अलविदा फ़हमीदा रियाज़ ! अफ़सोस, हम बिलकुल तुम जैसे निकले…!

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पाकिस्तान की बेबाक शायरा और मानवाधिकार कार्यकर्ता फ़हमीदा रियाज़ का कल (21 नवंबर) को लाहौर में निधन हो गया। वे 72 साल की थीं। अपने प्रगतिशील विचारों के कारण जनरल ज़िया उल हक़ के शासनकाल में उन्हें ख़ासतौर पर तक़लीफ़ उठानी पड़ी। उन्हें पाकिस्तान छोड़ना पड़ा। काफ़ी वक़त तक वे भारत में रहीं। उनके पुरखे मेरठ के ही थे। साढ़े चार साल पहले वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप कुमार ने उनसे यह महत्वपूर्ण बातचीत की थी। साक्षात्कार के नीचे उनकी एक मशहूर नज़्म भी है जो उन्होंने भारत के बदलते हालात, या कहें कि उसके पाकिस्तान होते जाने पर तंज़ करते हुए लिखी थी- संपादक

 

बेबाक शायरी वाली फ़हमीदा रियाज़

 

फहमीदा रियाज पाकिस्तान की बेहद चर्चित और विवादास्पद कवयित्री हैं. अपने प्रगतिशील विचारों और बेबाक शायरी के कारण जनरल जिया उल हक की सैनिक तानाशाही के दौर में उन्हें भागकर भारत आना पड़ा था.फहमीदा रियाज ने भारत में कई वर्ष निर्वासन में बिताए हैं. अब भी उनका भारत आना होता रहता है. पिछले दिनों वह दिल्ली आई हुई थीं. उनके साथ हुई बातचीत के कुछ अंश.

डीडब्यलू: शायरी का आपका सफर किस तरह शुरू हुआ? थोड़ा-सा इस बारे में बताइये.

फहमीदा रियाज: कहा जाता है ‘पर्सनल इज पॉलिटिकल’ (व्यक्तिगत भी राजनीतिक है), लेकिन मैं सोचती हूं कि इसका उल्टा भी सही है कि ‘पॉलिटिकल इज पर्सनल’ (राजनीतिक भी व्यक्तिगत है). जहां तक शायरी के आगाज का सवाल है, तो आपके अंदर जो चीज क्रिएटिविटी को जगाती है, वह तो प्रेम है. जब कोई लड़की या जवान होते हैं, तो उनमें दूसरे शख्स के लिए जो तीव्र इच्छा जागती है, वही शायरी की नींव बनती है. तो जब लड़कों में दिलचस्पी पैदा हुई तब शायरी भी शुरू हो गई. यूं तुकबंदी तो मैं तीन-चार साल की उम्र में भी करने लगी थी. मेरी मां ने मुझे मेरे पिता के हाथ की लिखी हुई मेरी कुछ तुकबंदियां दिखाई थीं क्योंकि उस कच्ची उम्र में मैं जो कहती थी, उसे वह लिख लेते थे. तो मेरी शायरी की शुरुआत तो प्यार की नज्मों से ही हुई और मेरी पहली किताब ‘पत्थर की जुबां’ में आपको ऐसी ही नज्में नजर आएंगी. मैंने बाद में भी नज्में ही लिखीं. गजल की तरफ मेरी तबीयत गई ही नहीं.

आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि क्या है?

मेरा खानदान तो मेरठ का है लेकिन मैं पाकिस्तान में ही पैदा हुई और वहीं पली बढ़ी. दरअसल मेरे पिता को पाकिस्तान बनने से पहले 1930 के दशक में ही हैदराबाद (सिंध) में नौकरी मिल गई थी और हमारा परिवार मेरठ से उधर चला गया था. मेरी शादी 1967 में हुई. शादी से पहले हमने बस एक बार एक दूसरे को देखा था, वह भी बहुत सारे और लोगों की मौजूदगी में. ऐसे में हम एक दूसरे पर ठीक से नजर भी नहीं डाल पाए थे. मेरे शौहर इंग्लैंड में रहते थे और शादी के सोलह दिन बाद मैं उनके साथ वहां चली गई.

1960 का दशक अयूब खां की हुकूमत को चुनौती देने का जमाना था. यह चैलेंज छात्र आंदोलन की तरफ से आया जिसमें मैंने भी काफी बड़ी भूमिका निभाई. 1954 में पाकिस्तान में प्रगतिशील लेखक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया. सज्जाद जहीर और फैज अहमद फैज जैसे लेखकों को जेल में डाल दिया गया था. मैक्सिम गोर्की का उपन्यास ‘मां’ तक पढ़ने को नहीं मिलता था. फिर जुल्फिकार अली भुट्टो अयूब सरकार में विदेशमंत्री बने और उन्होंने चीन के साथ दोस्ती की. इसका एक अच्छा नतीजा यह निकला कि अब मार्क्सवादी साहित्य मिलना शुरू हो गया.

इंग्लैंड में क्या अनुभव हुए?

जिस साल मेरी शादी हुई, उसी साल मेरी पहली किताब छपी. मैं हैदराबाद में रेडियो में काम करती थी. तो मुझे आसानी से बीबीसी में भी काम मिल गया. फिर मेरी पहली बेटी पैदा हुई. मातृत्व का अनुभव हुआ जो केवल एक औरत को ही हो सकता है, एक दूसरी जान की अपने अंदर परवरिश करने का. लेकिन इस दौर की मेरी नज्में अरेंज्ड शादी में औरत का जो हाल होता है, इसके बारे में हैं. मेरी बहुत आलोचना भी हुई कि यह तो फ्रिजिड हैं. लेकिन हकीकत में इन नज्मों में ट्रेजेडी भरी हुई है. जब कोई औरत अपना जिस्म किसी मर्द के हवाले करती है, तो इसमें उसकी सहमति शामिल होनी चाहिए. ये नज्में हैं ‘बदन दरीदा’ में. इनमें तनहाई के अनुभवों को साफ जबान में बयान किया गया है. औरत के वक्ष की बात है तो सीधे सीधे ‘पिस्तान’ शब्द ही इस्तेमाल किया गया है. इस पर लोगों ने कहा कि लगता है यह तो बड़े बुरे केरेक्टर की औरत है. लेफ्ट के लोग भी कहते थे कि आपकी नज्में तो हमारे लिए मुश्किल पैदा करती हैं. तो मुझे इस पर भी बहुत गुस्सा आता था. खैर, 1973 में मेरा तलाक हो गया और मैं वापस पाकिस्तान आ गई.

तब तक बांग्लादेश बन चुका था. पहले मैं सिंध में सिंधी भाषा को खत्म होते देख चुकी थी. भाषा का सवाल पूर्वी पाकिस्तान में भी महत्वपूर्ण था. 1971 में मैं इंग्लैंड में ही थी और रोती रहती थी कि क्या देशभक्ति और राष्ट्रवाद के नाम पर हम ऐसे जुल्म कर सकते हैं जैसे पूर्वी पाकिस्तान में हो रहे थे?

पाकिस्तान लौटने के बाद आपको काफी परेशानी का सामना करना पड़ा. खासकर जनरल जिया के जमाने में.

पाकिस्तान लौटकर मैंने अपनी मर्जी से दूसरी शादी की. वह सिंध के किसान आंदोलन में सक्रिय थे और सिंध के चप्पे चप्पे को अपनी हथेली की तरह जानते थे. उनसे मेरे दो बच्चे भी हुए. जनरल जिया के जमाने में मुझे और मेरे परिवार को यहां आना पड़ा और यहां पर सभी ने बहुत मदद की. मुझे पढ़ाने की नौकरी मिली.

इन दिनों आपके सबसे बड़े सरोकार क्या हैं?

पाकिस्तान में मानवीय मूल्यों में लगातार कमी आती जा रही है. अब तो लगभग आधी आबादी को गैर मुस्लिम घोषित कर दिया गया है. हिंसा बढ़ रही है. इस सबसे बहुत चिंता होती है और मेरी शायरी में भी उसकी छाया आती है.

 

साक्षात्कार मई 2014 में डायचे वेले (DW Hindi) में छपा था। साभार प्रकाशित।

 

तुम बिलकुल हम जैसे निकले

 

तुम बिलकुल हम जैसे निकले
अब तक कहाँ छिपे थे भाई ?

वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गँवाई
आखिर पहुँची द्वार तुम्हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई !

भूत धरम का नाच रहा है
कायम हिंदू राज करोगे ?
सारे उल्टे काज करोगे !
अपना चमन ताराज़ (नष्ट) करोगे ?

तुम भी बैठे करोगे सोचा
पूरी है वैसी तैयारी
कौन है हिंदू, कौन नहीं है
तुम भी करोगे फ़तवे जारी

यहाँ भी मुश्किल होगा जीना
दाँतों आ जाएगा पसीना
जैसी तैसी कटा करेगी
वहाँ भी सब की साँस घुटेगी

माथे पर सिंदूर की रेखा
कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा!
क्या हमने दुर्दशा बनायी
कुछ भी तुमको नजर न आयी?

भाड़ में जाए शिक्षा-विक्षा
अब जाहिलपन के गुन गाना
आगे है गड्ढा यह मत देखो
लाओ वापस, गया ज़माना

कल दुख से सोचा करती थी
सोच के बहुत हँसी आज आयी
तुम बिल्कुतल हम जैसे निकले
हम दो कौम नहीं थे भाई.

मश्क (अभ्यास) करो तुम, आ जाएगा
उल्टे पाँव ही चलते जाना
दूजा ध्यान न मन में आए
बस पीछे ही नजर जमाना

एक जाप सा करते जाओ
बारंबार यही दोहराओ
‘कैसा वीर महान था भारत
कैसा आलीशान था-भारत’ !

फिर तुम लोग पहुँच जाओगे
बस परलोक पहुँच जाओगे

हम तो हैं पहले से वहाँ पर
तुम भी समय निकालते रहना
अब जिस नरक में जाओ, वहाँ से
चिट्ठी-विठ्ठी डालते रहना.

 



 


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