मोदी को कोटलर का ईनाम : खग ही जाने खग की भाषा


कोटलर के मुताबिक राष्‍ट्र को, जनता को, सरोकार को, विचार को भी बेचा जा सकता है




अभिषेक श्रीवास्‍तव

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पहला फिलिप कोटलर प्रेसिडेंशियल अवॉर्ड मिला है। कोटलर को जो जानते हैं उन्‍हें तो आश्‍चर्य है ही कि उनके नाम पर बनाया उन्‍हीं का पुरस्‍कार एक राष्‍ट्राध्‍यक्ष को कैसे मिल गया, कहीं कोटलर गुज़र कर महान तो नहीं हो गए। जो कोटलर को नहीं जानते हैं, वे इतना तो जान ही गए कि दुनिया में फिलिप कोटलर नाम का एक व्‍यक्ति है जिसने अपने नाम पर एक पुरस्‍कार छोड़ रखा है जिसका पहला योग्‍य प्रत्‍याशी महान भारतवर्ष के प्रधानमंत्री को माना गया। फिलहाल, सोशल मीडिया पर इस पुरस्‍कार को लेकर मोदी की पीठ काफी थपथपायी जा रही है। बड़े-बड़े संपादक सराहना भरे ट्वीट कर रहे हैं। जाहिर है कुछ तो महान बात होगी, वरना किसे फर्क पड़ता है कि फिलिप कोटलर विदेश की एक युनिवर्सिटी में मार्केटिंग का एक अदद मास्‍टर है जिसकी किताबें एमबीए करने वालों के लिए बाइबल के समान हैं और जाड़े में मटर के भाव पसेरी में बिकती हैं।  

गलत गुरु के गड़बड़ चेले  

कोटलर का नाम मुझे पहली बार आज से कोई पंद्रह साल पहले एमबीए पासआउट अपने एक मित्र से सुनने को मिला था जो आम तौर से भौंहें चढ़ाकर जुमलों में बात करता था। मसलन, कोटलर का नाम लेकर वह वह कहता था कि मार्केटिंग का असल मतलब रेगिस्‍तान में रहने वाले को रेत बेच देना या गंजे को कंघी बेच देना होता है। वह कहता था ‘’काउंट योर एग्‍स बिफोर दे हैच’’। मैंने उससे कहा कि अंडा फूटने के बाद पीली वाली जर्दी देखकर भी उनकी संख्‍या बतायी जा सकती है, पहले गिनने की क्‍या ज़रूरत। फिर वो मुझे कोटलर का दर्शन समझाता। उस मित्र के करियर की शुरुआत येलोपेज में सूचीबद्ध होने के लिए ग्राहकों से फर्जी चेक लाने से हुई और आज करियर की ढलान पर वह रियल एस्‍टेट डेवलपर बनकर कोटलर को परी तरह भूल चुका है। साथ के कई और लड़के जो एमबीए में गए, वे वाकई महानगरों में कंघी या कच्‍छे बेचकर ही लंबे समय तक गुज़़ारा करते रहे अलबत्‍ता गंजे उनसे ज्‍यादा समझदार निकले। आज ये अधिकतर लड़के विशुद्ध भारतीय ठेकेदारी कला में कोटलर के ज्ञान को अदृश्‍य तरीके से खपा रहे हैं।

शिकागो की बड़ी कंसल्टिंग फर्म स्‍पेंसर स्‍टुअर्ट के अध्‍ययन के मुताबिक ‘’शीर्ष 100 कंपनियों में चीफ मार्केटिंग ऑफिसर का औसत कार्यकाल 23 महीने का होता है। परिधान उद्योग में यह कार्यकाल केवल दस माह का है।‘’ अजीब बात है कि आप एमबीए की डिग्री लेने में इतने पैसे खर्च करते हैं और इतनी मेहनत लगाते हैं ताकि भविष्‍य सुनहरा हो लेकिन आपका नियोक्‍ता दो साल भी आपको बरदाश्‍त नहीं कर पाता और नौकरी से निकाल देता है। आखिर गड़बड़ कहां है? मैकगिल युनिवर्सिटी के हेनरी मिंज़बर्ग इसका जवाब देते हैं: ‘’बिजनेस स्‍कूल गलत लोगों को गलत तरीकों से प्रशिक्षित करते हैं जिनके नतीजे भी गलत निकलते हैं।‘’ अलेग्‍जेंडर रेपीव ने फिलिप कोटलर के ऊपर एक लंबा आलोचनात्‍मक परचा लिखा है ‘’कोटलर एंड कोटलरॉयड्स’’। वे हेनरी के इस निष्‍कर्ष में दो बातें और जोड़ते हैं: ‘’…गलत शिक्षकों और गलत पाठ्यक्रमों के साथ।‘’

देश बेचने का ईनाम?

फिलिप कोटलर की कुंडली पर आने से पहले आइए उनके नाम पर शुरू किए गए इस पुरस्‍कार के बारे में दो-तीन बातें जान लें। तब हम बेहतर समझ पाएंगे कि प्रधानमंत्री मोदी को इसका पहला हक़दार क्‍यों समझा गया और यह भी कि आखिर खग को ही खग की भाषा क्‍यों समझ में आती है। कोटलर अवॉर्ड का वेबपेज कहता है: ‘’कोटलर अवॉर्ड को इसलिए बनाया गया है ताकि वह राष्‍ट्र-उद्योग की प्रतिस्‍पर्धा में संवर्द्धन कर सके…।‘’ इसके आगे पढ़ने की ज़रूरत नहीं है। कोटलर अवॉर्ड वाले राष्‍ट्र को एक ‘उद्योग’ मानते हैं। अब आप फिलिप कोटलर के बारे में चार शब्‍द विकीपीडिया से सुनें: ‘’कोटलर की दलील है कि मार्केटिंग के क्षेत्र का विस्‍तार करते हुए उसमें न केवल वाणिज्कि गतिविधियों को कवर किया जाए बल्कि अलाभकारी संगठनों और सरकारी एजेंसियों को भी शामिल किया जाए। उनकी मान्‍यता है कि मार्केटिंग को केवल उत्‍पाद, सेवा और अनुभवों पर ही लागू नहीं किया जा सकता बल्कि सरोकारों, विचारों, व्‍यक्तियों और स्‍थानों की भी मार्केटिंग की जा सकती है।‘’

जो व्‍यक्ति सरोकार, विचार, इंसान और देश की मार्केटिंग का पैरोकार हो, वह इन सब के साथ मार्केटिंग करने वाले को बेहतर समझेगा। जब किसी ‘’राष्‍ट्र’’ को एक ‘’उद्योग’’ की तरह बरता जाएगा तभी उस राष्‍ट्र के व्‍यक्तियों, जगहों, विचारों और सरोकारों की मार्केटिंग की जा सकेगी, उन्‍हें बेचा जा सकेगा। याद करिए, प्रधान सेवक की वह पंक्ति कि ‘मेरे तो खून में ही व्‍यापार है’’। अब याद करिए उन्‍होंने क्‍या-क्‍या बेच दिया इन पांच वर्षों में और किन-किन चीज़ों की मार्केटिंग की? गांधीजी का चश्‍मा ‘’स्‍वच्‍छ भारत अभियान’’ की भेंट चढ़ गया तो लाल किले का रखरखाव निजी कंपनी को दे दिया गया। गुरु तो गुरु, चेलों ने भी कोटलर को फॉलो किया। जब प्रधान सेवक ने नोटबंदी की, तो उमा भारती ने उन्‍हें कार्ल मार्क्‍स का अनुयायी बताया। पांच साल तक लगातार प्रधान सेवक की सरकार बाबासाहब आंबेडकर को बेचती रही और आखिरी मौके पर उसने सवर्णों के लिए दस फीसदी आरक्षण का प्रावधान के इे सामाजिक न्‍याय का नाम दे डाला। सोचिए, कोटलर के मानकों पर खरा उतरने में रत्‍ती भर भी कुछ बाकी रह गया है क्‍या?

सीआइए, रॉकफेलर और केलॉग

बहरहाल, कोटलर पर विस्‍तार पर आने से पहले एक नजर देख लें कि जिन लोगों ने नरेंद्र मोदी को यह पुरस्‍कार दिया है वे कौन हैं। पुरस्‍कार की वेबसाइट पर निर्णायक मंडल की सूची है। इनमें नेस्‍ले कंपनी के जापान में प्रसिडेंट और सीईओ कोज़ो ताकाओका हैं, ब्रांड परामर्श कंपनी आर्केचर के सीईओ लैरी लाइट हैं, नेस्‍ले जापान के चीफ मार्केटिंग ऑफिसर मासाफूमी इशीबाशी हैं, केलॉग नेटवर्क और युनिवर्सिटी के प्रोफेसर रॉबर्ट वॉलकॉट हैं, विनोबा भावे युनिवर्सिटी के एक विजिटिंग प्रोफेसर और रियाध की बडी तेल कंपनी साबेक के अफसर डॉ. तौसीफ़ सिद्दीकी हैं, साथ ही ऐसे हाइ प्रोफाइल कुछ और लोग हैं जिन्‍हें ग्‍लोबल लीडर कहा जाता है। केलॉग नेटवर्क का ही हिस्‍सा केलॉग बिजनेस स्‍कूल हैं जहां फिलिप कोटलर पढ़ाते हैं और दुनिया भर में इसके सात कैंपस हैं। कारोबारी और वित्‍तीय दुनिया में केलॉग प्रतिष्ठित नाम है और अमरीकी सुरक्षा प्रतिष्‍ठान के साथ इसके रिश्‍ते जगजाहिर हैं। केलॉग फाइनेंस नेटवर्क के परामर्शदाताओं की बैठक में अमरीकी खुफिया एजेंसी सीआइए के पूर्व निदेशक फोर स्‍टार जनरल माइकल हेडन मुख्‍य अतिथि और वक्‍ता बनकर 2016 में आए थे, ऐसा केलॉग नेटवर्क की वेबसाइट पर लिखा है। केलॉग नेटवर्क के संस्‍थापकों में रॉकफेलर कैपिटल मैनेजमेंट के प्रबंध निदेशक ब्रायन लेसिग शामिल हैं और रॉकफेलर परिवार के वैश्विक फासीवाद में योगदान पर कई किताबें लिखी जा चुकी हैं, इसलिए यहां लंबा खींचना ज़रूरी नहीं।   

ऊपर के नामों से जाहिर होता है कि प्रधानमंत्री मोदी को मिला यह पुरस्‍कार किसी बडी अंतरराष्‍ट्रीय कूटनीति का हिस्‍सा है जिसके सूत्र सीआइए और रॉकफेलर तक जाते हैं। वैश्विक फासीवाद के लंबे इतिहास में यह एक छोटा सा पडाव है लेकिन ध्‍यान देने लायक है। बहरहाल, ये फिलिप कोटलर वास्‍तव में ऐसे क्‍या हैं जिनके नाम पर पुरस्‍कार रख दिया गया और सहर्ष नरेंद्र मोदी को दे दिया गया? मोदी आखिर कोटलर के मार्केटिंग पैमानों में क्‍या इतने सीधे फिट बैठते हैं? इसे समझने के लिए थोड़ा सा कोटलर को भी देखना होगा कि जिसे दुनिया मार्केटिंग गुरु के नाम से जानती है, उस आदमी ने मार्केटिंग जैसी विशिष्‍ट विधा में कौन सा योगदान दिया है।

गफ़लत के गुरुघंटाल

कोटलर 1962 में नॉर्थवेस्‍टर्न युनिवर्सिटी में पढ़ाने आए। वे अर्थशास्‍त्री थे और गणित में उन्‍होंने हारवर्ड में थोड़ा पढ़ाई की थी। उनका एक दिन भी नौकरी करने का तजर्बा नहीं था। न ही उन्‍होंने कहीं मार्केटिंग पढ़ाई थी। मार्केटिंग विधा का उन्‍हें उस वक्‍त तक रत्‍ती भर भी व्‍यावहारिक अंदाजा नहीं था, फिर भी यह उन्‍हीं का साहस था कि उन्‍होंने मार्केटिंग पढ़ाने का काम चुना। कोटलर अर्थशास्‍त्र पढ़कर मार्केटिंग पढ़ाने क्‍यों आए, वो भी कुछ भी बेचे बिना और नौकरी के क दिन के अनुभव के बगैर? शिकागो युनिवर्सिटी में उन्‍होंने मिल्‍टन फ्रीडमैन के मातहत अर्थशास्‍त्र सीखा। फ्रीडमैन मुक्‍त बाजार के घनघोर प्रचारक रहे। इसके बाद एमआइटी में कोटलर ने पॉल सैमुअलसन के निर्देशन में पीएचडी की। सैमुअलसन बिलकुल उलटे शख्‍स थे। वे राजकीय नियंत्रण के घनघोर पैरोकार थे, यानी फ्रीडमैन के दूसरे ध्रुव। सैमुलसन की राजकीय नियंत्रण को लेकर सनक ऐसी थी कि रूस के विघटन के दो साल पहले उन्‍होंने रूस की अर्थव्‍यवस्‍था की सराहना करते हुए एक परचा लिख मारा था। इन दो ध्रुवों के बीच अर्थशास्‍त्र पढ़कर कोटलर इतनी बुरी तरह भ्रमित और हताश हुए कि उन्‍होंने कुछ दिन हारवर्ड में गणित पढने का फैसला ले लिया। गणित से काम नहीं चला तो वे नॉर्थ वेस्‍टर्न युनिवर्सिटी में मार्केटिंग पढाने आ गए, जिसका ‘म’ भी उन्‍हें नहीं आता था।

कोटलर ने अब तक लिखी मार्केटिंग की सभी किताबों को कूड़ा करार दिया और खुद एक किताब लिखने बैठ गए जिसे उनके मुताबिक ‘’वैज्ञानिक’’ और ‘’विशद’’ होना था। कोटलर के सहयोगियों ने भी कोई लोड नहीं लिया और उन्‍हें और ज्‍यादा लिखने को उकसाया, साथ ही उनका लिखा लेकर पए़ाने लगे और अपना जीवन आसान करने लगे। आखिरकार कोटलर ने 1967 में अपनी प्रसिद्ध किताब ‘’मार्केटिंग मैनेजमेंट’’ लिख मारी। इसके बाद उन्‍होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और पचास साल में वे साठ से ज्‍यादा किताबें लिख चुके हैं। उन्‍होंने बेचने की सैद्धांतिकी में कुछ भी नहीं छोड़ा। यहां तक कि राष्‍ट्रों की भी मार्केटिंग करने पर उन्‍होंने किताब लिख मारी जिसका नाम है ‘’मार्केटिंग ऑफ नेशन्‍स’’।

इस बीच कुल मिलाकर एक काम यह हुआ है कि कोटलर की किताबें पाठ्यकमों में धड़ल्‍ले से लगती गईं और बिनेस स्‍कूल के मास्‍टरों को बड़ी सहूलियत हो गई। रेपीव के अनुसार कोटलर की किताबों के ग्राहक मार्केटिंग में उतरने वाले छात्र नहीं थे बल्कि मार्केटिंग पढ़ाने वाले शिक्षक थे। यह दिलचस्‍प विडंबना थी जो आज तक कायम है।  

शिक्षण के चालीस साल बाद अपनी पुस्‍तक ‘’मार्केटिंग फ्रॉम ए टु जेड’’ में कोटलर ने एक दिलचस्‍प बात लिखी: ‘’मार्केटिंग में मेरे 40 साल के करियर में मैंने कुछ ज्ञान पैदा किया और थोड़ी सी प्रज्ञा भी… इस पेशे की स्थिति पर सोचते हुए मुझे ऐसा लगा कि मार्केटिंग की बुनियादी अवधारणाओं को दोबारा जांचा जाना चाहिए। मेरा नजरिया ज़ेन से प्रभावित है। ज़ेन में ध्‍यान और प्रत्‍यक्ष अतीन्द्रिय ज्ञान से सीखने पर ज़ोर दिया गया है। इस पुस्‍तक में व्‍यक्‍त मेरे विचार बुनियादी सिद्धांतों और अवधारणाओं पर मेरे ध्‍यान का परिणाम हैं।‘’ रेपीव पूछते हैं कि आज इन्‍हें ज़ेन की याद आई है, अगर कल ये कामसूत्र या हैरी पॉटर से प्रेरित हो गए तब?

बहरहाल, उहापोह की स्थिति में फंसे इस विद्वान की 58 देशों में 20 से ज्‍यादा भाषाओं में 30 लाख से ज्‍यादा प्रतियां बिक चुकी हैं। ऐसा तीन तरीकों से वे करते हैं:

  • नए नाम से पुरानी किताबों की सामग्री को पेश करना
  • नए संस्‍करण ले आना
  • किताब में रंगीन पन्‍ने डालकर या उसे मोटा बनाकर उसके दाम को बढा देना

कोटलर को मार्केटिंग का गुरु कहा जाता है। वास्‍तव में वे गुरु नहीं, गुरुघंटाल हैं। अगर आपको मार्केटिंग में दिलचस्‍पी है और कोटलर की असलियत को समझना चाहते हैं तो अलेग्‍जेंडर रेपीव की पुस्‍तक ‘’मार्केटिंग थिंकिंग’’ ज़रूर पढ़ें। अगर वक्‍त कम है तो कोटलर के कारनामे जानने के लिए रेपीव का परचा ‘’कोटलर एंड कोटलरॉयड्स’’ नीचे पढ़ें। ऊपर जो कुछ भी दर्ज है, सब इसी परचे से है।

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सुपात्र मोदी  

ऊपर की कहानी के लिहाज से हम कह सकते हैं कि खग ही खग को पहचानता है। नरेंद्र मोदी को कोटलर पुरस्‍कार देकर पुरस्‍कार कमेटी ने वास्‍तव में इस बात की पुष्टि कर दी है कि भारत का प्रधानमंत्री अपने बौद्धिक उहापोह में हवाई किस्‍से गढ़कर उपलब्‍ध सभी कुछ को बेचने में कितना कामयाब रहा है। कोटलर के एमबीएधारी शिष्‍य भले गंजों को कंघी आज तक नहीं बच पाए हों लेकिन अपने खून में व्‍यापार लिए दुनिया भर में हाथ फैलाए घूम रहा गुजरात का शेर पांच साल से यही कर रहा है। जाहिर है, वह कोटलर का सुपात्र है। इकलौता सुपात्र। बाकी, अगर पांच साल के कार्यकाल के बाद आने वाले दिनों में प्रधान सेवक इस देश के गंजों को इस बात के लिए राज़ी न कर पाए कि उन्‍होंने कंघी बेचकर उनका भला किया है, तो बचने के लिए कोटलर की तरह उनके पास भी ज़ेन का रास्‍ता मौजूद है। उसकी झलक उनके एक भाषण में हम देख ही चुके हैं जब उन्‍होंने इतिहास में दर्ज हो चुका आप्‍तवाक्‍य कहा था: ‘’अरे हम तो फ़कीर आदमी हैं झोला ले के चल पड़ेंगे। ‘’

यह बात उन्‍होंने तब कही थी जब जम्‍बूद्वीप पूरी तरह दक्षिणमुखी था। आज, जब सौदागरी की आधुनिक सैद्धांतिकी रचने वाले दुनिया के सबसे बड़े जुमलेबाज़ के नाम पर उन्‍हें फिलिप कोटलर ईनाम मिला है, तो इत्‍तेफ़ाक नहीं कि उत्‍तरायण लग चुका है। इस धरती पर सबका किया धरा आखिर में दर्ज होता है। कोई कुछ भी करे और कैसा भी करे, उसे दर्ज करने वाले और सराहने वाले उसकी जमात के कुछ लोग निकल ही आते हैं। नरेंद्र मोदी के किए धरे को पूरा श्रेय और सम्‍मान अब जाकर अपने जैसों से मिला है। उत्‍तरायण की इस वेला में ऐसी महान उपलब्धि जीवन चक्र में एक अवधि के पूरा होने का संकेत है।

इतना लंबा लिखने के बजाय अब सोच रहा हूं कि एक सस्‍ती फिल्‍म का शीर्षक उधार लेकर चार शब्‍द कह देने चाहिए थे- ‘’स्‍वर्ग यहां, नर्क यहां‘’!