राजद्रोह मामले पर अदालत के अंदर क्या हुआ? जानिए क्या है राजद्रोह की ये धारा?

मयंक सक्सेना मयंक सक्सेना
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एक ऐतेहासिक फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आज़ाद भारत में पहली बार, राजद्रोह के क़ानून की समीक्षा पूरी होने तक, इसके उपयोग पर रोक लगा दी है। मंगलवार को राजद्रोह की वैधता के मामले पर सुनवाई के दौरान, सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार से पूछा था कि क्या केंद्र सरकार सभी राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों को निर्देश देगी कि केंद्र सरकार की भारतीय दंड संहिता की धारा 124-A के पुनरीक्षण और समीक्षा का कार्य सम्पन्न होने तक राजद्रोह के मामलों को दर्ज करने पर रोक लगा दी जाए? अदालत ने इसका जवाब देने के लिए, सरकार को 24 घंटे का समय दिया था और बुधवार को आगे की सुनवाई में अदालत ने आदेश दिया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124A के तहत 162 साल पुराने राजद्रोह कानून (Sedition) को तब तक स्थगित रखा जाना चाहिए जब तक कि केंद्र सरकार इस प्रावधान पर पुनर्विचार नहीं करती।

क्या था मामला?

अलग-अलग मामलों में दर्ज याचिकाओं में, राजद्रोह के आरोपियों की ओर से ये याचिकाएं दाख़िल थी – जो कि इस क़ानून की प्रासंगिकता और वैधता को चुनौती देती हैं। इसमें एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, TMC सांसद महुआ मोइत्रा समेत पांच पक्षों की तरफ से देशद्रोह कानून को चुनौती देने वाली याचिका दायर की गई थी। जिसमें पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी, मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेमचा, छत्तीसगढ़ के कन्हैयालाल शुक्ला शामिल हैं।
टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा ने इस फ़ैसले के बाद, खुशी जताते हुए इसे जीत कहकर ट्वीट किया

क्या हुआ अदालत में, बुधवार को?

(बेंच बैठती है)

सॉलिसिटर जनरल – मैंने सरकार की ओर से एक प्रस्तावित ड्राफ्ट तैयार किया है, जिसके पीछे का इरादा ये है कि ऐसे मामलों में संज्ञेय अपराध दर्ज न किया जा सके। अगर एक बार संज्ञेय अपराध दर्ज हो जाता है तो या तो सरकार या फिर अदालत इस मामले में अंतरिम आदेश के ज़रिए रोक लगाए, ये सही प्रतीत नहीं होता है। इसलिए एक न्यायिक अधिकारी की नियुक्ति होनी चाहिए, जो इसकी समीक्षा करे और उसकी संतुष्टि, न्यायिक समीक्षा के अधीन हो।

जहां तक विचाराधीन मामलों की बात है, हम हर मामले की गंभीरता नहीं जानते हैं। हो सकता है कि कहीं पर आतंकवाद या फिर मनी लांडरिंग का मामला हो। अंततः विचाराधीन मामले, न्यायाधिकरणों के सामने लंबित हैं और हमको अदालतों पर भरोसा रखना चाहिए।
माननीय जजेस, जिस बात को तय कर सकते हैं, वो ये है कि अगर 124A IPC के मामले में कोई ज़मानत याचिका है, तो उसे जल्दी निपटाया जाए। इसके अलावा संविधान पीठ के द्वारा तय किए गए किसी भी प्रावधान पर रोक लगाना, सही तरीका नहीं होगा।

सिबल – ये हमको पूरी तरह अस्वीकार्य है

एसजी – साथ ही, चूंकि कोई भी आरोपी, अदालत के सामने नहीं है इसलिए एक जनहित याचिका के मामले में ऐसा करना, एक ख़तरनाक़ उदाहरण होगा।

जस्टिस सूर्यकांत इनके मुताबिक एफआईआर के पूर्व की समीक्षा जांच एसपी के पास जानी चाहिए। आपके अनुसार ये किसके पास जानी चाहिए?

सिबल – ये खारिज हो जानी चाहिए।

जस्टिस सूर्यकांतहवा में बातें मत कीजिए। क्या हम आज इसे खारिज कर सकते हैं? आपके अनुसार, समीक्षा और एफआईआर के रजिस्ट्रेशन के लिए निष्पक्ष और न्यायसंगत प्राधिकरण क्या हो सकता है?

सिबलक़ानून की समीक्षा होने तक, इसे किसी के पास नहीं जाना चाहिए। इस पर स्टे होना चाहिए।

जस्टिस सूर्यकांत – ये आज नहीं खारिज की जा सकती, आप जवाब दीजिए।

सिबल – मेरा जवाब यही है कि माननीय अदालत इस पर प्रथम दृष्टया स्टे लगाए।

(बेंच आपस में चर्चा करती है)

सिबल – हम अदालत में सेक्शन 124ए पर रोक लगाने की मांग करने आए ही नहीं थे। ये इसलिए हुआ क्योंकि दूसरे पक्ष की ओर से…

जस्टिस सूर्यकांत – इस मामले में बाद में ये अहम विकास हुआ है, हम इस अंतराल (क़ानून की समीक्षा होने तक) में एक कारगर समाधान तलाश रहे हैं।

एसजी – हम न्यायपालिका के सम्मान को कम कर के नहीं आंक सकते

सीजेआई रमना मिस्टर मेहता, हम ये जानते हैं…

(इसके बाद, बेंच पहले आपस में चर्चा करती है और फिर आपस में गुप्त मंत्रणा करने के लिए चली जाती है।)

(वकील, अदालत में बेंच के लौटने का इंतज़ार करते हैं।)

(न्यायाधीश लौटते हैं)

सीजेआई – कितने याचिकाकर्ता, जेल में हैं?

सीयू सिंह – क्रम संख्य 3 के याचिकाकर्ता को माननीय अदालत से प्रतिरक्षण मिला था।

सीयू सिंह (पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम की बात करते हुए) – मैं इस ओर इशारा कर रहा हूं क्योंकि सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि कोई भी आरोपी अदालत के समक्ष नहीं है

सिबल13,000 आरोपी जेल में हैं

एसजी – (वांगखेम की याचिका पर) ये याचिका एफआईआर निरस्त करने की मांग नहीं करती है। ये सेक्शन 124ए को असंवैधानिक घोषित करने की मांग करती है

सीजेआई – हम विस्तार में चर्चा कर चुके हैं…हम ये आदेश पारित कर रहे हैं। इससे पहले की सारी बातों को ध्यान में रखते हुए, भारत सरकार ने सहमति जताई है कि सेक्शन 124ए के प्रावधान वर्तमान सामाजिक परिवेश के अनुकूल नहीं हैं।

सीजेआई आदेश देते हैं – हम आशा और भरोसा करते हैं कि केंद्र और राज्य आईपीसी की धारा 124A के अंतर्गत किसी भी तरह की एफआईआर दर्ज करने से बचेंगे। जब तक इस क़ानून का पुनर्परीक्षण नहीं हो जाता, तब तक इस प्रावधान का उपयोग ठीक नहीं होगा। वे लोग, जिन पर पहले ही सेक्शन 124A के अंतर्गत मामला दर्ज है और वे जेल में हैं – वे ज़मानत के लिए याचिका दाख़िल कर सकते हैं। अगर इस मामले में कोई नया केस दर्ज होता है तो संबंधित पक्ष को अदालत जाने और हमारे द्वारा पास किए गए इस आदेश के आधार पर राहत और प्रतिरक्षण पाने का अधिकार है।
सेक्शन 124ए के तहत दर्ज किए गए सभी मामलों, अपीलों और कार्यवाहियों पर फिलहाल रोक रहेगी। दूसरे सेक्शन्स के तहत दर्ज मामले विधिक रूप से जारी रह सकते हैं, लेकिन आरोपी के प्रति किसी भी तरह के पूर्वाग्रह के बिना। साथ ही भारत सरकार के पास ये स्वतंत्रता है कि वह राज्यों और संघ शासित प्रदेशों को 124ए के दुरुपयोग को रोकने संबंधी दिशानिर्देश जारी कर सकती है।
अगले आदेश तक, ये ही निर्देश मान्य रहेंगे।

क्या है, राजद्रोह का क़ानून?

भारत में राजद्रोह का ये क़ानून, जिसे हम IPC या भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए के नाम से जानते हैं – 1860 में आया और 1870 में इसे आईपीसी में शामिल किया गया। ये ब्रिटिश सरकार के द्वारा लाया गया था और मक़सद क्या रहा होगा, ये समझना कोई मुश्किल बात नहीं है। अगर इसकी परिभाषा पर जाएं, तो ये धारा क्या कहती है – इसे पढ़ लेना चाहिए।

IPC – 124 (A)

“भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ जो कोई भी, शब्दों द्वारा, या तो बोले गए या लिखित, या संकेतों द्वारा, या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा, या अन्यथा, घृणा या अवमानना ​​में लाने का प्रयास करता है, या उत्तेजित करता है या असंतोष को उत्तेजित करने का प्रयास करता है, उसे आजीवन कारावास, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकता है, या तीन वर्ष तक कारावास और जुर्माने से दंडित किया जाएगा।”

इसकी व्याख्या के तौर पर जो स्पष्टीकरण दिए गए हैं, वो इस प्रकार हैं;

स्पष्टीकरण 1“असंतोष” की अभिव्यक्ति में विश्वासघात और शत्रुता की सभी भावनाएँ शामिल हैं।

स्पष्टीकरण 2 – घृणा, अवमानना या अप्रसन्नता को भड़काने के प्रयास के बिना, वैध तरीकों से सरकार के उपायों में बदलाव के प्रयास संबंधी टिप्पणियां, इस धारा के तहत अपराध का गठन नहीं करती हैं। (सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर आधारित)

स्पष्टीकरण 3 – घृणा, अवमानना या अप्रसन्नता को भड़काने के प्रयास के बिना सरकार की प्रशासनिक या अन्य कार्रवाई की अस्वीकृति व्यक्त करने वाली टिप्पणियां इस धारा के तहत अपराध नहीं बनती हैं। (सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के आधार पर)

दंड प्रक्रिया

राजद्रोह के लिए दोषी पाए जाने पर आजीवन कारावास और जुर्माना, या 3 साल के लिए कारावास और/या जुर्माना – इनमें से कुछ भी हो सकता है। ये संज्ञेय और गैर-ज़मानती अपराध है और सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय केस है। ये केस गैर-शमनीय हैं, यानी जुर्माना भरने से ही अपराध का शमन नहीं हो सकता है, दोषी को कारावास होना अनिवार्य है।