नेहरू ने संविधान बदलकर ‘ज़मींदारों की अदालत’ को मात दी थी, SC/ST एक्ट पर क्या होगा ?



पंकज श्रीवास्तव

 

26 जनवरी 1950 को समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का झंडा बुलंद करने वाला भारत का संविधान लागू हुआ। आधुनिक न्यायबोध पर आधारित एक नए भारत का सपना गढ़ने की चुनौती सामने थी। नेहरू सरकार ने सबसे बड़ा क्रांतिकारी कदम उठाते हुए ज़मींदारी उन्मलून अधिनयम पारित किया।

लेकिन ‘संपत्ति के अधिकार’ को मौलिक अधिकार होने के तर्क से ज़मींदारों को अदालतों से राहत मिलने लगी। यही नहीं, ‘समता का अधिकार’ के हवाले से आरक्षण जैसे संवैधानिक प्रावधान को भी निरस्त किए जाने का ख़तरा सामने था।

ख़तरा भाँपते हुए संविधान में पहला संशोधन किया गया और ज़मींदारी उन्मूलन को वैधानिकता प्रदान की गई। यही नहीं संविधान में नौवीं अनुसूची जोड़ी गई जिसमें दर्ज क़ानूनों का परीक्षण न्यायालय में संभव नहीं रहा। सामाजिक तथा शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े लोगों के संबंध में विशेष क़ानून बनाने का अधिकार राज्य को दिया गया ताकि ‘समानता’ के नाम पर इसे अदालत में चुनौती नहीं दिया जा सके।

इस संविधान (प्रथम संशोधन) एक्ट,1951 का प्रारूप प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 10 मई 1951 को संसद में पेश किया जिसे 18 जन 1951 को पारित कर दिया गया। यानी संविधान पारित होने के छह महीने के अंदर ही सरकार को पहला संशोधन करना पड़ा। यह तत्परता नेहरू की सतर्कता का भी सबूत है जो अच्छी तरह जानते थे कि न्यायपालिका का भी अपना एक ‘वर्गचरित्र’ होता है, इसलिए सबकुछ उसके ‘विवेक’ पर छोड़ना ख़तरनाक हो सकता है। जनता की भावनाओं की अभिव्यक्ति, संसद में होती है और गणतंत्र में वही सर्वोच्च है।

एस.सी/एस.टी एक्ट के दुरुपयोग को लेकर सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा दिशा निर्देश को देखते हुए इस  ऐतिहासिक प्रसंग की याद करना बेहद ज़रूरी है। ऐसे समय जब अख़बार दलितों के उत्पीड़न की घटनाओं से भरे हैं। हैदराबाद, ऊना से लेकर सहारनपुर तक दलितों के साथ हुए अत्याचार की आग सुलग रही है, सर्वोच्च न्यायालय ने एस.सी.एस.टी एक्ट के ‘दुरुपयोग’ पर चिंता जताते हुए आरोपितों की तुरंत गिरफ़्तारी पर रोक लगा दी। माननीयों की मंशा पर कोई सवाल न उठाते हुए यह कहना ज़रूरी है कि यह इतिहास के चक्र को उलटने जैसा है।

भारत की हज़ारों साल पुरानी महान सभ्यता का सबसे गंदला पक्ष शूद्रों के साथ निरंतर होने वाला अमानवीय व्यवहार रहा है। चूँकि इसे धर्मग्रंथों की भी मान्यता है, इसलिए ‘जो पिंड में है, वही ब्रह्मांड में है’ जैसी तमाम दार्शनिक बातों के बावजूद, उन्हें कभी क़ानूनी संरक्षण नहीं मिल पाया। डॉ.आंबेडकर का लिखा भारत का संविधान ऐसी पहला ग्रंथ है जिसने शूद्रों को वैधानिक स्तर पर बराबरी का दर्जा दिया और उनके साथ हज़ारों साल से होते आए अन्याय की भरपाई के लिए आरक्षण जैसे संवैधानिक उपाय किए।

बहरहाल, सिर्फ़ नियम-क़ानून बना देने से समाज कहाँ बदलता है। अपनी स्थिति को भगवान की इच्छा माने बैठे शूद्रों के लिए न्याय के लिए थाना-कचहरी करना किसी विद्रोह से कम नहीं था जिसे गाँव के प्रधान से लेकर थाने के मुंशी तक ही अक़्सर क़ामयाबी के साथ दबा देते थे। उनकी आँखों में पीड़ा का समंदर था, लेकिन सबूत नहीं। सबूत जुटाने या देने की कोई कोशिश जानलेवा हो सकती थी। इस बात को समझने में चार दशक ग़ुज़र गए। आख़िरकार राजीव गाँधी सरकार ने जाते-जाते 11 सितंबर 1989 को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम 1989 पारित कर दिया।

इस क़ानून से दलितों का उत्पीड़न करने वालों में थोड़ा भय पैदा हुआ। मामले की जाँच करने वाले पुलिस अधिकारी पर भी दबाव रहता था कि वह आरोपितों को क़ानून के कठघरे में खड़ा करने की पूरी कोशिश करता नज़र आए। पहली बार दलित उत्पीड़न के मामले में गिरफ़्तारी और सज़ा का डर पैदा हुआ। इसका एक मनौवैज्ञानिक असर देखने को मिला। इससे वे लोग लगातार परेशान नज़र आए जो दलितों को पैर की जूती समझते आए थे और ऐसे क़ानूनों की वजह से सिर पर चढ़ रही थी।

न्यायमूर्ति ए.के.गोयल और न्यायमूर्ति यू.यू.ललित की पीठ का निर्देश है कि अब एस.सी/एस.टी एक्ट के तहत आरोपितों की तुरंत गिरफ़्तारी नहीं होगी। इसके लिए ज़िले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक से अनुमति लेनी होगी और अगर आरोपित सरकारी नौकर है दो उसकी नियुक्ति करने वाले अधिकारी की अनुमति ज़रूरी होगी। मुक़दमा दर्ज करने के पहले पूरी जाँच होगी और अगर मुक़दमा दर्ज हुआ तो आरोपित अग्रिम ज़मानत भी ले सकेगा।

हैरानी की बात है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय को ‘दुरुपयोग’ की विकरालता तब नज़र आ रही है जब एससी/एसटी एक्ट के तहत सज़ा पाने वालों की तादाद बेहद कम है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आँकड़े बताते हैं कि दलितों पर अत्याचार बढ़ा है। वैसे यह सवाल महत्वपूर्ण है कि दुरुपयोग तो किसी भी क़ानून का हो सकता है, तो क्या उन्हें ख़त्म कर देना चाहिए।

कहा गया है कि इस क़ानून के दुरुपयोग की वजह से समाज में जातिघृणा फैल रही है जबकि संविधान ने जति विहीन समाज की कल्पना की थी। ग़ौर से देखिए तो यह संपत्ति के अधिकार के आड़ में ज़मींदारी उन्मूलन को अवैध ठहरने जैसा ही मामला है। इस न्यायिक हस्तक्षेप का मुक़ाबला करने के लिए नेहरू जैसी ही दृष्टि और साहस की ज़रूरत है। कोई है..?

 

डॉ.पंकज श्रीवास्तव मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।