क्या जीएसटी को लेेकर सरकार सही आंकड़े बता रही है?



 

रवीश कुमार

 

जीएसटी की दर को लेकर प्रधानमंत्री, अरुण जेटली और पीयूष गोयल तीनों का एक ही बयान छपा है मगर अखबारों में तीनों को अलग अलग स्पेस मिला है। एक बयान अगर दस लोग देते तो दस ख़बरें अलग से छपतीं। बिजनेस स्टैंडर्ड के नितिन सेठी को आप फोलो कर सकते हैं। यह पत्रकार ज़बरदस्त है। अप्रैल महीने में जीएसटी की वसूली कम हुई है। 940 अरब रुपये ही हो सकी है। राजस्व सचिव आधिया बेफिक्री से कहते हैं कि इसकी तुलना मार्च से नहीं होनी चाहिए क्योंंकि अप्रैल में कम वसली होती है।

नितिन सेठी और ईशान बख़्शी ने लिखा है कि अगर यही सही है तो फिर राजस्व सचिव ने क्यों केंद्र सरकार के अधिकारियों को हड़काते हुए लिखा है कि उनका प्रदर्शन राज्य सरकार के अधिकारियों की तुलना में बहुत ही ख़राब रहा है। सीएजी की रिपोर्ट बताती है कि मई महीने के लिए जीएसटी की वसूली अप्रैल से भी खराब है। सरकार के भीतर ही अलग अलग दावे हैं। इसलिए ठीक से आंकलन करना मुश्किल है कि जीएसटी कितना बेहतर कर रही है।

नितिन सेठी लिखते हैं कि सरकार बता देती है कि कितना जमा हुआ है लेकिन यह नहीं बताती है कि जो जमा हुआ है, उसमें से कितना वापस करना है, कितना वापस किया गया है। बिजनेस स्टैर्डन ने जब आर टी आई के ज़रिए महीने के हिसाब से सभी प्रकार का डेटा मांगा है, मंत्रालय का जवाब आया है कि उसके पास इस तरह का डेटा नहीं है। जीएसटी के चार तत्व हैं। एक केंद्र की जीएसटी है, एक राज्य की जीएसटी है, एक इंटिग्रेटेड जीएसटी है और एक कंपनसेशन सेस। इन सबके बंटवारे के बाद केंद्र सरकार के पास कितना पैसा आता है, यह सरकार कभी नहीं बताती है। अगर नितिन सेठी के इस सवाल और बात में दम है तो जीएसटी के पहले तमाम राज्यों की कर वसूली का डेटा जोड़ कर बताया जाता तो शायद एक लाख अरब से ज्यादा दिखता है।

आप नितिन सेठी की इस रिपोर्ट को पढ़िए। जीएसटी को समझने में मदद मिलेगी। जैसे कि वे कहते हैं कि सीएजी ने ही कहा है कि 2017-18 के लिए जो जीएसटी ली गई है उसके 1.69 खरब रुपये का एडजस्टमेंट नहीं हुआ है। इस रिपोर्ट को पढ़ कर लगता है कि जीएसटी को देखने के और भी कई तरीके हो सकते हैं।

जीवन बीमा ने 21 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में निवेश किया है। इनमें से 18 में उसे नुकसान है। किसी में यह नुकसान कम है तो कइयों में भयंकर है। सवाल है कि जीवन बीमा घाटे का निवेश खुद से करता है या फिर बैंकों को घाटे से बचाने के लिए इससे करवाया जाता है। सरकार ने कहा था कि वह बैंकों के बेलआउट के लिए पैसे देगी। अगर एक सार्वजनिक क्षेत्र को डुबा कर दूसरे को बचाना है तो फिर ये बेलआउट कैसे हुआ।

आई डी बी आई में पहले से जीवन बीमा का 10 फीसदी से अधिक का निवेश है। जिस पर जीवन बीमा को 41 फीसदी से अधिक का घाटा हो रहा है। इसके बाद भी जीवन बीमा से कहा गया है कि वह अब इसी बैंक में 51 फीसदी का निवेश करे। ख़बरों के मुताबिक भारतीय जीवन बीमा आईडीबीआई बैंक में 13000 करोड़ का निवेश और करेगा।

आखिर जीवन बीमा को क्यों मजबूर किया जा रहा है निवेश के लिए? क्या भारतीय जीवन बीमा को भी ज़बरन उस स्थिति में पहुंचा देना है जहां आज आईडीबीआई है। इससे किसे फायदा होगा? निजी क्षेत्र की बीमा कंपनियों को या भारतीय जीवन बीमा को?

जीवन बीमा को सिर्फ तीन सरकारी बैंकों में निवेश से लाभ है। पंजाब नेशनल बैंक में निवेश कर 47 फीसदी का नुकसान है। बैंक ऑफ इंडिया में 33 फीसदी का नुकसान है। बिजनेस स्टैंडर्ड में अद्वैत राव, समीन मुलगांवकर, श्रीपद की रिपोर्ट है आप भी पढ़ सकते हैं।

IDBI बैंक का एनपीए 55 हज़ार करोड़ से अधिक हो चुका है। 18 हज़ार से अधिक का लोन अभी और डूबने के कगार पर है। इस तरह से इसका एनपीए 36 फीसदी का हो जाएगा जिसका मतलब यह हुआ कि अगर बैंक ने 100 रुपये लोन दिए हैं तो 36 रुपये की वापसी के आसार नहीं हैं।

सरकार ने अपनी तरफ से पूंजी डालने की बात कही थी, लगता है वो हुआ नहीं। इसका बाकी बैंकों से विलय भी नहीं हो सकता क्योंकि उनकी भी हालत ख़राब है। मगर क्या जीवन बीमा को मजबूर करना ही एकमात्र विकल्प था या फिर उसके अलावा कोई और निवेशक मिल ही नहीं सकता था?

जीवन बीमा के कर्मचारी भी इसे लेकर नाराज़गी ज़ाहिर कर रहे हैं और आई डी बी आई के बैंकर तो नाराज़ है हीं। बैंक कर्मचारियों की यूनियन ने भी चेतावनी दी है। सरकार कदम बढ़ा चुकी है। इसकी वापसी के आसार तो दिखते नहीं हैं। अब यह बैंक कर्मचारियों के नैतिक और आत्म बल पर ही निर्भर करता है कि वे अपने संघर्ष से सरकार को कितना मजबूर कर पाते हैं। अभी बैंकरों को अपनी सैलरी, पेंशन और ग्रेच्युटी की मुश्किल लड़ाई भी जीतनी है। पिछले सात आठ महीनों के संघर्ष के बाद भी सरकार को कुछ फर्क नहीं पड़ा है। सरकार ने भी तय कर लिया है कि उसे बैंकिंग सेक्टर के लोगों से वोट नहीं चाहिए या फिर उसे पता है कि ये लोग उसे ही वोट देंगे जाएंगे कहां।

बिजनेस स्टैंडर्ड में एक और रिपोर्ट छपी है कि जानकारों का एक गुट मानता है कि जीवन बीमा का निवेश बैंक के लिए फायदेमंद साबित होगा। बैंक अपने कर्ज़ से बाहर आ सकेगा। बैंक भी कर्ज़ में डूबा हुआ है, उससे कर्ज़ लेने वाला भी कर्ज़ में डुबा हुआ है। कुछ लोगों का कहना है कि बीमा की इस पूंजी से खास लाभ नहीं होने वाला है।

2017-18 में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की रफ्तार धीमी पड़ गई है। पांच साल में सबसे कम है। पिछले साल मात्र 3 फीसदी की दर से निवेश बढ़ा है। जबकि यह 2016 में 17.29 प्रतिशत की दर से बढ़ा था। 2018 के पहले छह महीने में बाहरी निवेशकों ने बाज़ार से 480 अरब रुपया बाहर निकाल लिया है। पिछले दस साल में इतना पैसा कभी बाहर नहीं गया था।

आपने मंत्रियों को कहते सुना होगा कि भारत में फोन बनाने वाले कंपनियों की संख्या 2014 में 10 से बढ़कर 2018 में 120 हो गई हैं लेकिन इनमें से ज़्यादातर कंपनियां बाहर से पुर्ज़ों का आयात कर भारत में असेंबल कर रही हैं। बिजनेस स्टैंडर्ड के किरण राठी और सुभायन चक्रवर्ती ने लिखा है कि व्यापार और उद्योग मंत्रालय का डेटा ही बताता है कि इलेक्ट्रानिक कंपनियों का व्यापार घाटा पिछले पांच साल में दुगना हो गया है। इसका मतलब है कि वे आयात ज़्यादा कर रही हैं, निर्यात कम कर पा रही हैं।

इंडियन सेलुलर एसोसिएशन के पंकज महिन्द्रू ने कहा है कि 2012 में नेशनल पालिसी आन इलेक्ट्रानिक बनी थी जिसमें अनुमान ज़ाहिर किया गया था कि 2020 तक 400 अरब डॉलर का कारोबार हो जाएगा। महिन्द्रू के अनुसार यह अनुमान व्यावहारिक नहीं है और बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है। उन्होंने यह भी कहा कि मोबाइल फोन का सेगमेंट अच्छा कर रहा है। मगर एल ई डी का सेगमेंट बैठ गया है। एयर कंडीशन, फ्रिज, मेडिकल इलेक्ट्रानिक और उपभोक्ता इलेक्ट्रानिक की हालत बहुत ख़राब है।

सरकार का मोबाइल कंपनियों पर ही फोकस रहा है जिसके कारण 10 से 120 हो गई है जबकि ज्यादातर असेंबली का काम कर रही हैं। बहुत ज़्यादा वैल्यू नहीं जोड़ पा रही हैं। सरकार की प्रोत्साहन नीति का भी लाभ नहीं दिख रहा है, कम से कम जैसा सोचा गया था। जो निवेश का वादा था वो भी कम हुआ है। पिछले साल अप्रैल तक 269 निवेश के प्रस्ताव आए थे लेकिन इस साल अप्रैल तक घट कर 238 ही रह गया। बहुत सी कंपनियां अपने प्रस्ताव के साथ यहां के बाज़ार से बाहर हो गईं।

हिन्दी के अख़बारों में इन सूचनाओं की इतनी कमी है कि कई बार लगता है कि दस बारह अखबारों से ऐसी ख़बरों को जमा कर उनका अनुवाद किया जाए ताकि पाठकों के सामने सरकार के दावे के साथ साथ दूसरी तस्वीर भी हो। कई लोग समझते हैं कि सरकार के विरोध में लिख रहा हूं। यह सही नज़रिया नहीं है। हम सभी को आर्थिक मामलों में कुछ बेहतर साक्षर होना चाहिए। इसके लिए मेहनत भी करनी होगी। आप ही बताएं कि क्या किसी हिन्दी अख़बार या चैनल में इतनी सामग्री मिलगी?