2019 में इंतज़ार पंचतंत्र के उस बच्चे का है जो कहे कि ‘राजा — है ?’


जितने किसान खुदकुशी करते हैं उससे दोगुना युवा-छात्र-बेरोजगार खुदकुशी करते हैं पर कहेगा कौन ?




पुण्य प्रसून वाजपेयी

क्या मीडिया किसी देश को चला सकता है? क्या सूचना तंत्र के आसरे किसी देश को विकसित किया जा सकता है ? क्या तकनालाजी का विस्तार देश का विस्तार होता है? क्या विकास का मतलब किसी देश में मुनाफा बनाने का मॉडल हो सकता है? क्य़ा प्रकृति से खिलावाड़ आधुनिक होने की छूट दे देती है ? क्या ताकत दिखाना ही सत्ता का प्रतीक है? या फिर सत्ता का मतलब ही विशेषाधिकार पा कर समूचे देश को निजी जागीर मान लेना है ? और 21 वीं सदी के भारत में समूची होड़ ही इसे पाने या समेटने की हो चली है? यह सारे सवाल आने वाले वक्त में भारत की चौखट पर दस्तक देगें, और कुछ तो दे रहे है , इंकार इससे किया नहीं जा सकता है । सिलसिला कहीं से भी शुरु हो सकता है। 

लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मीडिया हाथ में होगी तो सच किसी तक पहुंचेगा ही नही! सत्ता ये सोच सकती है और इसे हकीकत का जामा पहुंचा सकती है। मौजूदा वक्त इसे अपने में समेट चुका है । सवाल सिर्फ जस्टिस लोया या पत्रकार गौरी लंकेश या फिर सामाजिक कार्यकत्ता दाभोलकर की हत्या के बाद एक अनंत खामोशी का नहीं है। बल्कि रोज ब रोज दो चार होती जिन्दगी के सामने जो सवाल सरकार की नीतियो के आसरे उभरते हैं उसका सच भी छुपा लिया जाता है या फिर बताया ही नहीं जाता। ये सवाल सत्ता के सिंकदर को हमेशा अच्छा लगता है कि उसकी नीतियां शानदार है। चमकदार हैं ।मावनवीय हैं । लेकिन जमीनी सच अगर इसके उलट है तो फिर सरकारी नीतियों की खाल कौन उधेड़ेगा। या फिर सच है क्या, इसे कौन बतायेगा और कौन जानेगा? अगर मीडिया-तकनालाजी का हर चेहरा खामोशी बरतेगा या राजा को खुश करने के लिये नीतियो की बड़ाई ही करेगा तो होगा क्य़ा, या फिर हो क्या रहा है ?

जनधन खाता खुला। लेकिन जनधन के तहत बैंक दर बैंक खाता खुलवाने वाले आज करोड़ों की तादाद में होकर भी अकेले हैं । क्योंकि जनधन के प्रचारित-प्रसारित आंकडे़ लोक लुभावन तो हैं लेकिन उसके भीतर के सच को कोई बताने-दिखाने की स्थिति में नहीं है। या फिर बताने की हिम्मत ही नहीं दिखाता कि जनधन का खाता खोल कर बैठे करोड़ों लोगों या परिवार दो जून की रोटी के लिये कैसे तरसते है। और बैक कैसे सिर्फ कागजो के आसरे आंकड़ों को बढ़ाते हैं । अठन्नी भी किसी की जेब या हथेली तक पहुंच नहीं पायी है । पर कहे कौन ?
 
पन्नों को एक एक कर पलटें । और सोचें कि 2014 में दो करोड़ रोजगार हर बरस देने का वायदा किसने किया था। और वादा जब लापता है तो फिर लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ वादा तो दूर बेरोजगारी तले आक्रोश की भट्टी पर बैठे देश के भीतर का मवाद सामने लाने से कतरा क्यो रहा है? कौन कहेगा कि कि 18 बरस की उम्र वोट देने के काबिल बना देती है लेकिन 18 बरस होते ही जिन्दगी की कठिनाइयों से बेफिक्र सत्तानशीं युवा भारत को एक ऐसे अंधेरे में धकेल रहे हैं जहाँ का एकाकीपन करोड़ों युवाओ को अकेला कर मौत की तरफ घकेल रहा है। एमसीआरबी के आंकडे ही बताते हैं कि देश में जितने किसान खुदकुशी करते हैं उससे दोगुना युवा-छात्र-बेरोजगार खुदकुशी करते हैं पर कहेगा कौन ?  

2016 में सर्जिकल स्ट्रइक के जरिये देशभक्ति और राष्ट्रवाद की अनोखी लकीर खींची गई । लेकिन उसके बाद जवानों के शहीद होने का सिलसिला पुराने तमाम आंकड़ों को पार क्यों कर गया? और ये अब भी जारी क्यो हैं? पाकिस्तान तो दूर की गोटी है आंतक को मुंह को पकड़ने की बात भी दूर की कौडी हो गई। उल्टे कश्मीर की वादियों को ही आंतक का पनाहगार बनाने के दिशा में बढ़ गये । पर कहेगा कौन कि ना कश्मीरी पंडितो को घर मिला न कश्मीरी मुस्लिमों को सुकुन मिला। उल्टे दिल्ली की सियासत ने जम्मू और कश्मीर में बिखरे हिन्दु-मुस्लिम कश्मीरियों को पाठ पढ़ा दिया कि सियासत से ज्यादा खतरनाक कुछ भी नहीं। चाहे वह लोकतंत्र का राग गाते रहे। पर कहेगा कौन ?

2016 में नोटबंदी तले एलान जो भी हुये हों लेकिन लाइन में लगने वालों की मौत का आंकडा जब सौ पार कर गया तो चौराहे का जिक्र हुआ। लेकिन तब पचास दिन मांगे गये थे, अब तो हजार दिन होने को आ रहे हैं, लेकिन तिल तिल कर मरते ग्रमीण भारत के किसान मजदूर और असंगठित क्षेत्र में नोटबंदी के बाद सबकुछ गंवाने वाले 35 करोड़ भारतीयों के पेट के घाव के लिये कोई मलहम तो दूर सिर्फ सच कहने की हिम्मत भी मीडिया क्यों नहीं जुटा पाता है? और लाल दीवारों में कैद राजा ठहाके लगाकर बार बार ये कहने से नहीं कतराता कि नोटबंदी ने मौत नहीं जिन्दगी दी है। पर कहे कौन और मिट्टी की दीवारों या खपरैल की छतों के भीतर जाकर झाँके कौन और जो दिखायी दे उसे बताये कौन कि हर सरकारी निर्णय के बाद भारत और घायल क्यों हो रहा है? 

2017 में जीएसटी को दूसरी आजादी का प्रतीक बना दिया गया था । पर आजादी किससे मिली ये क्या किसी धंधेवाले या धंधे से जुड़े मजदूर या हुनुरमंद कारीगरों से जाकर किसी ने पूछा? ‘नौ करोड़ खुदरा व्यापारी मुनाफा कमा रहे थे लेकिन जीएसटी ने मुनाफे की लूट खत्म कर दी’ – लाल दीवारों के भीतर मैसेज तो यही दिया गया । ठीक वैसे ही जैसे नोटबंदी के वक्त मैसेज था – ‘रईस फंस गये और रईसो के फंसने पर गरीब खुश हो गया।’

कमाल की सोच है। और इस कमाल को, राजा खुले तौर पर मंच दर मंच नाटकीय अंदाज में कहने से नहीं चुकता ! यानी सही होने का भरोसा किस तरह लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ ने जगा कर रखा है, और अपनी ही बनायी दुनिया के अपने ही मीडिया को भरोसा जगाने वाला मान कर राजा भी भरोसे से सराबोर हो चला है ,ये भी खुल्लम खुल्ला है। पर कहे कौन कि जीएसटी ने सिस्टम को और ज्यादा भ्रष्ट बना दिया। टैक्स और एक्साइज की वसूली वाले नये थानेदार हैं। और व्यापारियो की बंद होती दुकानो के बीच बाबूओ की दुकान चल पड़ी है । पर कहे कौन? 

वाकई कौन कह सकता है कि नाम बदलने से कुछ नहीं होता! पर 2018 में चलन तो नाम बदलने का ऐसा चल पड़ा कि बदलते नाम के जरिये इतिहास के पन्नों को टटोलने का काम लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ करता रहा। लेकिन ये कहने बताने की हिम्मत किसी में नहीं रही कि नाम बदलने के एलान के बाद सरकारी दस्तावेजों से लेकर सार्वजनिक जगहों पर भी बदले हुये नाम की पट्टी लगाने का जो खर्च और वक्त व्यर्थ होता है, उससे पीठ और पेट को एक करते शहरों को दो जून की रोटी देकर सिस्टम ठीक करने की दिशा में बढा जा सकता है । सवाल ये नहीं है कि गवर्नेंस गायब है, सवाल है कि गवर्नेंस बगैर, गेरुआधारी होकर सत्ता चलाने का सुकुन राम राज्य को कोरी कल्पना बना सकता है, पर कहे कौन?
 
इस फेरहिस्त तले सत्ता के सांसद हों या मंत्री, संवैधानिक संस्थान हो या स्वयत्त संस्था, या फिर देश का सबसे बड़ा सत्ताधारी परिवार यानी संघ परिवार ही क्यों ना हो , सभी मीडिया, टेकनोलॉजी,सूचना तंत्र की आगोश में इस तरह आ चुके हैं कि खुद को कुछ समझते नहीं या फिर राजा के तंत्र के आगे ,सभी नतमस्तक होकर सत्ता सुख को ही जिन्दगी का आखिरी सच मान चुके हैं। यानी सवाल यही नहीं है कि राजा के सामने बोले कौन? सवाल तो यह भी है कि तंत्र की जो घुट्टी लगातार परोसी जा रही है उसमें नैतिक बल गायब हो चला है। ईमानदारी बेमानी सी लगने लगी है। अपने पैरों पर खड़ा कर कुछ कह पाने की हिम्मत के लिये राजा के पांव ही देखे जा रहे हैं । तो संभले कौन और संभाले कौन? जब देश में नीतियो का बोलबाला हो। मन की बात संविधान हो। पंसदीदा को इंटरव्यू देना लोकतंत्र का जीना हो। और खुद ही सवाल बताकर खुद ही जवाब देने का प्रचलन आजादी का प्रतीक हो तो फिर 2019 में इंतजार चुनाव का करें, या इंतजार उस बच्चे का करें ,जो राजा के सामने खड़ा हो भोलेपन में पंचतंत्र की कहानी की तर्ज पर कह दे– “राजा तो—है।”.

लेखक मशहूर टीवी पत्रकार हैं।