क्या अब सेनाध्यक्ष हमें बताएंगे कि कौन हमारा नेता है और कौन नहीं?



यूं तो हमारे लोकतंत्र ने समूचा 2019 ही खतरों से खेलते हुए बिताया, लेकिन इस वर्ष के अंतिम दिनों में उसके लिए दो ऐसे बड़े खतरे सामने आये, जिनकी उपेक्षा की हमें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। पहला यह कि देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए सड़क पर उतरे नागरिकों को दंगाई व उपद्रवी करार देकर रौद्र रूप दिखाने व बदला लेने पर उतर आये-खुल्लमखुल्ला ट्वीट करके। और दूसरा यह कि देश के सेनाध्यक्ष ने इस आन्दोलन पर ऐसे वक्त, जब केन्द्र सरकार नवसृजित चीफ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ पद पर उनकी नियुक्ति पर विचार कर रही थी, न सिर्फ गैरजरूरी टिप्पणी की, बल्कि विश्वविद्यालयों में हुई हिंसा के बहाने यह अवांछनीय सम्मति भी दे डाली कि हिंसक भीड़ का नेतृत्व करने वाले नेता नहीं हुआ करते। इनमें मुख्यमंत्री के कृत्य पर तो कुछ आलोचनात्मक टिप्पणियां सामने आई हैं, लेकिन सेनाध्यक्ष को लेकर लगभग चुप्पी की स्थिति है।

इस स्थिति को तोड़ें शुरूआत यह मानकर ही करनी होगी कि यह सेना के बजाय लोकतंत्र की ही दी हुई शक्ति है, जिसका उपयोग करके सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत ने, जिनसे अपेक्षा की जाती है कि वे घरेलू राजनीति से सर्वथा निर्लिप्त रहकर सारा ध्यान देश की सीमाओं की चैकसी पर लगायेंगे, उक्त टिप्पणी की। ‘शराफत’ आड़े न आती तो शायद यह भी कह देते कि नेता वास्तव में हमारे आज के सत्ताधीशों जैसे होते हैं, जो ऐसा ‘नया भारत’ बनाने में कुछ भी उठा नहीं रख रहे, जिसमें सेनाध्यक्ष तो सेनाध्यक्ष, विश्वविद्यालयों के कुलपतियों में भी कोई अपने विश्वविद्यालय में टैंक रखवाने की इच्छा जता रहा और कोई कह रहा है कि उसके विश्वविद्यालय में तो पहले से लड़ाकू विमान मिग रखा हुआ है!

आप इसे सेनाध्यक्ष द्वारा इन सत्ताधीशों को खुश करने के लिए अपनी संस्थागत सीमाओं का उल्लंघन भी कह सकते हैं। यों, यह हमारे लोकतंत्र का दुरुपयोग ज्यादा है। इस दुरुपयोग में वे सत्ताधीश भी बराबर के साझीदार हैं, जो संभवतः हमारे सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न लोकतंत्र को, जैसे भी बने, सैनिकप्रभुत्वसम्पन्न लोकतंत्र में बदल देना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने सेना को ‘पवित्र गाय’ में बदल दिया है, जिससे उसकी बाबत किसी साधारण-से सवाल को भी देशद्रोह में बदला जा सके। गुस्ताखी माफ हो तो ये वही सत्ताधीश हैं, जिन्होंने जनरल बिपिन रावत को दो आर्मी कमांडरों के ऊपर लाकर सेनाध्यक्ष के पद पर बिठाने में पुरानी सरकारों द्वारा आमतौर पर अपनाये जाने वाले वरिष्ठता के सिद्धान्त को भुला दिया और अब उनके सेवानिवृत्त होने से पहले ही उनके लिए चीफ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ का पद सृजित कर दिया है।

सत्ताधीशों व वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों की ‘परस्पर निर्भरता’ के इस मामले को लेफ्टीनेंटजनरल एच.एस. पनाग के शब्दों समझें तो पिछले दिनों वायुसेना के बड़े अधिकारियों ने राफेल जेट विमानों के लिए फ्रांस की दासाल्ट कंपनी से हुए सौदे का तब खुलकर समर्थन किया था, जब नरेन्द्र मोदी सरकार को उसकी बहुत जरूरत थी। कायदे से यह इन अधिकारियों का काम नहीं था और उन्हें विमान के मूल्यांकन, उसके तकनीकी तथा हथियारों के पैकेज और दीर्घकालिक रखरखाव एवं आधुनिकीकरण की शर्तों के आकलन तक सीमित रहना था।

यहां समझने की एक बात, लेफ्टीनेंट जनरल पनाग के ही अनुसार यह भी है कि सेना के अवसरवादी बड़े अधिकारी पहले भी राजनीतिक सत्तातंत्र से नजदीकियां बनाने के फेर में रहते आये हैं। लेकिन तब सरकारें उन्हें प्रोत्साहन देने के बजाय हतोत्साहित करती थीं। 1962 के युद्ध में ऐसे अधिकारियों के किये की कीमत चुकाने के बाद सेना और सरकार ने मिलकर इस प्रवृत्ति के खात्मे के लिए सुधार के सख्त कदम उठाये और निर्देश दिये कि सैन्य अधिकारी घरेलू राजनीति के प्रपंच से दूर रहकर नियम कायदों का सख्ती से पालन करें। लेकिन जब से मोदी सरकार आई है, इसने ‘सब कुछ बदल डालने’ के जुनून में इन अधिकारियों को राजनीतिक किस्म के बयानों से परहेज रखने के लिए चेताने की जगह उनकी प्रशंसा और बचाव की राह पकड़़ ली है।

2017 के अप्रैल में जम्मू-कश्मीर में जवानों पर पत्थरबाजी के विरुद्ध आपरेशन में कश्मीरी युवक फारुक अहमद डाॅर को जीप के बोनट पर बांधकर घुमाने वाले 53 राष्ट्रीय रायफल के मेजर लितुल गोगोई को भी ऐसे समर्थन की कमी नहीं ही पड़ी थी। बाद में उनको बेहद आसानी से क्लीनचिट दे दी गई और पीड़ित के मानवाधिकारों का सवाल उठाने वालों को यह कहकर चुप करा दिया गया था कि सैनिकों के कोई मानवाधिकार नहीं हैं क्या? यह सवाल आज भी मानवाधिकारहनन समर्थकों के निकट सबसे सुभीते का सवाल है। जाहिर है कि उन्हें अभीष्ट अवसर आया तो सारे मानवाधिकार सैनिकों या सुरक्षाबलों और पुलिस के जवानों के ही हो जायेंगे और आम आदमी उनसे सर्वथा महरूम हो जायेगा।

इसका कुछ-कुछ अंदाजा अभी के देश के हालात से भी लगता है। जिन अरक्षित लोगों ने अपने संरक्षण के लिए लोकतांत्रिक राज्य की कल्पना की, साथ ही उसे मजबूत तंत्र विकसित करने का हक दिया, आज राज्य द्वारा उसे उसके हाल पर छोड़कर कहा जा रहा है कि वह अपनी देशभक्ति सिद्ध करने के लिए उन सैनिकों की फिक्र करे, जो शून्य से भी नीचे के तापमान में देश की सीमाओं की रक्षा में सन्नद्ध हैं या प्राकृतिक विपदाओं के वक्त देवदूत बनकर बचाने आ जाते हैं। इतना ही नहीं, देशवासियों को उन पुलिस व अर्धसैनिक बलों और साथ ही करदाताओं व निवेशकों का भी कृतज्ञ होने को मजबूर किया जा रहा है, जिनकी मनमानियों का मन कभी भरता ही नहीं है। यह तब है, जब ‘माननीयों’ समेत इस आम आदमी के प्रायः सारे ‘सेवक’ पहले से ही खासे मजे में हैं। उसका दम उनका बोझ उठाते-उठाते ही निकला जा रहा है और उनकी व उसकी माली हालत एक दूसरे की विलोम होकर रह गई हैं।

इसके पीछे की मंशा इसके सिवा और क्या हो सकती है कि गरीब देशवासी अपनी औकात में रहंे और अपने अमीर सेवकों में से किसी को भी देखते ही ‘क्या हुक्म है आका?’ कहकर कोर्निश बजायें व बेहद अदब से पेश आयें। यह भी न पूछें कि सैनिक सीमा की सुरक्षा करते हैं तो किसान भी तो उनके और देश के लिए अन्न उगाते हैं, फिर उनका योगदान कम महत्वपूर्ण कैसे हो गया? यहां तो शास़्त्रों तक में निर्देश है कि जब भी अन्नग्रहण करो, जिस किसान ने उसे उपजाया, उसके बच्चों को शुभकामनाएं जरूर दो कि उन्हें कभी भूखे न सोना पड़े।

फिर जो देशवासी सैनिकों के लिए वर्दियां, जूते, उपकरण और अस्त्र-शस़्त्र वगैरह तैयार करने में योगदान करते, घायल या बीमार होने पर अस्पतालों में उनकी सेहत का ध्यान रखते और रक्तदान तक को उमड़ पड़ते हैं, वे ही कम महत्वपूर्ण क्यों हैं? सैनिक सीमा पर जाते हैं तो क्या सिर्फ अपनी शक्ति से लड़ते हैं या जिस शक्ति से लड़ते हैं , वह सारी की सारी उन्हीं की होती है और उसमें हमारा कोई योगदान नहीं होता? इसलिए हम उनकी और उनके आकाओं की जा-बेजा सारी कारस्तानियों की ओर से आंख मूंदकर ही उनका ‘कर्ज’ उतार सकते हैं? इसके विपरीत तथ्य यह है कि एक शस्त्र सज्जित सैनिक को सीमा पर भेजने के पीछे लगभग पचास नागरिकों की मेहनत होती है। ऐसे में कोई भी कृतज्ञताबोध एकतरफा नहीं हो सकता-सेना और सेनाध्यक्ष का स्तुतिगान भी नहीं।

अपने लोकतंत्र की सेहत के लिए इस स्तुतिगान के बीच भी हमें इस बात को गांठ बांध रखना होगा कि सेनाएं कैसी भी और कहीं की भी क्यों न हों, मूल चरित्र में एक-सी होती हैं। अपवादों को छोड़ दें तो उन्हें कहीं भी लोकतंत्र को बचाने के लिए नहीं जाना जाता। इसके उलट लोकतंत्र का अपहरण कर सैनिक तानाशाही थोपने से जुड़ी अनेक शौर्यगाथाएं उनके नाम दर्ज हैं। सेनाओं को राजनीति या सत्ता का चस्का लगना इस अर्थ में भी अनर्थकारी होता है कि लोकतंत्र में रहकर तो आप सेना के पराक्रम और शौर्य की कितनी भी प्रशंसा कर सकते है, लेकिन सैनिक शासन में लोकतंत्र की मांग नहीं कर सकते। सेना का राज इतना ही अच्छा होता तो आजादी के बाद हम लोकतंत्र की राह पर क्यों चलते-सेना का ही बाजा बजाने लग जाते!

फिर भी लोग इस लोकतंत्र की शक्ति का सेना के यशोगान के लिए ‘उपयोग’ कर रहे हैं, अंततः पछताना नहीं चाहते तो उन्हें कम से कम इतना तो समझना ही चाहिए कि चिड़िया के खेत चुग जाने से पहले चेत जाना हमेशा बेहतर हुआ करता है।

सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे के शब्दों में इस चेतना की राह की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि हिन्दू होने की प्रतिक्रियामूलक चेतना सार्वजनिक जीवन का स्वभाव बनाई जा चुकी है। इसके चलते लोकतंत्र के केन्द्र में पुलिस, फौज, अर्धसैनिक बलों व सरकार के आज्ञापालन का विचार स्थापित करने की प्रकिया जोर पकड़ रही है। प्रतिरोध, व्यवस्था विरोध और असहमति के विचार लगभग अवैध घोषित कर दिये गये हैं। उनके पैरोकारों को जिस तरह अर्बननक्सल, पाकपरस्त व देशद्रोही वगैरह करार दिया जा रहा है, उससे अंदेशा होता है कि एक दिन संविधान भले ही अपनी जगह रहे, भारतीय राज्य और समाज केवल शब्दों में उसकी नुमाइन्दगी करते दिखेंगे।

सन्दर्भित आन्दोलन पर लौटें तो जामिया मिलिया इस्लामिया में हुई हिंसा के मामले में यह कुछ कम आश्चर्यजनक नहीं कि कोर्ट ने बिना सुने ही मान लिया कि उसके लिए वही दोषी हैं, जो इंसाफ मांगने उसके पास आये हैं। बाद में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी यही मान लिया और अब सेनाध्यक्ष अपनी संस्थागत सीमाएं लांघकर बताने लगे हैं कि कौन नेता है और कौन नहीं। इसके अंदेशों को ठीक से समझे जाने की जरूरत है।