाद के झरिया के बैजनाथ रविदास की मौत भी राशन कार्ड के अभाव में भूख से हो गयी थी। 2017 के नवंबर में बोकारो जिले के बारू गांव की विधवा रोहिणी देवी की मौत भूख के कारण इसलिए हो गयी कि उसे 15 महीने से विधवा पेंशन नहीं मिली थी। 2 नवंबर को उसका शव उसके घर में पाया गया था। इसी तरह 13 जनवरी 2018 को गिरिडीह के थान सिंगाडीह की बुधनी सोरेन की मौत भूख से हुई।

रामगढ़ के आरा कुंदरिया का चिन्तामन मल्हार जो जंगलों से चिड़िया पकड़ कर बेच कर अपना गुजारा करता था, अस्वस्थ्य रहने के कारण जंगल नहीं जा सका और खाने के अभाव में 14 जून 2018 को उसने दम तोड़ दिया। उल्लेखनीय है कि इसी माह में गिरिडीह जिला के मंगरगड़ी गांव की सावित्री देवी की मौत भूख से उस वक्त हो गयी जब उसे राशनकार्ड के अभाव में सरकारी राशन नहीं मिल पाया और उसे लगातार चार दिन से अनाज का एक दाना भी नहीं मिल पाया था।

जून 2018 में झारखंड के चतरा में सावित्री देवी नामक महिला की मौत भुखमरी के कारण होने पर केंद्रीय खाद्य आपूर्ति व उपभोक्ता मंत्री रामविलास पासवान ने राज्य सरकार का अपराध करार दिया था। वहीं दूसरी तरफ चतरा जिले के इटखोरी बाजार में मीना मुसहरीन की मौत भी भूख से हो गयी। मीना अपने परिवार के साथ इटखोरी थाना क्षेत्र में रहकर कचड़ा चुनने का काम करती थी। वह पिछले कई दिनों से बीमार थी। दस दिनों से उसे खाना नहीं मिला था, जिससे उसकी मौत हो गयी थी।,

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वैश्विक भूख सूचकांक (जीएचआई) द्वारा जारी भुखमरी से जूझ रहे 117 देशों की रिपोर्ट पर भरोसा करें तो रिपोर्ट के मुताबिक, 2014 में जारी रिपोर्ट में भारत जहां 76 देशों की सूची में 55वें और 2017 में 119 देशों की सूची में 100वें नंबर पर रहा था, वहीं 2019 के वैश्विक भूख सूचकांक में 117 देशों की सूची में 102वें नंबर पर आ गया। इस सूचकांक में सबसे शर्मनाक बात देखने को यह मिली कि पड़ोसी देश पाकिस्तान 94वें, बांग्लादेश 88वें, नेपाल 73वें और श्रीलंका 66वें स्थान पर रहकर भारत से बेहतर स्थित में हैं। इस रिपोर्ट में बेलारूस, बोस्निया एंड हरजेगोविना और बुल्गारिया क्रमशः पहले, दूसरे और तीसरे नंबर पर हैं। वहीं, आखिर में सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक 117वें और यमन 116वें स्थान पर हैं।

भूख के आंकड़ों पर सयुंक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की 2017 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में कुपोषित लोगों की संख्या 19.07 करोड़ है जो दुनिया के कुपोषित लोगों के आंकड़ों में सर्वाधिक है। आंकड़े बताते हैं कि देश में 15 से 49 वर्ष की 51.4 फीसदी महिलाओं में खून की कमी है। पांच वर्ष से कम उम्र के 38.4 फीसदी बच्चों की लंबाई उनकी आयु के हिसाब से कम है और 21 फीसदी का वजन अत्यधिक कम है।

भोजन की कमी से हुई बीमारियों से सालाना तीन हजार बच्चे दम तोड़ देते हैं। 2016 के वैश्विक भूख सूचकांक में 118 देशों में भारत को 97वां स्थान मिला था, जो अब 117 देशों में भारत 102 वें स्थान पर है और इसे ‘गंभीर श्रेणी’ में रखा गया है।

संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन का आकलन है कि पिछले 15 वर्षों में पहली बार भूख का आंकड़ा बढ़ा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भुखमरी कुपोषण का चरम रूप है। शिशु मृत्युदर असामान्य होने का प्रमुख कारण भी कुपोषण ही है।

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इतिहास के अनुसार मानव सभ्यता की शुरुआत से लेकर मध्य युग तक भुखमरी का प्रयोग मृत्युदंड के रूप में किया जाता था। दंडित लोगों को चारहदीवारी के भीतर कैद कर दिया जाता था जिससे वे भोजन के अभाव में मर जाते थे। प्राचीन ग्रीको-रोमन सभ्यता में, भुखमरी का प्रयोग कभी-कभी ऊंचे दर्जे के दोषी नागरिकों से छुटकारा पाने के लिए भी किया जाता था, खासतौर पर रोम के कुलीन वर्ग की महिलाओं के गलत आचरण के सम्बन्ध में।

उदाहरण के लिए, 33 ईसा पूर्व टिबेरियस की भांजी और बहू लिविला को सैजनुस के साथ व्यभिचारपूर्ण सम्बन्ध होने और अपने पति कनिष्ठ द्रुसास की हत्या में सहअपराधिता के लिए गुप्त रूप से उसकी मां द्वारा भूख से तड़पा कर मार डाला गया था। टिबेरियास की एक अन्य बहू, जिसका नाम एग्रिपिना द एल्डर (ज्येष्ठ एग्रिपिना) था, (अगस्तस की पोती और कैलिग्युला की मां) भी भुखमरी के कारण मर गयी थी, हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि उसने इस प्रकार भूख से मरने का निर्णय स्वयं लिया था।

एग्रिपिना के एक बेटे और बेटी को भी राजनीतिक कारणों के चलते भूख से मार डालने की सजा दी गयी थी। उसका दूसरा बेटा द्रुसास सीज़र 33 ईसा पूर्व में कारागार में डाल दिया गया था और टिबेरियस की आज्ञा द्वारा उसे भूख से तड़पा कर मार डाला गया था (वह 9 दिनों तक अपने बिस्तर में भरे सामान को चबाकर जीवित रहा था)। एग्रिपिना की सबसे छोटी बेटी जूलिया लिविला, को अपने चाचा, सम्राट क्लौडियस द्वारा 41वें वर्ष में देशनिकाला देकर एक द्वीप पर छोड़ दिया गया था और इसके कुछ समय बाद ही साम्राज्ञी मेसलिना द्वारा उसे भूख से तड़पा कर मार डालने की व्यवस्था कर दी गयी थी।

19वीं शताब्दी में युगोलिनो डेला घेरार्देस्का, उनके बेटे और परिवार के अन्य सदस्यों को मुदा में, जो कि पीसा का एक बुर्ज़ है, में बंद कर दिया गया था और उन्हें भूख से तड़पा कर मार डाला गया था। उनके समकालीन दान्ते ने अपनी उत्कृष्ट कृति डिवाइन कॉमेडी में घेरार्देस्का के बारे में लिखा है कि 1317 में स्वीडेन में स्वीडेन के राजा बिर्गर ने अपने दोनों भाइयों को एक घातक कार्य, जो उन्होंने कई वर्षों पहले किया था, के लिए कारावास में डलवा दिया था। कुछ सप्ताह बाद वे भूख के कारण मर गए। 1671 में कॉर्नवल में सेंट कोलम्ब मेजर के जॉन ट्रेहेंबेन को दो लड़कियों की हत्या के लिए कैसल ऍन दिनस में एक पिंजरे में भूख से मरने की सज़ा देकर दण्डित किया गया था।

एक पोलैंड वासी धार्मिक भिक्षु मेक्सिमिलन कोल्बे ने आँशवित्ज़ के यातना शिविर में एक अन्य कैदी, जिसे मृत्यु की सजा दी गई थी, को बचाने के लिए अपनी मृत्यु का प्रस्ताव रखा। उसे अन्य नौ  कैदियों के साथ भूख से तड़पा कर मार डाला गया। दो सप्ताह तक भूख से तड़पने के बाद, सिर्फ कोल्बे और दो अन्य कैदी जीवित रह गए थे और उन्हें फिनॉल की सुई लगाकर प्राणदंड दिया गया।

इन प्रकरणों के जिक्र का मतलब यह है कि आज हम जब भूख से मरने वालों के सामाजिक स्तर के आंकड़ों पर नजर डालते हैं तो हम पाते हैं इन आंकड़ों में समाज का सबसे पिछड़ा वर्ग, दलित व आदिवासियों की संख्या सबसे ऊपर है। तो क्या भूख से मरने वालों के लिए इसे हम सरकारों द्वारा परोक्ष रूप से मृत्युदंड की सजा नहीं मान सकते?