कांशीराम ने कहा था कि मायावती 2006 में बौद्ध बनेंगी, 11 साल बाद ‘धमकी’ दे रही हैं!



पंकज श्रीवास्तव

24 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ में आयोजित बहुजन समाज पार्टी के मंडलीय कार्यकर्ता सम्मेलन में पार्टी अध्यक्ष मायावती ने एक ‘धमकी’ दी। उन्होंने कहा कि ‘अगर’ बीजेपी ने अपनी सांप्रदायिक और जातिवादी सोच को नहीं बदला तो वे बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेंगी।

बीते दशक में बीएसपी ने जिस तरह ‘हाथी नहीं गणेश है’ शैली में राजनीति की है, उसके बीच मायावती की यह भाषा चौंकाती है। हालाँकि मायावती आज ‘अगर-मगर’ के साथ जो कह रही हैं, वह कभी उनका ‘घोषित’ संकल्प था। लेकिन बहुजन आंदोलन को जातियों के जमावड़े में बदलने के राजनैतिक दाँव-पेच के बीच ‘बौद्धमय भारत’ के संकल्प की याद दिलाता कौन और सुनता कौन ?

बीएसपी के संस्थापक कांशीराम कहते थे कि वे डॉ.अंबेडकर के मिशन को व्यावहारिक जामा पहना रहे हैं। उनके दो सपने थे, पहला- ‘दलितों को हुक्मरान बनाना’ और दूसरा ‘भारत को बौद्धमय बनाना।’

अगर दलितों को हुक्मरान बनाने का मतलब बीएसपी को सत्ता तक पहुँचाना था तो माना जा सकता है कि कांशीराम काफ़ी हद तक सफल रहे, लेकिन ‘भारत को बौद्धमय’ बनाने के संकल्प को वे आगे नहीं बढ़ा सके। कम से कम उनकी उत्तराधिकारी मायावती ने तो इस संकल्प को ठंडे बस्ते में डालने में कोई कोताही नहीं बरती।

कांशीराम ने 15 दिसंबर 2001 को लखनऊ की एक रैली में मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित करते हुए कहा था—“मनुवादी समाज व्यवस्था को हटाकर मानवतावादी समाज व्यवस्था का निर्माण करके, मानवतावादी समाज व्यवस्था का कारोबार चलना चाहिए।” (बहुजन समाज पार्टी एवं संरचनात्मक परिवर्तन, डा.विवेक कुमार, पेज 135)…और 2002 के अप्रैल में उन्होंने ऐलान किया-“ 2006 में बाबा साहेब के धर्म परिवर्तन के 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं। बाबा साहेब के धर्म परिवर्तन की स्वर्ण जयंती पर मैं और मायावती उत्तर प्रदेश के दो करोड़ से ज़्यादा चमारों को बौद्ध धर्म अपनाने की सलाह देंगे और मुझे विश्वास है कि मेरी सलाह मानकर वे बौद्ध धर्म को अवश्य अपनाएँगे।” (बहुजन समाज पार्टी एवं संरचनात्मक परिवर्तन, पेज 135).

यानी मायावती जो धमकी आज दे रही हैं, वह दरअसल 15 साल पुराना उनका घोषित संकल्प है। क़ायदे से तो 2006 में ही इस पर अमल होना चाहिए था। हो सकता है कि कांशीराम की बीमारी की वजह से ऐसा ना हो पाया हो ( जिनका 9 अक्टूबर 2006 को निधन हो गया था ), लेकिन उसके बाद मायावती ने इस मसले पर यह कहकर चुप्पी साध ली कि बीएसपी जब केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार बना लेगी तब वे बौद्ध धर्म अपनाएंगी। यह हाथी को गणेश बनाने की उनकी रणनीति के लिए ज़रूरी भी था। यह आश्चर्यजनक था कि कभी मनुवाद को उखाड़ फेंकने का दम भरने वाली मायावती के सत्ताधारी बनने पर उसके सबसे बड़े प्रतीक परशुराम की यूपी में पुनर्प्रतिष्ठा हुई। उनके मंदिर बने, जयंती मनाई जाने लगी और आगे चलकर छुट्टी भी घोषित हुई। बीएसपी तब ‘ब्राह्मण सम्मेलन’ आयोजित करनें में जुटी थी।

तो क्या माना जाए कि राजनीतिक रूप में हाशिये पर पहुँच गईं मायावती अपनी जड़ों की और लौटना चाहती हैं और ‘भारत को बौद्धमय’ बनाने के अभियान को ‘हिंदू-राष्ट्र’ के अभियान के काट के तौर पर देख रही हैं। अगर ऐसा है तो फिर ‘अगर-मगर’ वाली धमकी की क्या ज़रूरत है। वे डॉ.अंबेडकर द्वारा शुरू किए गए अभियान को यूँ भी आगे बढ़ा सकती हैं।

सवाल यह भी है कि सिर्फ़ बौद्ध हो जाने से वे बीजेपी के अभियान (जातिवादी और सांप्रदायिक ! ) को कैसे रोका जा सकता है ?

इस संदर्भ में बीजेपी के मौजूदा सांसद उदितराज की बात करना ज़रूरी है। कभी जेएनयू में एसएफ़आई के कार्यकर्ता रहे ‘रामराज’ आयकर विभाग में बड़े अधिकारी बनकर वंचित वर्गों के कर्मचारियों का संगठन चलाते थे। मनुवादी व्यवस्था के नाश का संकल्प लेते हुए उन्होंने 2001 में हिंदू धर्म त्याग दिया औ उदितराज बन गए। फिर नौकरी छोड़ी और जस्टिस पार्टी बनाई। बीएसपी की नीतियों को समझौतापरस्त बताते हुए उसके ख़िलाफ़ उन्होंने चुनावी ताल भी ठोंकी । जब 2002 में घोषणा हुई कि 2006 में मायावती बौद्ध धर्म अपना लेंगी, तो वे इसे चुनौती देकर ढकोसला बताते रहे। उदितराज बीजेपी को दलितों का दुश्मन और ब्राह्मणवाद का चेहरा क़रार देते रहे। लेकिन जब चुनावी बिसात पर दाल नहीं गल पाई तो 2014 में बीजेपी में शामिल होकर सांसद बन गए। बीजेपी को उनके बौद्ध होने से कोई गुरेज़ नहीं है, आख़िर बुद्ध उसके लिए विष्णु का नवाँ अवतार ही तो हैं।

ऐसे में सिर्फ़ बौद्ध होकर बीजेपी की ‘सांप्रदायिक और जातिवादी मानसिकता ‘ से मायावती निपट पाएँगी, इसमें संदेहा है! इसके लिए तो लंबा वैचारिक अभियान चलाने की ज़रूरत है जिससे बीएसपी ने इससे शुरुआत में ही कन्नी काट ली थी। यह कहना भी मुश्किल है कि आज कितने लोग मायावती के कहने पर धर्म बदलने को तैयार होंगे ? वैसे भी 15 साल पुराने संकल्प (जिसे 11 साल पहले पूरा किया जाना था) को धमकी की शक्ल में पेश करके मायावती ने संकेत तो दे ही दिया है कि वे इसे लेकर ख़ास गंभीर नहीं हैं।