जीडीपी की बाज़ीगरी और आंकड़ों की गुलाटी सरकार बहादुर को बहुत भारी पड़ सकती है



प्रकाश के रे 

तीन साल पहले मोदी सरकार ने जब जीडीपी तय करने के मानदंड बदले थे और ग्रोथ रेट अचानक सात फ़ीसदी के आसपास पहुँच गई थी, तब मॉर्गन स्टेनली इंवेस्टमेंट मैनेजमेंट के चीफ़ ग्लोबल स्ट्रेटेजिस्ट रुचिर शर्मा ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया में एक लेख लिखा था. उस लेख का शीर्षक ही था कि दुनिया इस फ़ालतू चुटकुले पर हँस रही है. बहरहाल, सरकार बहादुर ने आज तक यह नहीं बताया है कि जीडीपी तय करने के नये तरीक़े के हिसाब से उससे पहले की दरें क्या ठहरती हैं. साल 2015 में जो आर्थिक सर्वे जारी हुआ था, उसमें सर्वे के लेखक यानी मुख्य आर्थिक सलाहकार ने ही उसे ‘पज़लिंग’ यानी उलझाऊ बताया था. उस समय आठ फ़ीसदी के ग्रोथ का आकलन किया गया था. साल 2014 के दिसंबर में लंबित परियोजनाओं के जो आँकड़े भारत सरकार ने दिए थे, वह दो माह बाद उस आर्थिक सर्वे में आधे से भी कम हो गये थे. यह भी याद करना दिलचस्प है कि सर्वे की भूमिका में ही यह बात लिख दी गयी थी कि इसे तैयार करने में सतही और ऊपरी समझ का भी काम लिया गया है.

वर्ष 2015 की ही जुलाई में रिज़र्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर ने चिंता ज़ाहिर की थी कि अच्छे अर्थशास्त्रियों की कमी से नीति-निर्धारण की प्रक्रिया पर नकारात्मक असर पड़ रहा है. राजन ने इस साल जनवरी में कहा था कि वे इस बात को लेकर आशंकित है कि कुछ गिने-चुने लोग ही तो कहीं सारे फ़ैसले नहीं ले रहे और ब्यूरोक्रेसी को इससे बाहर रखा जा रहा है.

ख़ैर, सरकारों द्वारा आँकड़ों के साथ छेड़छाड़ और ग़लतबयानी कोई नया हादसा तो है नहीं. बजट में पेश आँकड़ों पर सवाल उठ चुके हैं, रोज़गार पर झूठ बोलना तो सरकार का मुख्य रोज़गार ही बना हुआ है. वित्तीय घाटे पर भी गोलमोल और गोलमाल की आशंका है. लेकिन क्या किया जाये! विकास राष्ट्रीय सनक बना हुआ है. एक बानगी देखिये. कोई बता रहा था कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह भी दावा कर दिया है कि बिहार दुनिया में सबसे अधिक दर से विकास कर रहा है. एक भोजपुरी कहावत बारहा याद आ जाती है- मूस मोटईहें, लोढ़ा होईहें…!

अब आते हैं जीडीपी के ताज़ा आँकड़ों पर, जिसकी बिना पर कहा जा रहा है कि अपुन चीन से आगे निकल गया ब्रो. निकल भी सकते हैं. चीन तो आँकड़ों की बाज़ीगरी में हमसे बहुत आगे है. आर्थिक मसलों पर तीक्ष्ण नज़र रखने वाले मुकेश असीम ने हिसाब लगा कर कुछ समझाने का प्रयास किया है:

“अक्टूबर-दिसंबर, 2017 में 7.2% वृद्धि दर पिछले साल की तिमाही अक्टूबर-दिसंबर, 2016 की तुलना में है. अक्टूबर-दिसंबर, 2016 में नोटबंदी की वजह से अप्रत्यक्ष कर की वसूली कम हुई थी. इस बार की सामान्य वसूली उसके मुकाबले 13% वृद्धि दिखा रही है. टैक्स वसूली भी जीडीपी का हिस्सा है. यही 13% अधिक कर वसूली जीडीपी की रफ़्तार में एक कारक है. दूसरे, पिछली बार नकदी की कमी से सोने-चाँदी में ख़रीदी कम हुई थी, इस बार बहुमूल्य वस्तुओं में 70% की उछाल है – 1.59 लाख करोड़ रुपये से 2.72 लाख करोड़! मतलब, लोग उत्पादक निवेश नहीं कर रहे हैं और न ही उपभोग में ख़र्च कर रहे हैं, बल्कि आर्थिक संकट से घबराये होने की वज़ह से पैसा सोने-चाँदी में लगा रहे हैं. इन दोनों कारकों को निकाल दें, तो जीडीपी की दर शायद पाँच फ़ीसदी के आसपास हो जायेगी”.

वित्तीय ब्रोकरेज का काम करनेवाली संस्था नोमुरा ने भी नये आँकड़ों पर गंभीर सवाल उठाये हैं. आँकड़े कहते हैं कि कृषि क्षेत्र में 4.1 फ़ीसदी की बढ़त भरोसेमंद नहीं है. इससे पहले की तिमाही में इस क्षेत्र में विकास दर मात्र 2.7 फ़ीसदी रही थी. स्क्रॉल में शोएब दानियाल ने याद दिलाया है कि 2016-17 की तिमाही में भी वृद्धि दर सात फ़ीसदी बताई गई थी, जबकि तब नोटबंदी का क़हर जारी था. उस समय नोमुरा ने जीडीपी के आँकड़ों को ‘फ़ैक्ट या फ़िक्शन’ कहते हुए रेखांकित किया था कि जीडीपी निर्धारित करते हुए संगठित क्षेत्र के आँकड़ों पर अत्यधिक निर्भरता सही नहीं है.

नये आँकड़ों पर अर्थशास्त्री प्रसेनजित बोस ने विस्तृत टिप्पणी करते हुए इस क़वायद को मोदी सरकार की हेराफ़ेरी बताया है. उन्होंने रेखांकित किया है कि मुख्य सांख्यिकी अधिकारी (सीएसओ) के आकलन में वित्त वर्ष 2017-18 की वृद्धि दर 6.6 फ़ीसदी अनुमानित की गई है, जो कि 2016-17 के 7.1 फ़ीसदी से नीचे है. इस बार के आर्थिक सर्वे में वृद्धि दर 6.75 फ़ीसदी आकलित की गई है और सीएसओ का अनुमान उससे कम है. डॉ. बोस ने भी कृषि क्षेत्र में अचानक उछाल के अनुमान पर आश्चर्य जताया है. उन्होंने कहा है कि मैनुफैक्चरिंग में बढ़त ज़रूर है, पर इसमें भी आँकड़े उलझाऊ हैं. पहली बार सरकार बता रही है, वह भी चुपचाप, कि इस क्षेत्र में ग्रॉस वैल्यू एडेड ग्रोथ इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही में नकारात्मक- (-)1.8% था. ख़ैर, आकलन बताते हैं कि इस क्षेत्र में भी सालाना जीवीए वृद्धि दर घट कर 7.9 फ़ीसदी से पाँच फ़ीसदी के स्तर पर आ जायेगी.

फ़िक्स्ड कैपिटल फ़ॉर्मेशन के आँकड़ों पर डॉ. प्रसेनजित बोस ने सबसे अधिक आश्चर्य जताया है. ये आँकड़े इसलिए महत्वपूर्ण होते हैं कि इनसे अर्थव्यवस्था में निवेश की सही स्थिति का पता चलता है. बोस कहते हैं कि सीएसओ ने जो आकलन जनवरी, 2018 में दिया था, उनमें बीते तीन वित्तीय वर्षों में निवेश के हिसाब-किताब में गिरावट दर्ज की गई थी, लेकिन कमाल देखिये, उसी सीएसओ द्वारा फ़रवरी, 2018 में निवेश के क्षेत्र में सकारात्मक तस्वीर बना कर पेश कर दी गई है. यह भी उल्लेखनीय है कि अनेक जानकारों ने संकेत किया है कि बजट में सरकार ने जीएसटी राजस्व के आँकड़ों को इधर-उधर कर राजस्व में एक ट्रिलियन रुपये से अधिक की कमी को छुपा लिया है. इसका सीधा असर वित्तीय घाटे पर होगा.

आश्चर्य की बात यह है कि ताज़ा आँकड़ों की रोशनी में ख़बर तो यह होनी चाहिए थी कि वास्तव में इस साल की वृद्धि दर पहले के अनुमानों से कम रहेगी. लेकिन, जैसे बजट के समय असली तस्वीर के बजाय हज़ारों-लाखों-करोड़ों के आवंटन को हेडलाइन बना कर परोसने में मीडिया माहिर हो चला है, उसी तरह वह भी वृद्धि दर के जुमलों को उछालने में ज़्यादा दिलचस्पी लेता है. सरकार आर्थिक स्थिति को सुधारने पर ध्यान देने के स्थान पर जनता को सब्ज़बाग़ दिखाने में अधिक व्यस्त है. आँकड़े, तथ्य, सूचनाएँ और उनकी व्याख्या लोकतंत्र के बचे-बने रहने के लिए ज़रूरी हैं. इनमें कलाबाज़ी और करतब दिखाना बेहद महँगा पड़ सकता है.


लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं