वैभव विलास के ‘दिव्य कुंभ’ में खो गया ‘अमौसा’ का मेला


‘सत्ता के भूखे लोगों से मजहब बचाइये।’




भक्ति के रंग में रंगल गाँव देखा,
धरम में, करम में, सनल गाँव देखा.
अगल में, बगल में सगल गाँव देखा,
अमौसा नहाये चलल गाँव देखा.

ये कैलाश गौतम की प्रसिद्ध कविता ‘अमौसा का मेला’ की शुरुआती लाइने हैं। कुंभ के दौरान पड़ने वाली मौनी अमावस्या पर स्नान के लिए सबसे ज़्यादा भीड़ जुटती है। कवि ने इसे ही अमौसा (अमावस्या) का मेला कहते हुए अद्भुत चित्र खींचा है। लेकिन इस बार के अर्द्धकुंभ में उसी जनता के लिए कुछ नहीं है जिससे अमौसा के मेले में रंग भरता रहा है। यूँ भी इसे ‘दिव्य कुंभ’ कहा जा रहा है। तो वैभव और विलासिता के इस कुंभ में जनता की जरूरत भी किसे होगी। पढ़िए अंशु मालवीय की एक रिपोर्ट- संपादक

अंशु मालवीय


अर्द्धकुंभ में 29 जनवरी को यूपी की कैबिनेट 2 घंटे की बैठक पर करोड़ों रूपये फूँकने के बाद विदा हो चुकी है। अगर अखबारों की गिनती पर विश्वास करें तो 31 जनवरी को 22वीं बार प्रदेश के मुख्यमंत्री मेला घूमने पहुँचे। बेरोजगारों को लाठियां उपहार में देकर, खेतों को सांड़ों के हवाले कर हमारे कर्मठ नेता मेला घूम रहे हैं। भक्त चाहें तो अभी भी यकीन करें कि इतने बड़े प्रदेश के मुख्यमंत्री के पास पूरा ‘संगम पर अठखेलियां’ करने का वक्त है। जी यही स्लोगन लगाया था एक प्रमुख अखबार ने अर्द्धनग्न नेताओं की ‘जलक्रीड़ा’ पर। धार्मिक आवरण में लिपटी इस राजनीतिक पिकनिक पर हजारों करोड़ खर्च करने के बाद- आपको पता है कि सफाई कर्मियों के आन्दोलन के बाद उनकी दिहाड़ी कितनी बढ़ी – मात्र 15 रुपए ! 14 घंटे के काम की 295 रुपये की दिहाड़ी अब 310 रुपये कर दी गयी है। मेला अधिकारी विजय किरन आनन्द कहते हैं, सफाई कर्मी इस बढ़ोतरी पर खुश हैं – सफाई कर्मी कहते हैं – ‘प्रशासन गुटखा खाये बदे पैसा बढ़ाय है।’

दरअसल, दिव्यकुंभ बताए जा रहे इस अर्द्धकुम्भ मेले ने अपने मायने ही खो दिये हैं। कल्पवासी, पंडा, बिसाती, छोटे दुकानदार, झोपड़पट्टी के रहवासी – सब हाशिये पर ढकेल दिये गये हैं – यहां तक कि तीरथ-व्रत भी। केन्द्र में हैं तो स्टार साधू, भाजपा के नेता, वीआईपी संस्कृति और विलास। जी, मेले में बनी टेंट सिटी से लेकर नेताओं, सरकारी अधिकारियों और सरकारी – कारपोरेट साधुओं का विलास आप देखें तो समझ आ जायेगा कि त्याग, तीरथ-तप सभी कुछ को वैभव-विलास-वाचलता ने अगवा कर लिया है। संगम तट पर ‘राम मंदिर निर्माण’ से लेकर ‘विकास’ के नारे उछालकर राजनीति की जा रही है और हाँ धारा 144 लागू कर किसी भी तरह के धरना-प्रदर्शन पर रोक लगा दी गयी है। कोई पूछने वाला नहीं कि केन्द्र और प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार के बाद भी मंदिर निर्माण के लिए भरमा किसे रहे हो – महात्मन।

पूरे जिले में पिछले 1 साल से लाखों पेड़ों की अवैध कटाई और हजारों दुकानदारों, घरों और झोपड़ियों को उजाड़ने से ही सरकार की नीयत समझ में आ गई थी कि उसे आस्था का मेला नहीं करना है, बल्कि खाते-पीते मध्य वर्ग और धनाढ्य वर्ग के लिए पिकनिक स्पाॅट तैयार करना है। मेले में बरसों से आने वाले श्रद्धालु और स्थानीय निवासी जानते हैं कि मेला क्षेत्र में सेक्टर 1, 2, 4, 6 की जगहें ऐसी हैं जहां आम लोगों की आमदरफ्त होती है – सरकारी विभाग होते हैं – भाँति-भाँति की खरीद-फरोख्त होती है और मेले वाली चहल-पहल होती है। बाकी के मेले में दो प्रमुख हिस्से होते हैं- अखाड़े और साधू-संतों की जगह और दूसरे कल्पवासियों की बस्तियां।

मेले का जो प्रमुख सक्रियता का स्थल है वह वी.आई.पी. मूवमेन्ट का बंधक हो चुका है। इस पूरे इलाके को इतना फैला दिया और खाली कर दिया गया है कि वहां चलने वाली आर्थिक गतिविधियां बहुत कम हो गई हैं। पूरे शहर में साल भर चली तोड़-फोड़ द्वारा लोगों का बहुत आर्थिक नुकसान करने के बाद भी सरकार को तसल्ली नहीं हुई तो उसने मेले के भीतर भी ये ‘इकनाॅमिक अपार्थाइड’ जारी रखा। मेला क्षेत्र में आने वाली झोपड़पट्टियों को सरकार हाईकोर्ट के आदेश की वजह से उजाड़ तो नहीं पाई लेकिन उनका नुकसान करने में सरकार-प्रशासन ने कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी। साल भर इस तीरथ को जगाये रखने वाले यही गरीब हैं जो चाय-पानी, माला-फूल, कन्टेरन और आसनी बेचते हैं – तीर्थयात्रियों के लिए सुविधा और सुरक्षा दोनो मुहैया कराते हैं – सहसा सरकार और विराट साधू अपने सालाना धार्मिक एडवेंचर के लिये आते हैं और उन्हें बेदखल कर देते हैं। हफ्ते भर चले धरना-प्रदर्शन के बाद उन्हें ऐसी जगह दुकान लगाने की अनुमति मिली जहां बिक्री होने की उम्मीद बहुत कम है।

यूँ भी ‘रिकार्ड’ बनाने में महिर भाजपा सरकार ने सबसे बड़े क्षेत्र में मेला लगाने का कारनामा तो कर दिखाया, लेकिन पूरा मेला खाली हो गया है – वीआईपी और लग्जरी मेला ने हमारे ‘अमौसा’ के मेले को ग्रस लिया है। मेले में ज्यादातर दुकानें ऐसी जगह हैं कि उन तक खरीदार पहुँच नहीं रहे – तो साल भर के लिये कुछ कमाने की उम्मीद रखने वाले लोग – भारी पगड़ी देकर भी कुछ कमाने की उम्मीद खो चुके हैं। इस पर करैला नीम चढ़ गया – इतना हाइप बनाने के बाद भी मेला भीड़ को तरस रहा है। मकर संक्रान्ति (15 जनवरी) और पौष पूर्णिमा (21 जनवरी) का स्नान बीतने के दूसरे दिन ही मीडिया ने दबी जबान से ही सही, सरकार के दावों की पोल खोल दी। स्थानीय मीडिया और फिर बी.बी.सी. जैसी एजेंसी ने भी भीड़ को गिनने की पद्धति पर सवाल उठाये। वैसे भी पद्धति का क्या करना था – आँखन देखी ही काफी था कि यह संख्या करोड़ों में नहीं चन्द लाख में है। यहां तक कि रेलवे ने भी अपनी 16 स्पेशल ट्रेनें रद्द कर दीं। पता चला कि मुख्य नहानों के बाद कुल टिकटों की बिक्री मात्र 20 से 22 हजार रही।

मेले में आने वाले कल्पवासी और उनके लिए व्यवस्था करने वाले पंडे, कहा जाता है कि जिनकी वजह से कुंभ अपने आधुनिक रूप में विद्यमान है, की सबसे ज्यादा उपेक्षा हुई है। संगम नोज के इलाके से पंडों को उजाड़ दिया गया है और अपने कल्पवासियों के लिए सुविधाएं जुटाने में वे अपने को असमर्थ पा रहे हैं। कल्पवासियों को 10 – 12 घंटे बिजली मिल रही है, राशन कार्ड नहीं बन रहे, अलाव नहीं जले, चकर्ड प्लेटें ठीक से नहीं बिछीं, जिसकी वजह से बार-बार दुर्घटनाएं हो रही हैं, मेले में इफरात शौचालय होने के बाद भी कल्पवासियों को शौचालय का टोटा है। स्वतंत्र पत्रकार सुशील मानव की एक रपट के अनुसार पंडों में इतना रोष है कि उनमें से भाजपा के सदस्य रहे सवा लाख पंडों ने भाजपा की सदस्यता से इस्तीफा देने की घोषणा की है। मेले में अकूत संख्या में मौजूद पुलिस के बाद भी कल्पवासी चोरियों का शिकार हो रहे हैं। रोज-रोज के वी.आई.पी. मूवमेन्ट की वजह से संगम पर स्नान करना कल्पवासियों के लिए आफत है। मेले के विस्तार की वजह से वृद्ध कल्पवासियों के लिए रोज अपने शिविर से संगम नोज तक 6 – 8 किमी पैदल चलना मुश्किल है। यही हाल नाविकों का है, उन्हें वीआईपी मूवमेन्ट और क्रूज कल्चर की वजह से आजीविका कमाना दूभर है। वैसे भी मेला प्रशासन ने प्रत्येक नाविक को 8 से 10 लाइफ जैकेट खरिदवा दिये हैं जो उनपर एक अनायास बोझ है।

तो ये है दिव्य कुंभ – शौचालयों में पानी की सप्लाई नहीं है और सफाई कर्मियों पर जिम्मेदारी है कि वे पानी ढोकर शौचालय साफ करें – जाहिर है सफाई ढंग से नहीं हो पा रही है। मेले को डिजाइन ऐसा किया गया है कि इलाहाबाद शहर उससे होने वाली चहल-पहल से वंचित है – पटरी दुकानदार, जो मेले के मौसम में चार पैसा कमाने की उम्मीद में थे – माथे पर हाथ धरे बैठे हैं। अपनी जिस व्यवस्था पर सरकार अपनी ही पीठ ठोंक रही है – उसमें बाहर से आने वाले स्नानार्थियों को स्नान पर्वों पर 20-20 किमी पैदल चलना पड़ रहा है।

हर बार माघ और कुंभ मेले में रैन बसेरे बनते थे, जो इस बार नदारद हैं। इनकी जगह ले ली है सार्वजनिक आवासों, डाॅरमेट्रियों ने। इन आवासों का रोज का किराया 100 रुपये है और स्नान पर्वों के एक दिन पहले से ही एक दिन बाद तक यह किराया बढ़कर 200 रुपया जो जाता है। तो यह है नवउदारवादी धर्म का असली चेहरा। यहां मुफ्त में कुछ नहीं है। गठरी-मुठरी लादे गांव के गरीब-गुरबा के लिये यह मेला नहीं है। सरकारी विभागों की लकदक है – सरकारी संतों के वैभवपूर्ण पंडाल हैं, लेकिन मेला और धर्म जिनके बल पर कायम है, उनकी कोई पूछ नहीं है। सरकार द्वारा जारी टेंट सिटी का विज्ञापन देखिये, सब असलियत सामने आ जायेगी। मेला दो हिस्सों में बंट गया है। एक ओर विलास के टापू हैं, दूसरी ओर अव्यवस्था और वंचना का समुद्र।

चलते-चलाते कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर भी। मेले में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर संस्कृति विभाग उत्तर प्रदेश ने कब्जा कर लिया है और अलग सांस्कृतिक पहलकदमियां, जो हर साल माघ का वैभव बढ़ाती थीं, शून्य कर दी गयी हैं। पूरे इलाहाबाद शहर में विभाग की ओर से सांस्कृतिक मंच बनाये गये हैं जिन पर इलाहाबाद और आस-पास के कलाकार भागते हुई ट्रैफिक के हाशिये पर खड़े दर्शक विहीन कार्यक्रम पेश कर रहे हैं और सांस्कृतिक केन्द्र पूरे शहर में टैम्पो से प्रचार करके वहां पहुँचने का आग्रह कर रहा है। सांस्कृतिक राजधानी इलाहाबाद में कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों को चैराहे-चैराहे अपमानित किया जा रहा है।

तो यह है कुंभ की अव्यवस्था का एक विहंगम नजारा। ऐसा नहीं है कि यह कुछ-कुछ ‘कुंठित प्रगतिशील’ सामाजिक कार्यकर्ताओं की राय है – दबी जवान से ही सही अखबार भी यही बता रहे हैं। जरूरी है कि धर्मप्राण मेहनतकश जनता से यह अपील की जाये – ‘सत्ता के भूखे लोगों से मजहब बचाइये।’

लेखक मशहूर कवि और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं