क्‍या है मुस्लिम ब्रदरहुड जिसके साथ आरएसएस की तुलना राहुल गांधी ने की है?



कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने लंदन के इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्ट्रेटिजिक स्टडीज में बोलते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की तुलना मुस्लिम ब्रदरहुड (जमाते-अल-इख्वान-अल-मुसलमून) से की है. इस पर सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी ने तिलमिलाते हुए प्रतिक्रिया दी है. इस संदर्भ में मुस्लिम ब्रदरहुड के इतिहास और वर्तमान पर एक नजर डालते हैं और जानते हैं कि यह संगठन है क्या.

प्रकाश के रे

इख्वान की स्थापना

साल 1928 के मार्च में मिस्र के इस्माइलिया में हसन अल-बन्ना ने ब्रदरहुड (इख्वान) की स्थापना की थी. पेशे से स्कूली शिक्षक बन्ना इस्लामिक विद्वान थे और अरब को विदेशी शासन से आजाद कर इस्लाम के आदर्शों पर आधारित राजव्यवस्था कायम करने के हिमायती थे. संगठन को बनाने में उनका साथ स्वेज नहर के छह अधिकारियों ने दिया था. उल्लेखनीय है कि उस दौर में यह नहर ब्रिटिश नियंत्रण में थी. अपने सामाजिक कामों और वंचित तबकों में पैठ के कारण संगठन बहुत जल्दी राजनीतिक रूप से असरदार हो गया और मिस्र के राष्ट्रवादी आंदोलन में दखल देने लगा. इख्वान के तौर-तरीकों ने अन्य अरबी देशों में भी अपने समर्थक बनाये. इस समूह की एक खासियत यह भी थी कि उसे इस्लामी सिद्धांतों और आधुनिकता के मूल्यों के बीच सामंजस्य और संतुलन बनाने से गुरेज न था. इस लिहाज से वह कट्टरपंथी जमातों से अलग था और इससे उसे लोकप्रियता भी मिली.

मिस्री सरकार से तनातनी

दिसंबर, 1948 में ब्रदरहुड के एक सदस्य द्वारा तत्कालीन राजशाही के प्रधानमंत्री की हत्या के बाद इस संगठन पर सरकारी दमन का दौर शुरू हुआ और फरवरी, 1949 में सरकारी एजेंटों द्वारा बन्ना की भी हत्या कर दी गयी. उस दौर में फिलीस्तीन को लेकर अरब में माहौल गर्म था और मिस्र में भी राजशाही के खिलाफ आंदोलन चरम पर था. साल 1952 में जब मोहम्मद नजीब और गमाल अब्दुल नासिर जैसे युवा सैनिक अधिकारियों ने शाह फारूख का तख्ता-पलट कर सत्ता पर कब्जा किया, तो उन्हें मुस्लिम ब्रदरहुड का भी भरपूर साथ मिला. लेकिन वे इख्वान को सत्ता में भागीदार नहीं बनाना चाहते थे. राष्ट्रपति नजीब के शासनकाल में दंगे-फसाद के आरोप में ब्रदरहुड के लोगों की धर-पकड़ होती रही. पर जब नासिर ने शासन अपने हाथ में लिया, तो इख्वान ने उनकी सेकुलर सोशलिस्ट नीतियों का खुलकर विरोध शुरू कर दिया. साल 1954 में ब्रदरहुड पर नासिर की हत्या की कोशिश का आरोप लगा. इसके बाद इस संगठन को प्रतिबंधित कर दिया गया और उसके हजारों नेताओं-कार्यकर्ताओं को जेलों में डाल दिया गया.

इन्हीं गिरफ्तार लोगों में एक लेखक सईद कुत्ब भी थे. इन्हें अगस्त, 1965 में कुछ समय के लिए रिहा किया गया था, पर सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र रचने और विद्रोह उकसाने के आरोप में जल्दी ही पकड़ लिया गया. मुस्लिम ब्रदरहुड के सिद्धंतों पर कुत्ब का सबसे अधिक असर रहा है. इन्हें छह अन्य लोगों के साथ अगस्त, 1966 में फांसी दे दी गयी. बरसों बाद अल-कायदा के सरगना ओसामा बि-लादेन ने मुस्लिम ब्रदरहुड पर कुत्ब के रास्ते से भटकने का आरोप लगाया था. कुत्ब का मानना था कि मुस्लिम देश इस्लाम की राह पर नहीं चल रहे हैं और उनका तखतापलट कर दिया जाना चाहिए. इस राय से मिस्र की ब्रदरहुड ने खुद को अलग कर लिया था और शांतिपूर्ण तरीके को स्थायी रूप से अपनी नीति बना ली.

ब्रदरहुड का विस्तार

नासिर के बाद जब अनवर सादात राष्ट्रपति बने, तब भी ब्रदरहुड पर बंदिशें जारी रहीं, लेकिन अनेक कार्यकर्ताओं को जेल से रिहा भी किया गया. सादात सरकार ने उन कार्यकर्ताओं और ब्रदरहुड नेटवर्क का इस्तेमाल वामपंथियों की गतिविधियों को नियंत्रित करने में इस्तेमाल किया था. उस दौर में ब्रदरहुड के अलावा अनेक सरकार विरोधी इस्लामी समूह वजूद में आ गये थे और 1979 में सादात द्वारा इजरायल से समझौता करने के बाद इनकी लोकप्रियता भी बढ़ी थी. साल 1981 में सादात की हत्या के मामले में भी ब्रदरहुड शक के दायरे में आया था.

लेकिन इन तमाम उतार-चढ़ाव और सत्ता के साथ उलझे रहने के बावजूद मिस्र के सार्वजनिक जीवन में ब्रदरहुड का प्रभाव लगातार बढ़ता ही गया. होस्नी मुबारक की तानाशाही में दमन के बावजूद आंतरिक अमन के लिए कुछ राहत इस संगठन को मिली. इसका परिणाम यह हुआ कि संसदीय चुनावों में ब्रदरहुड के उम्मीदवार जीतने लगे. ‘इस्लाम ही समाधान है’ के नारे के साथ वे अपने एजेंडे का प्रचार भी करते रहे तथा जन-आंदोलनों में भी भागीदारी करते रहे. मिस्र के साथ ब्रदरहुड सूडान, सीरिया, फिलीस्तीन, जॉर्डन, यमन आदि देशों में भी सक्रिय रहा. इस्लामी आदर्शों के प्रचार के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य और गरीबों की मदद पर ध्यान देने के कारण बड़े शहरों के साथ गांवों-कस्बों में उनके नेटवर्क का बड़ा विस्तार हुआ. इसका नतीजा ट्यूनिसिया में 2011 में इनहादा पार्टी की जीत तथा मिस्र में 2012 में मोहम्मद मोरसी के राष्ट्रपति चुने जाने और फ्रीडम एंड जस्टिस पार्टी की जीत के रूप में सामने आया. हालांकि 2013 में जॉर्डन की इस्लामिक एक्शन फ्रंट ने ब्रदरहुड से संबंध तोड़ने की घोषणा कर दी थी, पर संसद में उसकी बड़ी मौजूदगी है. मौजूदा दशक के शुरू में हुए अरब जनांदोलनों के बाद अलजीरिया, लीबिया आदि देशों के चुनाव में भी ब्रदरहुड से जुड़ी पार्टियों को खूब वोट मिले थे. बहरीन की संसद में भी ब्रदरहुड के कुछ सदस्य हैं, जो मिन्बार पार्टी से जुड़े हैं.

ब्रदरहुड पर कहर

मिस्र में 2013 में सेना ने मोरसी को हटा दिया और सेनाध्यक्ष अब्दुल अल-सिसी राष्ट्रपति बने. इस तख्तापलट को वामपंथी और उदारवादी संगठनों के साथ विभिन्न इस्लामिक समूहों का भी पूरा समर्थन मिला. अभी हालत यह है कि अपदस्थ राष्ट्रपति मोरसी और ब्रदरहुड के सर्वोच्च नेता मोहम्मद बदी के साथ सभी बड़े नेता जेल में हैं. साथ ही, छह सौ से अधिक वरिष्ठ कार्यकर्ता भी हिरासत में हैं. विभिन्न आरोपों में लगभग सभी को मौत की सजा दिये जाने की आशंका जतायी जा रही है.

अरब की राजनीति में महत्व

पिछले साल जून में अमेरिकी कांग्रेस की विदेश संबंधों की हाउस कमिटी के सामने विदेश सचिव रेक्स टिलरसन ने कहा था कि समूचे मुस्लिम ब्रदरहुड पर ‘आतंकी समूह’ का लेबल चस्पा करना मध्य-पूर्व की राजनीति और सुरक्षा को उलझाना होगा. उनका कहना था कि इस संगठन की सदस्यता पचास लाख से अधिक है और इसके कई सदस्य उस इलाके के अनेक देशों में सरकार और संसद में शामिल हैं. बहरीन और तुर्की की संसद में ब्रदरहुड के लोगों के होने का हवाला देते हुए टिलरसन ने कहा था कि ऐसा इसलिए हो पाया है क्योंकि उन सदस्यों ने हिंसा और आतंक की राह को खारिज कर दिया है. भले ही टिलरसन मध्य-पूर्व के देशों के साथ अमेरिका के संबंधों और हितों के हक में ब्रदरहुड के बारे में ऐसी राय व्यक्त कर रहे हों, पर उनके इस बयान से पहले उसी महीने नजदीकी अमेरिकी सहयोगी देशों- सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, मिस्र और यमन- ने कतर से इस आधार पर अपने सभी संबंध तोड़ लिए थे कि वह मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे ‘अतिवादी’ संगठनों को सहयोग देता है. सऊदी अरब की इस पहल में दक्षिणी एशियाई द्वीपीय देश मालदीव भी शामिल था.

सऊदी अरब और इख्वान

फिलहाल मिस्र, बहरीन, रूस, सऊदी अरब, सीरिया और संयुक्त अरब अमीरत ने मुस्लिम ब्रदरहुड को एक आतंकी संगठन के रूप में चिन्हित किया हुआ है. साल 2015 में अल-जजीरा के साथ बात करते हुए जदालिया पत्रिका के सह-संपादक मोईन रब्बानी ने कहा था कि पूर्व सऊदी शाह अब्दुल्ला के दौर में सऊदी अरब सुन्नी इस्लामवाद के उस रूझान को अपने अस्तित्व के खिलाफ एक एक खतरे के रूप में देखता था, जो राजनीतिक भागीदारी और चुनावी वैधता का पक्षधर था, और मुस्लिम ब्रदरहुड इस रवैये का शायद सबसे बेहतर उदाहरण है. लोकतांत्रिक तौर-तरीके से इस्लामवाद को आगे बढ़ाने का नजरिया सऊदी अरब की इस्लामी राजनीति के मॉडल से बिल्कुल अलग है.

शाह सलमान के गद्दी पर बैठने के साथ सऊदी शासन के रवैये में बदलाव आता दिखा था. उन्होंने 2015 में ऐसे अनेक वरिष्ठ नेताओं को मुलाकात के लिए बुलाया था, जो ब्रदरहुड से जुड़े हुए हैं. इनमें ट्यूनिसिया की इनाहादा पार्टी के राशिद गनौची, यमन की अल-इस्लाह पार्टी के अब्दुल माजिद जिंदानी और फिलिस्तीनी हमास के खालिद मिशाल जैसे नेता भी शामिल थे. ये मुलाकातें इसलिए खास थीं क्योंकि सऊदी अरब ने 2013 में मिस्र में सेना द्वारा मुस्लिम ब्रदरहुड से जुड़े निर्वाचित राष्ट्रपति मोहम्मद मोरसी को पद से हटाने और समर्थकों पर कहर बरपा करने की कार्रवाई का पूरी तरह समर्थन किया था. मार्च, 2014 में सऊदी अरब ने ब्रदरहुड को आतंकी संगठन भी घोषित कर दिया था.

शाह सलमान के आने के बाद सऊदी नीति में बदलाव का एक कारण यह बताया गया था कि उसका इरादा ईरान के खिलाफ एक बड़ा गठबंधन बनाने का है. दूसरा कारण यह चिन्हित किया गया कि मुख्यधारा की नरम और राजनीतिक इस्लामी संगठनों के कमजोर पड़ने का फायदा इस्लामिक स्टेट जैसे उग्र और उन्मादी गिरोहों को मिला तथा सऊदी अरब इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़ाई में मुस्लिम ब्रदरहुड का साथ चाहता है. पर पिछले साल कतर प्रकरण के साथ यह सब कवायद थम गयी और अब सऊदी अरब में भी सत्ता की बागडोर शहजादा मोहम्मद बिन सलमान के हाथ में केंद्रित है, जिनकी राजनीतिक रणनीति के तेवर कुछ और ही हैं.