CBI पर सुप्रीम सुनवाई: दाँव पर है संविधान और लोकतंत्र!



पुण्य प्रसून वाजपेयी 


जब 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सभी बरी हो गये और कोयला खादान घोटाले में कोई जेल नहीं पहुंचा तो सवाल सीएजी पर भी उठा कि घोटाले से राजस्व के घाटे का जो आंकड़ा दिया गया, वह सिर्फ आंकड़ा भर था या विपक्ष (बीजेपी) को राजनीतिक हथियार दिया गया। जब सीबीआई को सुप्रीम कोर्ट ने पिंजरे में बंद तोता कहा तो लगा यही कांग्रेसी सत्ता में नैतिक बल नहीं और सत्ता परिवर्तन के बाद नैतिकता की दुहाई देती बीजेपी की सत्ता तोते को पिंजरे से मुक्त कर देगी  लेकिन संस्थानों की मुक्ति तो दूर, सत्ता बदलने के बाद एक एक कर सारे संस्थान ही राजनीतिक सत्ता की हथेलियो पर नाचने लगे। सीएजी से लेकर सीआईसी। सीबीआई से लेकर सीवीसी। ईडी से लेकर इनकमटैक्स और चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट (चार जस्टिस की प्रेस कान्फ्रेन्स) तक के भीतर से आवाज सुनाई देने लगी की लोकतंत्र खतरे में है।

तो अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या लोकतंत्र के एसिड टेस्ट का वक्त आ गया है। और कल (26 अक्टूबर) जब सुप्रीम कोर्ट में सीबीआई के पूर्व डायरेक्टर आलोक वर्मा की याचिका पर सुनवाई होगी तो चीफ जस्टिस गोगोई का फैसला इस मायने में अहम होगा कि देश में संवैधानिक व्यवस्था जिस ” चैक एंड बैलेंस” की बात कहती है, वह किस हद तक सही है। संविधान चुनी हुई सत्ता को सबसे ताकतवर जरुर मानता है और संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहता है लेकिन संविधान में इसकी व्यवस्था भी है कि कोई संस्था तानाशाही में तब्दील ना हो जाये। इंदिरा गांधी ने भी आपातकाल लगाया तो संविधान से मिलने वाले हक को निलंबित कर दिया।

सीबीआई का मामला अब जब सुप्रीम कोर्ट पहुंचा है तो हर जहन में एक साथ कई सवाल है। मसलन , क्या सुप्रीम कोर्ट सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजे जाने के फैसले को खारिज कर देगा। क्या विशेष डायरेक्टर अस्थाना के आरोप को सही ठहराते हुये सीवीसी के फैसले को सही करार दे देगा। क्या सीवीसी को वाकई ये अधिकार है कि वह सीबीआई डायरेक्टर की नियुक्ति के वक्त लिये गये तीन सदस्यीय कमेटी के फैसलों को पलटने का सुझाव दें और सरकार उसे अमल में ले आये। संयोग देखिये, जिस कमेटी ने आलोक वर्मा को सीबीआई डायरेक्टर बनाया उसमें प्रधानमंत्री मोदी और विपक्ष के नेता खडगे के अलावे चीफ जस्टिस भी शामिल थे। और अब सीबीआई डायरेक्टर का मामला चीफ जस्टिस की अदालत में आया है। यानी ये अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण है कि जिस कमेटी में चीफ जस्टिस है, उस कमेटी के फैसले को ही सरकार ने सीवीसी के कहने भर से बदल दिया। यानी दो वर्ष के लिये बनाये गये सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा को पद से हटाने से पहले सरकार ने नियुक्त करने वाली कमेटी से भी नहीं पूछा। जाहिर है ऐसे में तकनीकी वजह से भी चीफ जस्टिस चाहे तो सरकार को कठघरे में खड़ा कर सकते है। पर कल का दिन सिर्फ सीबीआई डायरेक्टर भर से नहीं जुड़ा है। कल का दिन मोदी सरकार की उस साख से भी जा जुड़ा है, जहां वह संवैधानिक संस्थानों की ताकत को सत्तानुकुल बनाने की दिशा में बढते हुये भी ईमानदारी का पाठ ही जोर जोर से पढ़ती रही ।

यानी सवाल सिर्फ इतना भर नहीं है कि जो जस्टिस गगोई नौ महीने पहले चीफ जस्टिस मिश्रा के दौर में सार्वजनिक तौर पर “लोकतंत्र खतरे में है” कहने से हिचके नहीं थे, अब वह खुद चीफ जस्टिस हैं तो न्याय होगा ही। सवाल ये है कि आखिर संविधान की व्याख्या करते हुये कैसे जस्टिस गोगोई उन हालात को उभारेंगे जो हर सत्ता को ताकत दे देती है कि वह संवैधानिक संस्थाओं के जरिये ही सत्ता को बनाये और बजाये रखने के लिये संविधान में ही सेंध लगाते हुये कार्य करती है। जाहिर है ये कार्य जितना कठिन है उससे ज्यादा कही हिम्मत भरा है। क्योंकि सीबीआई का अपना सच तो यही है कि बीते पांच बरस में वहा के 25 अधिकारी दागदार साबित हुये हैं । तीन सीबीआई डायरेक्टर भ्रष्टाचार के मामले में फंसे है । नौ हजार से ज्यादा मामले सीबीआई में पेंडिंग पड़े है। इसके सामानांतर जिस सीवीसी को मोदी सरकार ने ढाल बनाया है और कानूनी और तकनीकी तर्क से अपने फैसलों को सही करार दे रही है, उस सीवीसी की 2017 की वार्षिक रिपोर्ट बताती है कि 2017 में उसके पास 2016 तक के 1678 पेंडिंग पड़े थे। और सीवीसी जिस तेजी से काम करती है उसमें 3666 पेंडिंग मामले उसने 2018 पर डाल दिये। पर उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि करप्शन पर नकेल कसने को लेकर सक्रिय सीवीसी ने नारा दिया , ” मेरा लक्ष्य, भ्रष्टाचार मुक्त भारत।” और सीवीसी का काम है कि सीबीआई जब किसी पर कोई आरोप लगाती है तो उसे वह परखे । और तत्काल निर्णय दे। क्योंकि तीन सौ से ज्यादा कर्मचारी और अधिकारी वहां इसीलिये नियुक्त किये गये हैं।

असर इसी का है कि सितंबर में सीबीआई के स्पेशल डायरेक्टर आस्थाना की शिकायत पर महीने भर में तमाम जांच के बाद, सीबीआई डायरेक्टर के खिलाफ पुख्ता सबूत होते हुये जांच की बात कहते हुये पद से हटाने की बात कही गई, और सरकार ने झट-पट सीबीआई डायरेक्टर को छुट्टी पर भेजकर एडिशनल डायरेक्टर को डायरेक्टर के पद पर भी बैठा दिया । लेकिन ये तेजी सीबीआई के ही तमाम मामलो को लेकर सीवीसी कैसे काम करती है ये जानना भी जरुरी है। 2017 में सीबीआई ने सीवीसी के सामने 171 मामले रखे । जिसमें से सिर्फ 39 मामलो को ही साल भर में तमाम जांच प्रकिया के बाद निर्णय तक सीवीसी पहुंच पाये। और बाकि मामलो में कही आपराधिक सुनवाई चल रही है तो कही पेन्लटी भरने को कहा गया तो प्रशासनिक चेतावनी या एक्शन भर की बात कही गई। वैसे, महत्वपूर्ण ये भी नहीं है कि किस स्वायत्त और संवैधानिक संस्था में कितनी तेजी से काम हो रहा है। राजनीतिक सत्ता के लिये संवैधानिक संस्था को लेकर हालात उलट होते है । यानी जो संस्था जितनी भ्रष्ट होगी, या फिर जिस संस्था में जितनी धीमी गति से काम होता होगा, वहा के अधिकारी/ कर्मचारियो में नैातिक बल उतना ही कम होगा और उसे सत्तानुकुल बनाने में उतनी ही आसानी किसी भी सत्ता को होगी । संस्थानों पर गौर करें ईडी या इन्कंम टैक्स में 80 फिसदी मामले लंबित पडे है ।

सीआईसी में आरटीआई कानून को लेकर दो फाड़ है । सीआईसी चैयरमैन आर्चुलु के ही मुताबिक सरकार चाहती है आरटीआई कानून निष्क्रिय हो । यानी सरकार जवाब देने से बचना चाहती है तो देश भर में इसे कमजोर करने की दिशा में पढ रही है। सीएजी ने चार महीने पहले मोदी सरकार के 11 मंत्रालयों में गड़बड़ी की रिपोर्ट दी तो उन अधिकारियों को ही शंट कर दिया गया, जो सक्रिय थे । पर उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि जिस सीएजी की रिपोर्ट को मनमोहन सरकार के दौर में मीडिया सिर पर बैठाये रहता था वह सीएजी की रिपोर्ट मोदी सरकार के 11 मंत्रालयो को लेकर कब आई और कब गायब कर दी गई, इसे मीडिया ने छुआ तक नहीं । यानी सत्ता के काम करने का दायरा किस रुप में विस्तारित हुआ, ये चुनाव आयोग के जरीये चुनाव की तारीखों के एलान में सत्ताधारी पार्टी की सुविधा और सुप्रीम कोर्ट में जजो की नियुक्ति को लेकर कोलेजियम के जरीये भिड़ने के तरीकों ले कर सीबीआई के भीतर भी दो फाड़ की स्थिति कैसे लाई गयी

ये आस्थाना की स्पेशल डायरेक्टर के पद पर अचानक हुई नियुक्ति से समझा जा सकता है। आस्थाना के खिलाफ जाँच कर रही टीम, जिसे आलोक वर्मा के लोग करार दे दिया गया, उसे बदल कर तीन ऐसे लोगो को जांच टीम का हिस्सा बनाया गया जिन्हें आस्थाना की ही टीम का माना जाता है । यानी संवैधानिक संस्था के भीतर दो फाड़ कैसे हो सकता है और सामाजिक तथा आर्थिक तौर पर राजनीति करते हुये सत्ता किसे कैसे इस्तेमाल करती है, ये भी किसी से छिपा नहीं है। और इसका बेहतरीन उदाहरण तो मीडिया ही है । जो पहले बंटा । फिर एकतरफा हो गया । यही हालात राजनीति के भी है । मायावती की चुनावी रणनीति और मुलायम या शिवपाल की राजनीति। या फिर तमिलनाडु में एआईडीएम का बँटना। यानी लकीर बेहद महीन है और चाहे अनचाहे इस महीन लकीर पर ही कल का फैसला आ टिका है। यानी संविधान की व्यख्या करते हुये सुप्रीम कोर्ट “चैक एंड बैलेंस” की उस लकीर को किस हद तक खिंच पायेगा, जिसमें सत्ता का ये भ्रम टूटे की पांच बरस की मनमानी के लिये जनता ने उसे नहीं चुना। और आधी रात को सत्ता की हरकत जब संवैधानिक पद पर बैठे सीबीआई डायरेक्टर को डिगा सकती है तो जनता की क्या बिसात । इंतजार कीजिये दांव पर संविधान सम्मत लोकतंत्र है।

लेखक मशहूर टीवी पत्रकार हैं।