”दूसरी जाति के उत्पीड़ितों के साथ दलितों की एकता ही तय करेगी उनकी राजनीति का भविष्य”!


Anand Teltumbde


दलित विमर्श में आनंद तेलतुम्‍बड़े जाना-माना नाम हैं। वे गोवा इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट में डेटा अनालिटिक्‍स पढ़ाते हैं और दलित विमर्श में सक्रिय रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट के एससी/एसटी एक्‍ट पर फैसले के विषय में उन्‍होंने टाइम्‍स ऑफ इंडिया की सुगंधा इंदुलकर से की गई बातचीत में कुछ ज़रूरी बातें कही हैं। मीडियाविजिल मुद्दे की अहमियत के मद्देनज़र इस साक्षात्‍कार का हिंदी संस्‍करण अपने पाठकों को उपलब्‍ध करवा रहा है – संपादक 


सुपीम कोर्ट ने कहा है कि जो लोग आंदोलन कर रहे थे उन्‍होंने फैसले को ठीक से पढ़ा नहीं है और प्रच्‍छन्‍न हितों के चलते वे भ्रमित हो गए। इस पर आपकी क्‍या राय है।

यह बात पूरी तरह भ्रामक है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला बॉम्‍बे हाइ कोर्ट से अग्रिम ज़मानत हासिल कर चुके एक ऊंचे अधिकारी की साधारण सी अपील की प्रतिक्रिया था जिसमें मुकदमे को खत्‍म करने को कहा गया था। यदि सुप्रीम कोर्ट को उपयुक्‍त लगता है तो वह बेशक मुकदमा खत्‍म कर सकती है लेकिन यहां दलितों के द्वारा कानून के सामान्‍य तौर पर दुरुपयोग और अपराधियों के खिलाफ लाठी उठा लेने की बात कहां से आ गई। यह तो पूरी तरह अनावश्‍यक बात थी।

फैसले में अनुच्‍छेद 14 और 21 का हवाला दिया गया था लेकिन कमजोर तबकों के पक्ष में बनाया गया पूरा कानून ही दरअसल इन अनुच्‍छेदों का संवैधानिक अपवाद है। संविधान की ऐसी सपाट व्‍याख्‍या चौंकाने वाली है। इसके जवाब में दलितो की प्रतिक्रिया किसी के ‘प्रच्‍छन्‍न हितों’ द्वारा निर्मित नहीं हैं, न ही गलत समझ है बल्कि पूरी तरह जायज़ है।

दलितों के आक्रोश को किन कारकों ने भड़का दिया है?

दलितों का जो गुस्‍सा 2 अप्रैल की हड़ताल में दिखा है वह जमा हुआ गुस्‍सा है। मौजूदा सरकार ने बीते चार साल में जो किया है, यह उसका परिणाम है। दलितों ने अपने नेताओं के बहकाने पर पिछले चुनाव में भारी संख्‍या में भाजपा को वोट दिया था। प्रधानमंत्री मोदी को लगा कि बाबासाहब आंबेडकर के प्रति अपनी भक्ति दिखाकर वे दलितों को बेवकूफ़ बना देंगे। हां, दलितों को यह सब समने में बेशक थोड़ा वक्‍त तो लग ही गया।

आइआइटी मद्रास में आंबेडकर पेरियर स्‍टडी सर्कल पर प्रतिबंध, रोहित वेमुला का अध्‍याय, दलितों के लिए बजटीय प्रावधानों में लगातार की जा रही कमी, विश्‍वविद्यालयों में आरक्षण पर रोक, गाय के नाम पर हुआ खेल जिसने गरीब दलितों की पोषण सुरक्षा को खतरे में डाल दिया और गौ-गुंडो का शिकार बना दिया, उत्‍पीड़न की घटनाओं में आया उछाल जो 2013 में 39000 से बढ़कर 2014 में 47000 पर पहुंच गया। मंत्रियों के लगातार आए गंदे बयान और भीम सेना के चंद्रशेखर आजाद जैसे युवा नेताओं के खिलफ लगातार की जा रही नाइंसाफी- ये सब दर्ज हुए बगैर नहीं रह सका।

गुस्‍से का मतलब हिंसा नहीं है। दलित बिना उकसाए गुस्‍सा नहीं होते। यह तथ्‍य अपने आप में किसी गंदी साजिश की ओर इशारा करता है कि सारी हिंसा केवल भाजपा शासित राज्‍यों में हुई है। तरीका यह था कि पहले उन्‍हें हिंसा के लिए उकसाओ और फिर गोली मार दो ताकि वे दोबारा ऐसा करने की हिम्‍मत न करने पाएं। दस लोग मारे गए जबकि केवल दलितों की ओर से हिंसा को सामने रखा जा रहा है।

समकालीन दलित राजनीति किधर जा रही है?

स्‍वतंत्र दलित राजनीति की तो जड़ पर ही हमला कर दिया गया। नतीजतन दलित राजनीति दलितों के मुद्दों से हमेशा जुदा रही। अब हालांकि दलित युवा अतीत की गलतियों से सबक लेकर आगे आ रहे हैं। वे अपने विचारों को ताकत के साथ रख रहे हैं। उनमें यह अहसास पैदा हो रहा है कि जाति की राजनीति और आरक्षण ने उन्‍हें कहीं का नहीं छोड़ा। इससे उनमें और फूट ही पड़ रही है। दलित जब तक दूसरी जातियों के उत्‍पीडि़त लोगों के साथ संवाद का पुल नहीं बनाएंगे और वो भी ‘जाति’ जैसा ज़हरीला शब्‍द इस्‍तेमाल किए बगैर, तब तक दलित राजनीति का कोई भविष्‍य नहीं है।

क्‍या आप इस बात से सहमत हैं कि ठीकठाक पढ़े-लिखे दलित बाकी दलितों से कटे हुए हैं?

ये तो होना ही था। पिछले सात दशक के दौरान आरक्षण आदि के चलते दलितों के बीच से एक ऐसा वर्ग उभर आया है जिसकी दलित आबादी के साथ नाभिनाल काफी पहले ही काट दी गई। उनका व्‍यवहार त्रिशंकु है। जातिगत अवरोधों के चलते वे न तो अपने वर्ग के साथ पूरी तरह घुलमिल पाते हैं और न ही दलित कामगार आबादी के अंग के तौर पर ही पहचाने जाते हैं।

इसके बीच शुरुआत से दलित आंदोलन में ही रहे। बाबासाहब आंबेडकर को अपने जीवन के आखिरी चरण में महसूस हुआ कि उन्‍होंने जो कुछ भी किया था उसका लाभ केवल शिक्षित व शहरी दलितों के एक तबके को मिला और वे अधिसंख्‍य दलित आबादी के लिए कुछ नहीं कर पाए। उन्‍होंने अपने अनुयाययियों के सामने यह बात रखी थी और उन्‍हें भूमि संघर्ष चलाने को कहा था। उन्‍हीं की प्रेरणा से तीन गौरवमय भूमि संघर्ष पैदा हुए, पहला 1953 में और उसके बाद 1959 और 1964-65 में।

भारतीय राजनीति के व्‍यापक परिप्रेक्ष्‍य में आप दलित राजनीति को कहां अवस्थित करना चाहेंगे?

कुल मिलाकर मामला दलित हितों की दलाली करते हुए मुख्‍यधारा के राजनेताओं से कुछ हासिल कर लेने का है। दलित नेता आंबेडकर की रट लगाए रहते हैं और दलित आबादी को अधर में लटकाए रहते हैं।

क्‍या भाजपा दलित विरोधी है?

बेशक वह दलित विरोधी ही है। इनका विचारधारात्‍मक अतीत भारत के बीते कल में गर्व महसूस करने का रहा है जो स्‍पष्‍ट रूप से इन्‍हें दलित विरोधी बनाता है। वो तो अपनी राजनीतिक आवश्‍यकताओं के चलते अपने दलित विरोधी मंसूबे को पूरी तरह से अभिव्‍यक्‍त नहीं कर पाते, लेकिन इनकी हरकतों ने इसे पर्याप्‍त साबित कर दिया है।

मामले के समाधान के लिए क्‍या किया जाना चाहिए?

आम लोगों को इज्‍जत की जिंदगी जीने के लिए क्‍या चाहिए? गुणवत्‍तापूर्ण शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य सुविधा, आजीविका की सुरक्षा और बंधुत्‍व का सामाजिक वातावरण। अपनी वर्गीय और जातिगत सत्‍ता को मज़बूत करने के लिए नेता जाति, धर्म इत्‍यादि के नाम पर जनता को जनता के खिलाफ ही खड़ा करते आ रहे हैं। अगर भारत का कोई भविष्‍य होना है ते इस किस्‍म की राजनीति पर विराम लगना चाहिए।


साभार टाइम्स ऑफ़ इंडिया ब्लॉग