बीजेपी से सटते नीतीश और उनसे छिटकते चिराग़ के पीछे बेलछी और नगरनौसा का प्रेत!

प्रेमकुमार मणि प्रेमकुमार मणि
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क्या नीतीश और चिराग़ पर बेलछी-नगरनौसा की अवचेतन-शक्तियां हावी हैं?

 

मनोविज्ञान का गहरा सम्बन्ध मनुष्य के व्यक्तित्व और चरित्र से तो होता ही है, राजनीति से भी उसका गहरा रिश्ता होता है. जब राजनीति से उसके सम्बन्ध होंगे, तब लाजिम है, चुनाव से भी होंगे. आज हम इस मुद्दे पर थोड़ी चर्चा इसलिए करना चाहेंगे कि इससे हमारी राजनीति का एक अलग चरित्र उभरता है, जिस पर प्रायः लोगों का ध्यान नहीं जाता.

बिहार में चुनाव-प्रचार और उस से जुड़ी अन्य गतिविधियां आरम्भ हो चुकी हैं. अभी गठजोड़, गठबंधन और मोर्चे बन रहे हैं. राजनीतिक पैंतरेबाजियां भी शुरू हो चुकी हैं. दलित नेता रामविलास पासवान की पहचान लिए एक पार्टी यहाँ है, लोकजनशक्ति पार्टी, जिसे संक्षेप में लोजपा कहा जाता है. वयोवृद्ध रामविलास पासवान ने अपनी पार्टी की बागडोर बेटे चिराग को सौंप दी है, जो फिलवक्त सांसद हैं. इस चिराग ने कोई महीने भर से अपने ही गठबंधन की नींद हराम की हुई है. उसने बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू नेता नीतीश और उनकी पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. जदयू ने भी कह दिया है कि हमारा लोजपा से नहीं, भाजपा से राजनीतिक समझौता है. ऐसे में कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या लोजपा जदयू के उम्मीदवारों के खिलाफ उम्मीदवार देगी? यदि यह हुआ तो नीतीश के दल को नुकसान हो सकता है.

इसके कई अर्थ निकाले जा रहे हैं और उतनी ही व्याख्या हो रही है. एक तो यह कि इन सब के पीछे भाजपा है. उसने अपने तरीकों से नीतीश की राजनीति ख़त्म करने की एक योजना बना रखी है. वह, यानी भाजपा, लोजपा का इस्तेमाल कर रही है. भाजपा की कोशिश है कि उपरांत चुनाव राजनीति में नीतीश को किनारा कर किस तरह अपनी सरकार बना ली जाये. चर्चा यह है कि भाजपा हर हाल में चालीस विधायक लोजपा और निर्दलीय मिला कर लाना चाहती है. दरौंदा के उपचुनाव में उस ने यह प्रयोग किया था और उसे सफलता मिली थी. वहां जदयू के अधिकृत उम्मीदवार को एक निर्दल उम्मीदवार ने पराजित कर दिया. यह निर्दल भाजपा का सदस्य है. राजनीति का यह भाजपाई पाठ है. आने वाले चुनाव में ऐसे निर्दल पंद्रह-बीस हो सकते हैं, ऐसी भाजपा की तथाकथित छुपी योजना है.

लेकिन, चिराग के इस हुंकार के पीछे एक बड़ा समाज मनोविज्ञान भी है. बिहार के सामाजिक इतिहास पर जिनकी नजर है, वे इसे समझ सकते हैं. शेष को समझना मुश्किल हो सकता है. लोजपा का सामाजिक आधार दलितों का पासवान समूह है, जिसकी जनसंख्या बिहार की पूरी जनसंख्या के करीब छह फीसद है. कुल दलित जनसंख्या का लगभग एक तिहाई केवल पासवान हैं. पूरे मगध मंडल में इन पासवानों का जमावड़ा कुछ घने रूप में है. आमतौर पर देहयष्टि से मजबूत और तबियत से बहादुर यह जाति आर्थिक रूप से भले विपन्न हो, लेकिन अपनी अस्मिता को लेकर बहुत जागरूक है. आधुनिक ज़माने में इसकी पहचान अंग्रेजों ने रेखांकित की. इतिहास बतलाता है कि ब्रिटिश ‘लार्ड’ क्लाइव ने पासवानों की सेना के बूते ही प्लासी युद्ध जीता था, जिसमें नवाब सिराजुदौल्ला की हार हुई थी, और ईस्ट इंडिया कंपनी ने आंशिक तौर पर ही सही सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित की थी. यहीं से भारत में अंग्रेजी राज का आरम्भ हुआ था. यह कोरेगांव से कोई बासठ साल पहले की घटना है, जिस में महारों ने कंपनीराज से जुड़ कर पेशवाओं को हराया था.

इन पासवानों से मध्यबिहार में कुर्मियों की पुरानी दुश्मनी है. 1977 में बेलछी काण्ड हुआ, जिसकी पीड़ा सुन कर इंदिरा गांधी वहां पहुंची. यह बेलछी नीतीश कुमार के गृह क्षेत्र में है, जहाँ से वह विधायक भी थे. दरअसल यह घटना कुर्मियों और पासवानों की सीधी टक्कर थी. हुआ यह था कि 27 मई 1977 को कुर्मियों और पासवानों की एक हिंसक भिड़ंत में ग्यारह पासवानों को कुर्मियों की ‘सेना’ ने पकड़ लिया और गोइठा-लकड़ी से एक अग्निकुंड प्रज्जवलित कर उस में सब को जिन्दा ही झोंक दिया. इन ग्यारह में एक चौदह साल का राजाराम पासवान भी था, जो अग्निकुंड से भागने में किसी तरह सफल हो गया, लेकिन उसका दुर्भाग्य की उसे पकड़ लिया गया और उसे दुबारा उस कुंड में झोंक दिया गया. मैंने स्वयं उस गांव को उस घटना के कुछ महीनों बाद और उसके बाद कई दफा देखा है. जब भी गया हूँ तब उस लोमहर्षक दृश्य की कौंध मन में आयी है और विचलित हुआ हूँ .

जब इंदिरा गाँधी को पूरी घटना की जानकारी मिली तब वह बेलछी के लिए चल दीं. वह 13 अगस्त 1977 को वहां पहुंची थीं. साथ में थीं प्रतिभा पाटिल, जो बाद में राष्ट्रपति बनीं. कीचड़-पानी से भरा कच्चा रास्ता. साथ के लोग काफी डर रहे थे. रास्ते में ही रात हो गई. इंदिराजी को मना किया गया. वह नहीं मानीं. कहा, मैं अकेले भी जाउंगी, जिसको लौटना है, लौट जाए. एक हाथी मिला, किसी मंदिर में. वह भी बिना हौदे का. इंदिरा उसी पर किसी तरह सवार हुईं. पीछे प्रतिभा पाटिल थीं. कीचड़-पानी से लथ-पथ इंदिरा कोई दस बजे रात में बेलछी पहुंचीं. लोगों से मिलीं. फिर तो मुल्क के इतिहास ने एक मोड़ ले लिया था. पराजित इंदिरा गाँधी को राजनीतिक पुनर्जीवन मिल गया.

क्या चिराग के इस नीतीश-विरोध में बेलछी की अवचेतन शक्तियां है? हम बिहार की जातिवादी राजनीति को देखेंगे, तो इस पर यकीं करना होगा. यदि लोजपा का सामाजिक आधार पासवान है, तो जदयू का सामाजिक आधार कुर्मी है. बेलछी आज बड़ा हो कर बिहार बन गया है. जो लड़ाई किन्ही कारणों से रामविलास नहीं लड़ सके, उसे चिराग लड़ रहे हैं, तो इसका अर्थ है, इतिहास की अवचेतन शक्तियां उन पर हावी हैं. बहुत पहले एक बार रामविलास जी ने अपने बेटे के बारे में मुझे बतलाया था कि ‘उसमें अस्मिता से लगाव और स्वाभिमान अपने पिता, यानी मुझ से कहीं अधिक है. मैंने उसे पासवान टाइटल नहीं रखने की सलाह दी थी. उस ने रखा.’ चिराग को अपना व्यक्तित्व पजाने का इस से अच्छा अवसर और कहाँ मिल सकता था!

समाज मनोविज्ञान केवल चिराग पर ही हावी नहीं है. नीतीश पर भी है. वे बार -बार भाजपा की राजनीतिक छतरी तले यूँ ही नहीं चले जाते. इसके पीछे कुछ है. नीतीश के नालंदा में यदि बेलछी है, तो नगरनौसा भी है. मैं नहीं जानता आज नगरनौसा के कुख्यात इतिहास से कितने लोग परिचित हैं. देश की आज़ादी और बंटवारे के दरम्यान 1946 -47 में जो सांप्रदायिक दंगा हुआ था, उसका सबसे संघनित रूप मौजूदा नालंदा जिले के नगरनौसा में था. अनेक मामलों में यह घटना नोआखाली से कहीं अधिक भयावह थी. सरकारी तौर पर साढ़े सात हजार और गैरसरकारी तौर पर तीस हजार को चौबीस घंटों के भीतर कत्ल कर दिया गया था. वे अल्पसंख्यक कहे जाने वाले लोग थे. नीतीश कुमार का अपना विधानसभा क्षेत्र आज भी बिहार का सबसे कम मुस्लिम आबादी वाला क्षेत्र क्यों है? किसी ने इस पर विचार किया है? शायद नहीं. लेकिन, करना चाहिए. इस सवाल के जवाब, नीतीश कुमार के मन पर प्रभावी उस समाज मनोविज्ञान को परिभाषित कर देंगे, जिन से मुक्त होना उनके लिए प्रायः मुश्किल होता है.

नगरनौसा इलाके की घटना के बाद जिन्ना की बांछें खिल गयी थीं. उन्होंने नेहरू पर तंज कसा और पूछा- अब नेहरू बतलायें कि मुल्क में हिन्दू और मुसलमान एक साथ कैसे रह सकते हैं? जिन्ना और सावरकर के द्विराष्ट्रवाद की सैद्धांतिकी को नगरनौसा ने रेखांकित कर दिया था. गांधी,नेहरू सब यहाँ दौड़े -दौड़े आये. लेकिन मामला बिगड़ चुका था. नगरनौसा ने पाकिस्तान की बुनियाद पुख्ता कर दी थी  24 अक्टूबर 1946 से 11 नवंबर 1946 तक चले बिहार के इस सांप्रदायिक दंगे की आज तक न ढंग से जांच हुई, न इस पर कोई विशेष अध्ययन हुआ.

नगरनौसा और बेलछी के कातिल एक ही दिमागी-दुनिया के लोग थे. और यही कारण है कि रामविलास और चिराग बार -बार नीतीश के पास आते हैं और फिर छिटक जाते हैं. ठीक उसी तरह नीतीश बारबार भाजपा से दूर जाते हैं ,लेकिन फिर उसी डाल पर लौट आते हैं. आखिर कुछ तो है इसके पीछे.



 प्रेमकुमार मणि

कथाकार प्रेमकुमार मणि 1970 में सीपीआई के सदस्य बने। छात्र-राजनीति में हिस्सेदारी। बौद्ध धर्म से प्रभावित। भिक्षु जगदीश कश्यप के सान्निध्य में नव नालंदा महाविहार में रहकर बौद्ध धर्म दर्शन का अनौपचारिक अध्ययन। 1971 में एक किताब “मनु स्मृति:एक प्रतिक्रिया” (भूमिका जगदीश काश्यप) प्रकाशित। “दिनमान” से पत्रकारिता की शुरुआत। अबतक चार कहानी संकलन, एक उपन्यास, दो निबंध संकलन और जोतिबा फुले की जीवनी प्रकाशित। प्रतिनिधि कथा लेखक के रूप श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार(1993) समेत अनेक पुरस्कार प्राप्त। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे।