शक्ति का केंद्रीकरण तय करेगा कि ओली किस घोड़े पर सवार होकर फासीवाद की ओर जा रहे हैं!



नेपाल के जाने माने विद्वान तथा तर्कशास्त्री सीके लाल अपनी राजनीतिक टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी के हालिया नेपाल भ्रमण और जानकी मंदिर में नेपाल–भारत के प्रधानमन्त्रीद्वय द्वारा सामूहिक रूप से की गई पूजा–अर्चना तथा नेपाल में मोदी के नागरिक अभिनन्दन के विषयों पर केंद्रित रहकर नेपाल के पत्रकार नरेश ज्ञवाली द्वारा किया गया यह इंटरव्‍यू भारतीय पाठकों के समक्ष भारत में चल रहे सामाजिक, राजनीतिक उभार के बारे में पड़ोसी देश के चिन्तकों की समझ को प्रस्तुत करता है।

भारतीय नाकाबंदी के विरुद्ध यानी भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी के विरुद्ध खड़े माने गए नेपाल के प्रधानमंत्री खड्ग प्रसाद शर्मा ओली अन्ततः मोदी के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर कदमताल कर चलते हुए दिखाई दे रहे हैं। इस घटना को आप कैसे देख रहे हैं?

यह उस समय की बात है जब प्रचण्ड ने ओली के साथ दिलों के मिलन होने की बात कही थी और साथ ही उन्होंने कहा था– अब दो पार्टियों के बीच पार्टी एकता दूर नहीं। प्रचण्ड का वह कहना कि हमारे दिलों का मिलन हो चुका है, देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आवश्यकता की ओर का स्पष्ट संकेत था। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अवयवों में भाषा, धर्म और ‘राष्ट्रवादी अर्थतन्त्र’  समाहित होते है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को ओली ने राजनीतिक लाभ हानि के दृष्टिकोण से गले लगाया था। इसका राजनीतिक लाभ काफी होगा वे भांप चुके थे। संयोग ही कहा जाएगा कि उसी समय नेपाल–भारत सीमा में नाकाबंदी शुरू हो गई। राजनीतिक लाभ हानि के खेल में चालाक होने की वजह से वे भारत विरोधी भावना भंजाने में अपना काफी लाभ देखते थे लेकिन वे अन्दर ही अन्दर भारत के साथ– तुम लोग मधेस के मामले में मत बोला करो, बाकी तुम्हारी बातों को मानना तो है- ही कह रहे थे। परिणाम स्‍वरूप मधेस मुद्दों का संबोधन हुए बगैर ही वह डिसमिस हो गया।

उनकी राष्ट्रवादी छवि निर्माण में तत्कालीन विचार निर्माता, पत्रकार लगायत सब सत्ता की भजन मण्डली की भांति काम कर रहे थे। मुझे लगता है कि उनकी छवि एक राष्ट्रवादी नेता के रूप में निर्मित होते हुए भी वे कोई राष्ट्रवादी नेता नहीं हैं। वे व्यावहारिक राजनीतिकर्मी हैं। वे नफा–घाटा देखकर काम करते हैं। आज की बात करें तो उनको उस राष्ट्रवादी छवि से जितना राजनीतिक लाभ लेना था, वे ले चुके।

इस बीच उन्होंने मधेसी को साइज में ला के रख दिया, माओवादियों को झुकाने में सफल रहे, काँग्रेस को निरीह बना दिया और अपनी पार्टी के भीतर के विरोधियों का मुंह बन्द कराने में वे सफल रहे। कहने का मतलब राष्ट्रवाद से वे जितना लाभ ले सकते थे उन्होंने लिया। तो अब सवाल उठ खड़ा होता है कि किस चीज़ में लाभ है? हम कह सकते हैं कि सिद्धान्तविहीन राजनीति की निरन्तरता को कायम रखना उनकी प्राथमिकी में है। ओली में कोई राजनीतिक नैतिकता नहीं है। किसी प्रकार की उनकी राजनीतिक आस्था भी नहीं है। वे विशुद्ध व्यावहारिक राजनीति करते है। कहने का मतलब सत्ता में अधिकतम टिके रहने के लिए जो करना पडे वे करेंगे।

ओली के राष्ट्रवादी छवि निर्माण में प्रचण्ड का कितना हाथ हो सकता है? क्योंकि प्रचण्ड ने मोदी के साथ भी अपनी केमिस्‍ट्री मिलने की बात कही थी।

जब क्रान्ति असफल होती है, क्रान्ति के असफल नायकों की तीन परिणतियां देखने को मिलती हैं। पहला, वे शहीद होते हैं। दूसरा, वे आत्मसमर्पण करते हैं। तीसरा, वे लाभ–हानि का हिसाब-किताब कर अपने समर्थकों को झाँसे में रखा करते हैं और विरोधियों का मुंह बंद कर यथास्थिति में खुद के स्थान को सुरक्षित करना चाहते हैं। नेपाल का इतिहास देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि नेपाल की पहली असफल क्रान्ति में हुई थी। हमें यहां ध्यान देना होगा कि क्रान्ति कभी अर्धसफल नहीं होती। राणा का विस्थापन और शाह शासकों का आगमन एक तरह क्रान्ति की असफलता ही तो थी।

दूसरी असफल क्रान्ति झापा विद्रोह है। क्रान्ति के सफल न होने पर उसके सभी नेता व्यावहारिक राजनीति की ओर मुड गए। मदन भण्डारी, सीपी मैनाली और ओली उसी की उपज हैं। आखिरकार उन लोगों ने बहती हुई नदी की धार में अपनी नैया (किस्ती) को छोड़ दिया। तीसरी असफल क्रान्ति माओवादियों की है। माओवादी क्रान्ति के असफल होने तक कइयों ने अपनी कुरबानी दी। लेकिन एक चालाक समूह खुद को सुरक्षित करने की राह पर निकल पड़ा। खुद को सुरक्षित करने के चक्कर में प्रचण्ड ने राजनीति में जो प्रभावशाली हैं, उन्हीं के साथ कोलीशन करने की रणनीति अपना ली।

बाबुराम भट्टराई ने ऐसी नीति अपनाई कि सिद्धांत परिवर्तन कर गए लेकिन मूलधारा में समाहित न होने का निर्णय किया। उसी तरह मोहन वैद्य और विप्लव ने सिद्धान्त को पकडे रहने का लेकिन विद्रोह न करने का नीतिगत फैसला लिया। यह सब असफल क्रान्ति से उत्पन्न विकृतियां हैं और उन्हीं विकृत धाराओं में एक के नायक प्रचण्ड हैं।

CK Lal, Photo Courtesy ratopati.com

प्रधानमंत्री ओली का रोना यह है कि उन्हें जो पसंद करता है वह भी उनको राष्ट्रवादी कहता है और जो उन्हें बिलकुल पसंद नहीं करता वह भी उन्हें राष्ट्रवादी ही कहता है। राष्ट्रवाद क्या है? इसके दार्शनिक पक्ष के बारे में कुछ स्पष्ट कर दें।

व्यावहारिक ढंग से देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि नेपाली समाज घबराया हुआ समाज है। माओवादी विद्रोह के सेटलमेन्ट के नाम पर उन लोगों को आत्मसमर्पण कराया गया। उसके बाद हुए दो मधेस विद्रोह को भी आत्मसमर्पण करने को मजबूर किया गया। तीसरे मधेस विद्रोह के समय में शासकों को लगा कि यदि नृजातीयता (एथनो नेशनलिज्‍म) को स्थापित किया जा सका तो अन्य अल्पसंख्यकों के मुह पर पट्टी बाँधी जा सकती है। इस नृजातीयता की अवधारणा ने सभी पार्टिंयों की सीमा को भंग कर दिया। नृजातीयता के कारण राजनीतिक विचारधारा, उसके प्रति के प्रतिबद्धता को कमजोर कर दिया।

लेकिन नृजातीय राजनीति अथवा ‘एथनो नेशनलिज्‍म’ क्या है? हमें उसके सैद्धान्तिक दृष्टिकोण को समझना होगा। इतिहास देखेंगे तो पता चलेगा कि पांच किस्म के राष्‍ट्रीयता के प्रारूप हैं। पहला, वेस्टेफालियन सेटेलमेन्ट। योरप में 17वीं शताब्दी के मध्य में एक लम्बा युद्ध हुआ, युद्ध के बाद सार्वभौमसत्ता की अवधारणा देखने को मिली। उससे पहले तक सार्वभौम सत्ता जैसी कोई चीज़ नहीं थी। सार्वभौमसत्ता की अवधारणा ने चार चीजो को स्थापित किया। (क) राज्यजनित राजनीति और धर्म का शासन। ये दो भिन्न–भिन्न बातें हैं, उसको आपस में जोडकर नहीं देखा जाना चाहिए। (ख) सार्वभौम सत्ता की अपनी स्थानीयता होती है अर्थात एक राजा के क्षेत्र में दूसरे राजा को हस्तक्षेप करने का अधिकार प्राप्त नहीं है। (ग) वैधानिकता जो है वह ईश्‍वरीय वैधानिकता है, अर्थात शासन करने के लिए ललाट पर लिखा कर लाना होता है। (घ) राजा सांस्कृतिक रूप से भी प्रमुख है, अर्थात सांस्कृतिक रूप में पुजारी प्रमुख न हो कर राजा प्रमुख होता है। सांस्कृतिक रूपों में जिस प्रकार इन चार आधारों में राष्ट्रवाद की स्थापना हुई, उसको हम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद व सार्वभौम राष्ट्रवाद कह सकते है। जैसे रूस में ज़ार और फ्रान्स में लुई राजाओं का राष्ट्रवाद था।

दूसरा, 18वीं शताब्दी के अंत तक फ्रांसीसी क्रान्ति ने कहा कि नहीं, राजा यदि अन्यायी हो जाए तो उससे विद्रोह करना चाहिए। राजा से विद्रोह करना राष्ट्रद्रोह नहीं है। वेस्टेफालियन सेटलमेन्ट के आधार पर राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह एक ही बात थी, लेकिन उस समानार्थी शब्द को फ्रान्सीसी क्रान्ति ने खारिज कर दिया। उसने राजद्रोह अलग बात है कहते हुए राजा अन्यायी हो जाए तो क्रान्ति जनता का अधिकार है, कहा। फ्रान्सीसियों ने विभिन्न चार मान्यताओं से कट जाने पर राष्ट्रद्रोह होने की बात कही। वे चार मान्यताएं हैं– (क) ‘लिबर्टी’  अर्थात स्वतन्त्रता। (ख) ‘इजालिटी’  अर्थात बराबरी। (ग) ‘फ्रैटर्निटी’  अर्थात एक्यबद्धता। (घ) ‘लैसिते’  अर्थात धर्म मानना वा अवमानना करना व्यक्ति का अधिकार है। धर्म को राज्य के साथ जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए, कहा। इन चार आधार स्तम्भों पर खडे होकर उन लोगों ने जिस राष्‍अ्रीयता की स्थापना की उसको गणतांत्रिक राष्‍ट्रीयता कहा गया।

तीसरा, इसके विपरीत जर्मनी में हुआ ये कि वाईमर क्लासिसिज्‍म और जर्मन रोमान्टीसिज्‍म से ज्योहान गडफ्रिड हर्डर नाम के एक विद्वान ने राज्य की राष्‍ट्रीयता वाली बात फ्रान्सीसियों ने गलत कही है- कहते हुए उसको नकार दिया। उसने पहली बार जर्मन शब्द का प्रयोग करते हुए ‘फोक जीस्ट’  अर्थात जनभावना को परिभाषित किया जिसका धर्म, भाषा, उद्भवीय नस्‍ल एक है, जो एक दूसरे से आत्मीय है और जिसका उद्गम स्थल भी एक है, वही राष्‍ट्रीयता है और उसी को राष्ट्रवाद कहा जा सकता है, एकसा कहा। उसी के प्रभाव से डेनमार्क, नार्वे, जापान में वह भावना जोर पकड़ने लगी। उसके बाद जापान में जापनीज युनीकनेस की अवधारणा को प्रचारित किया गया।

चौथा, उसका प्रभाव विलायत में भी कुछ हद देखा जाने लगा, लेकिन विलायत में संसदीय व्यवस्था होने के कारण उन्होंने वेस्टेफालियन सेटलमेन्ट अर्थात राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह एक ही है के सिद्धान्त को लिया तथा थोडा सा सिद्धान्त फ्रांस  के नागरिक सार्वभौम है की अवधारणा को भी लिया। इसीलिए अंग्रेजी में नागरिकता और राष्‍ट्रीयता को समानार्थी रुप में प्रयोग किया जाता है। इन सब को मिलाकर ब्रितानीओं ने अपनी अलग किस्म की राष्ट्रवादी राष्‍ट्रीयता का निर्माण किया। राष्‍ट्रीयता फ्रांस की थी तो राष्ट्रवाद जर्मन का।

वैसे ही पांचवां, रूसी क्रान्ति के बाद 20वीं शताब्दी के शुरू में पहली बार लेनिन ने समावेशी राष्‍ट्रीयता की अवधारणा को सार्वजनिक किया। उन्होंने राष्ट्र कहने का मतलब नृजातीयता नहीं बल्कि राष्ट्र कहने का मतलब राजनीतिक प्रतिबद्धता है, कहा। राजनीतिक प्रतिबद्धता कहने का उनका मतलब विचारधारात्मक प्रतिबद्धता से था। उन्‍होंने इसका विस्तार करते हुए कहा– उसके लिए लोगों को अपनी नृजातीयता का परित्याग करने की जरूरत नहीं है। राष्‍ट्रीयता की यह पाँच अवधारणाएं हमें विश्वभर में देखने को मिलती हैं।

अब चलते है भारत में। भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में गांधी के नेतृत्व में जिस भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई वह विलायत का संसदीय मॉडल था। उसी के आधार पर उन लोगों ने अपनी पार्टी का नाम भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस रखा। कहने का मतलब यह हुआ कि वे लोग एक भाषा और धर्म की सर्वोच्चता को स्‍वीकार करते थे। लेकिन दूसरा, सुभाष चन्द्र बोस जो सशस्‍त्र क्रान्ति की बात कर रहे थे उनमें जर्मन और जापानी अवधारणा का प्रभाव था। बोस जापानी भाषा में निहोन निन्जोन कहे जाने वाले जापनीज युनीकनेस से प्रभावित थे। जैसा कि हमनें उ।पर चर्चा की, जर्मन राष्ट्रवाद जर्मन रोमान्टीसिज्‍म से आया हुआ टर्म था, जिसको फासीवाद की ओर बढ्ने में थोडा भी समय नहीं लगा। फासीवाद में जाने का पहला आधार जर्मन रोमान्टीसिज्‍म से आया हुआ हर्डर का राष्ट्रवाद था तो दूसरा आधार हिटलर का उदय। जैसा हमें जापान में भी देखने को मिलता है। जापनीज युनीकनेस वहाँ के सैन्यवाद के उदय का पहला चरण था, जो फासीवाद उन्मुख था।

भारतीय राष्ट्रवाद की तीसरी अवधारणा हिन्दूवादी गुरु गोवलकर और हेडगेवेार से प्रभावित थी जिसको हम राष्‍अ्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) कहते हैं। वे लोग इटली के दूसरे किस्म के फाससीवादी प्रारूप, जो शक्तिशाली शासक की परिकल्पना करता है से प्रभावित थे। मुसोलिनी का फासीवाद हिटलर के फासीवाद से थोडा भिन्न है। हिटलर जर्मन लोगों की बात करता है तो इटली का फासीवाद शक्तिशाली शासक की परिकल्पना करता है। वैसे तो जर्मन में फ्युरर की अवधारणा भी उससे मिलती जुलती है। भारत के गोलवलकरों को इटली के जैसा संगठन और सिद्धान्त में जर्मन जैसा होना था। वे लोग उसी मान्यता को आगे बढाना चाहते थे। वहां से हिन्दूवादी राष्ट्रवादी अवधारणा का जन्म होता है जिसका आज के दिनों में आरएसएस रक्षक है और भाजपा उसकी कर्ता।

आप पूछेंगे कि आरएसएस कैसे राष्ट्रवाद को आदर्श मानता है, तो इस विषय में अध्ययन करने वाले हैदराबाद विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्री ज्योतिर्मय शर्मा की लिखी हुई एक पुस्तक है जिसका नाम है– टेरिफाइंग विज़न। उसको देखना होगा। अपनी अवधारणा को लागू करने के लिए उसे जो कुछ भी करना है वह उसे मजबूती के साथ करने के लिए प्रतिबद्ध है। नेपाल में भी चन्द्रशमशेर से लेकर महेन्द्र तक ने राष्ट्रवाद की अवधारणा को जापनीज युनीकनेस और जर्मन राष्ट्रवाद से उधार लिया लेकिन शासक के रूप में महेन्द्र बहुत चालाक था। नेपाल में आरएसएस की अवधारणा ने जब अपना प्रभाव विस्तार किया तो महेन्द्र ने उसी अवधारणा को प्रजातन्त्र का नाम देकर विलायती अवधारणा के रूप में उसको प्रचारित किया लेकिन उनके द्वारा अभ्यासरत अवधारणा फासीवादी राष्ट्रवाद की अवधारणा थी।

वैसे तो जर्मनी में फासीवाद लाने वाले हिटलर ने भी तो समाजवाद का नारा दिया था। हिटलर ने जर्मनी में समाजवाद का आवरण दिया, नेपाल में महेन्द्र ने प्रजातन्त्र का आवरण दिया। लेकिन आवरण में चाहे जो हो, वे भीतर नृजातीय राष्ट्रवाद जो फासीवाद का पहला चरण है, उसी का अभ्यास कर रहे थे। आज के दिनों में ओली का जो राष्ट्रवाद है, वह गणतन्त्र के आवरण में मूलतः नृजातीय राष्ट्रवाद है। इसमें उन्होने भांप लिया है कि इसमें नुकसान होते हुए भी इसका फायदा ज्यादा है। मुझे लगता है संविधान का मुल काम नृजातीय राष्ट्रवाद की रक्षा करना है और अन्य बातें सब आवरण में दिखने वाले चीजें हैं।

आपका कहना है कि सैद्धान्तिक रूप से ओली फासीवादी अभ्यास में हैं?

देखिए, एक तो भूराजनीति का असर होता है। दुर्भाग्यवश नेपाल के दोनों पड़ोसी देशों में वह प्रवृतियाँ दिखाई दे रही हैं। महेन्द्र और बाद में वीरेन्द्र चाह कर भी फासीवाद तक नहीं पहुंच सके। उन लोगों को अधिनायकवाद से ही संतोष करना पड़ा लेकिन आज अंतरराष्‍ट्रीय परिदृश्य बदल चुका है। चीन में जिन पिंग के आजीवन राष्ट्रपति होने की सम्भावना है तो वही भारत में नरेन्द्र मोदी गुरु गोलवलकर के सिद्धान्त में हिंदू फासीवद का अभ्यास कर रहे है। अमेरिका में नस्लवादी सोच रखने वाले व्यक्ति का उदय हो चुका है।

ब्रिटेन में लौट कर वैसा ही हो रहा है। जर्मनी में भी एक प्रकार से कोलीशन ऑफ कम्‍प्रोमाइज्‍ड के जरिए दक्षिणपन्थ का उदय हो चुका है। फ्रान्स में दक्षिणपन्थ प्रभावकारी ढंग से सत्ता में आ चुका है। कहने का मतलब अंतरराष्‍ट्रीय परिदृश्य में जैसे फासीवादी शक्तियां सामने आ रही हैं, उस परिदृश्य की बात करें तो व्यक्तिगत रूप से ओली अपने विचार में बदनाम हुए बगैर गणतन्त्र के आवरण में सभी प्रकार के अभ्यास कर सकते हैं तो, उनको और कुछ करने की जरूरत नहीं आन पडेगी। ओली व्यवहारवादी व्यक्ति हैं, लेकिन उनके स्थान पर और कोई व्यक्ति आ सकता है।

दक्षिणपन्थी सोच रखने वाले नेता को उसके विरोध में खडे होने वाले माने गए वामपन्थी सरकार प्रमुख की ओर से नागरिक अभिनन्दन करने की बात को आप कैसे देख रहे है, साथ ही मधेस की बात की जाए तो जिसने उन लोगों को चौराहे पर ला पटक दिया उसी की सेवा में हाजिर है, क्या यह विरोधाभास नहीं है?

नेपाल में सिक्किम की बात बहुत होती है, लेकिन तिब्बत की नहीं। लेकिन जो सत्ता में पहुंच जाता है उसको दोनों का डर उतना ही सताता है। डर से घबराए हुए शासक के जेहन में उत्तर और दक्षिण दोनों को सन्तुलन में रखने की बात आने लगती है। वह पद की बाध्यता है। इसको सिद्धान्त से जोडकर मत देखिए। शायद ओली के जेहन में उनकी सर्वसत्तावादी अभिलाषा के लिए जितनी आसान हिन्दुत्व की राजनीति है चीन में ओली जैसे पण्डितों के लिए कोई जगह नहीं है क्योंकि चीन का सर्वसत्तावाद पूंजी का सर्वसत्तावाद है। लेकिन हिन्दुत्व के सर्वसत्तावाद में पण्डितों के लिए काफी जगह है। इसका कारण यह भी है कि मोदी खुद इसी प्रक्रिया से आए हुए नेता हैं। इसलिए ओली ने मोदी के साथ करीबी होने का अहसास किया होगा।

नृजातीय राष्ट्रवाद को स्‍वीकार करने पर तीन-चार बातें मोदी के साथ समान हो जाती हैं। मोदी जातीयता को स्‍वीकार करते हैं। मोदी एक धार्मिक राज्य स्‍वीकार करते हैं। मोदी एकल भाषा स्‍वीकार करते हैं। मोदी एकल नेतृत्व स्‍वीकार करते हैं। मोदी अर्धसैनिक शासक व्यवस्था स्‍वीकार करते हैं। मोदी संघीयता के भीतर केन्द्रीयता स्‍वीकार करते हैं। तो जाहिर सी बात है कि ओली को जिन चीन के शी से ज्यादा मोदी के साथ दोस्ताना अहसास होगा। आपको क्या लगता है, प्रचण्ड ने भारतीय प्रधानमंत्री मोदी के साथ खुद की केमिस्‍ट्री मिलने की बात एैसे ही कही होगी? केमिस्‍ट्री समान होने का मतलब है नृजातीय राष्ट्रवाद समान है। अब जब आपने नृजातीय राष्ट्रवाद की माला गले में पहन ली है तो माथे पर तिलक लगाने के लिए कैसी लज्जा? इसीलिए मोदी का भ्रमण पूजा से शुरू हुआ था।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि मोदी के लिए जनकपुर और मुक्तिनाथ धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण जगहें हैं। इस बात को ओली बखूबी जानते हैं। रामानंदी सम्प्रदाय हिंदू धर्म का एक सम्प्रदाय है, जिसका प्रभाव उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात और दक्षिण भारत में है। कर्नाटक में अभी चुनाव हुए हैं। इस समुदाय के साथ मेरा भावनात्मक सम्बन्ध कहकर दिखाने का उनके लिए यह महत्वपूर्ण अवसर था। कर्नाटक के लिंगायत सम्प्रदाय को भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस ने अपने विश्वास में ले लिया है तो अब दूसरे बडे सम्प्रदाय को अपने पक्ष में करने का समय मोदी का है। मोदी इस समय अधिकतम माईलेज के लिए प्रयासरत हैं। इसमें ओली का फायदा भी उतना ही है। मधेस में अपनी ज़मीन खिसका चुके ओली के लिए मोदी के बहाने फिर से पैठ बनाने का अच्छा अवसर था।

दूसरी बात, मधेस के लोग नैतिक जिम्मेवारी लेने के लिए कह सकते हैं कि नाकाबंदी हम लोगों ने किया है लेकिन बात उतने में ही खत्म नहीं होती। प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से भारत ने समर्थन दिया होगा, जिसका भारत में ही विरोध था। मधेसी राजनीतिककर्मियों को लगा होगा कि दिल्ली में कांग्रेस सरकार जितने सालों तक रही किसी ने उन्हें नैतिक, भौतिक समर्थन नहीं दिया लेकिन भाजपा के सरकार में आते ही कम से कम नैतिक समर्थन तो मिला। भारत का समर्थन हटते ही तीसरा मधेस विद्रोह असफल विद्रोह में परिणत हो गया। विद्रोह असफल हो जाने पर नेतृत्व के सामने तीन विकल्प रह जाते हैं:

पहला– पूर्ण आत्मसमर्पण । दूसरा– काठमांडो के साथ हाथ बढावें और दिल्ली से दबाव दें। तीसरा– इस बार असफल हो गए लेकिन कभी तो समय और परिस्थिति बदलेगी, नई पीढ़ी आएगी तब तक धैर्यपूर्वक अपने मुद्दों पर टिका जाए। लेकिन मधेस के राजनीतिकर्मियों ने दूसरा रास्ता चुनना पसन्द किया। उन्होंने संविधान के जारी होने के बाद वाले चुनाव में भाग लिया और एक प्रान्त में सरकार बनाने में सफल रहे। उन लोगों को लगा कि अब हमारी पुश्‍त क्रान्ति नहीं कर सकती। क्रान्ति ना होने की स्थिति में सम्मान की राजनीति को विराम दें और साझेदारी के राजनीति को शुरू करें। साझेदारी के लिए अपना वजन नाकाफी है तो उन लोगों ने बेहयाई के साथ मोदी के शरण में जाने की ठान ली। नहीं तो मोदी ने तो मधेस को धोखा दिया है। वास्तव में मोदी ने मधेस को पेड़ पर चढने को कहा और नीचे से पेड काट दिया। इतना होते हुए भी दूसरों के सामने हाथ फैलाने का विकल्प मधेसी नेताओं के पास नहीं है। इसिलिए मधेसी राजनीतिकर्मियों ने मोदी के सामने तोम शरणम् कर दिया। जहां तक अभिनन्दन की बात है, वह सिर्फ औपचारिकता है।

क्या लगता है, अब क्या होगा?

राष्ट्रवाद को ओलीजी ने चुनाव कराने और संविधान को स्थापित करने के लिए रणनीतिक रूप में उपयोग किया था। नेपाल में दूसरा चुनाव होने को अभी तीन-चार साल लगेंगे इसीलिए उनकी चिन्ता राष्ट्रवाद के मामले में नहीं है। मेरी सुवेच्छा है कि उनकी आयु लम्बी हो लेकिन एक राजनीतिकर्मी सिर्फ दूसरे चुनाव तक ही सोचता है। ओली स्टेट्समैन नहीं हैं, वे विशुद्ध पोलिटिशियन है। इसीलिए वे अपनी राष्ट्रवादी छवि को लेकर उतने चिंतित नहीं हैं। दूसरी चिन्ता इसलिए करने की जरूरत नहीं है कि उनके विचार निर्माण में मीडिया में उनकी पार्टी का एकछत्र साम्राज्य है। मीडिया में आपने उनका कहीं विरोध देखा है? सेल्फ सेन्सरशिप इतना सघन है कि उनके भजन के सिवाय मीडिया में कुछ भी सुनने, पढ़ने और देखने को नहीं मिलता। उनके राष्ट्रवादी छवि निर्माण में पूरा मीडिया लगा हुआ है तो वे क्यों चिन्ता करने लगे। दूसरी बात है कि आज के दिनों में राष्ट्रवाद की पुनर्व्‍याख्‍या अब आर्थिक उन्नति और समृद्धि के मार्फत हो सकती है।

अब यह देखने की ज़रूरत है कि वे शक्ति का केन्द्रीकरण कैसे करते है? वे संसद से कैसे कानून बनवाते हैं। इस बीच उन्होंने कुछ संस्थाओं का अपने में केन्द्रीकरण कर लिया है। पूंजीपतियों पर दबाव बनाए रखने के लिए सम्पत्ति शुद्धिकरण विभाग को अपने मातहत कर लिया है। नौकरशाहों के लिए कानून में संशोधन की चर्चा है। सेना को वे अपने हाथों में कैसे ले पाते हैं क्योंकि पुलिस तो पहले से ही उनके पूर्ण नियन्त्रण में है। शक्ति का केन्द्रीकरण कैसे होता है वह महत्वपूर्ण बात है।

उसी शक्ति के केन्द्रीकरण से पता चलेगा कि ओली कौन से घोड़े पर सवार होकर फासीवाद की ओर जा रहे हैं- इटली के, जर्मन के या जापान के। यहां ध्यान देने की बात है कि हर जगह जहां भी फासीवाद आया है वहां विकास और समाजवाद नाम के घोडे पर सवार होकर आया है। ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ नाम का नारा ट्रम्प ने ऐसे ही नहीं दिया है। 16वीं सदी में धर्म जनसमुदाय के लिए नशा था तो 21वीं सदी में समृद्धि जनता को दिया गया दूसरा नशा है। उसके नशे में मस्त आदमी मत्त हाथी से भी घातक होता है।


नरेश ज्ञवाली बतौर पत्रकार लगभग डेढ़ दशक से नेपाल में पत्रकारिता कर रहे है। भारत से निकलने वाली मासिक पत्रिका समकालीन तीसरी दुनिया के नेपाल प्रतिनिधि के रूप में उन्होंने लंबे समय तक काम किया है।