पेट्रोल 80 रुपये लीटर हुआ, 100 का बिके तो भी क्या ! यूँ ही भक्त नहीं बनाती सरकार !



पेट्रोल-डीज़ल के दाम में बेतहाशा वृद्धि हो रही है, लेकिन कहीं कोई हल्ला नहीं है। हल्ला है हलाला और तीन तल़ाक पर। इन अच्छे दिनों में उन बुरे दिनों की याद आना स्वाभाविक है, जब पेट्रोल-डीज़ल के दामों का रिश्ता महँगाई से होता था और सड़कों पर तूफ़ान खड़ा हो जाता था। मुंबई में पेट्रोल के दाम क़रीब 80 रुपये हो गए हैं लेकिन लोग भजन गा रहे हैं…जब भक्ति सिर पर सवार हो जाए तो ऐसा ही होता है। वरिष्ठ टीवी पत्रकार रवीश कुमार ने इस विषय पर एक टिप्पणी अपने फे़सबुक पेज पर की है, जिसे हम साभार छाप रहे हैं–

 

क्या मुंबई के लोग 100 रुपये प्रति लीटर पेट्रोल भी ख़ुशी ख़ुशी ख़रीद सकते हैं !

( रवीश कुमार )

 

दिल्ली में शनिवार को पेट्रोल 70.03 रुपया प्रति लीटर हो गया. पिछले आठ महीने में यह अधिकतम वृद्धि है। फाइनेंशियल एक्सप्रेस अख़बार ने लिखा है कि जुलाई महीने से पेट्रोल की कीमतों में 6.94 रुपये प्रति लीटर की वृद्धि हुई है। डीज़ल के दाम में भी 4.73 प्रति लीटर की बढ़ोत्तरी हुई है। मुंबई के लोग वाकई अमीर हैं। 79.14 रुपये प्रति लीटर पेट्रोल ख़रीद रहे हैं। अगस्त 2014 के बाद यह सबसे अधिक है। एक कमाल और हो रहा है। तीन साल पहले की तरह अब पेट्रोल के दाम बढ़ने पर चीज़ों के दाम नहीं बढ़ते हैं। लगता है महंगाई ने पेट्रोल डीज़ल के दामों का दामन छोड़ दिया है!

पब्लिक को 79 और 70 रुपये प्रति लीटर पेट्रोल ख़रीदता देख बैंकों का भी उत्साह बढ़ा है। जब जनता दे ही रही है तो थोड़ा और ले लिया जाए। स्टेट बैंक, आईसीआईसीआई के बाद अब पंजाब नेशनल बैंक के उपभोक्ताओं को भी एटीएम से पांच बार से अधिक पैसा निकालने पर हर बार 10 रुपये देने होंगे। बड़े उद्योगपतियों ने लाखों करोड़ों का कर्ज़ नहीं लौटाया, नोटबंदी के कारण पैसा खाते में आया तो बैंकों को ब्याज़ देना पड़ गया इससे ब्याज़ में कमी आई।

आम जनता के इस राष्ट्रीय योगदान की पहचान होनी चाहिए। फीस का नाम जनसहयोग शुल्क होना चाहिए। ऐसा कोई आंकड़ा होता तो पता चलता कि इसके नाम पर सारे बैंक मिलकर जनता से कितना पैसा ज़बरन हड़प रहे हैं।

मार्च 2015 में ऊर्जा मंत्रालय ने राज्यों की बिजली वितरण कंपनियों को कुल चार लाख करोड़ के घाटे से उबारने के लिए उदय नाम योजना की शुरूआत की थी। राज्यों को बांड के ज़रिये अपने घाटे को ठीक करने के लिए कहा गया, लागत और राजस्व में अंतर कम हो इसके लिए भी नीति बनी। लेकिन बिजनेस स्टैंडर्ड के विश्लेषण के अनुसार यह योजना भी फेल साबित हुई है। बीजेपी शासित और ग़ैर बीजेपी शासित राज्यों में इसका ख़ास असर नहीं हुआ है, उल्टा घाटा बढ़ ही गया है। बिजनेस स्टैंडर्ड की श्रेया जय की रिपोर्ट का अनुवाद और सार पेश कर रहा हूं।

जुलाई महीने में ऊर्जा मंत्रालय ने बयान जारी कर बताया कि उदय योजना के तहत बिजली ख़रीदने की लागत, वितरण और वाणिज्यिक घाटा, ब्याज़ दर कम होने लगा है जिसके कारण एन डी ए सरकार के दौरान राजस्व और लागत में अंतर में 40 फीसदी की कमी आई है। जबकि कमी आई है 20 फीसदी ही। 2014 में 23 फीसदी था यह अंतर, 2017 में 20 फीसदी हो गया है। फिर 40 फीसदी का दावा करने की क्या ज़रूरत थी?

पिछले साल जनवरी में छत्तीसगढ़ की बिजली वितरण कंपनी ने उदय के तहत केंद्र सरकार से करार किया था। उसके बाद से उसका घाटा दुगना हो गया है। केरल का भी घाटा 4 फीसदी बढ़ गया है। बिहार का 2 फीसदी बढ़ गया है। जम्मू कश्मीर में यह घाटा 61.6 फीसदी है। राजस्थान और हरियाणा में 28 प्रतिशत घाटा बढ़ा है।

फाइनेंशियल एक्सप्रेस की रिपोर्ट है कि भारतीय रिज़र्व बैंक के ताज़ा सर्वे में उपभोक्ताओं के विश्वास में पिछले तीन साल में सबसे अधिक गिरावट आई है। सभी पैरामीटर में निराशाजनक तस्वीर दिख रही है। गांवों में तो और भी ज़्यादा।