बीबीसी का प्रोपगैंडा और जॉर्ज ऑरवेल !



पिछले दिनों बीबीसी हिंदी में छप रही ख़बरों को लेकर कई तरफ़ से सवाल उठे और कुछ लेख मीडिया विजिल में भी छपे। ज़्यादातर आलोचना दोस्ताना और बीबीसी से बेहतर रहने की उम्मीद के शिल्प में ही थी। बीबीसी हिंदी के डिजिटल एडिटर राजेश प्रियदर्शी ने  11 जुलाई को अपने ब्लॉग में ऐसी तमाम आलोचनाओं का जवाब दिया है। मीडिया विजिल में अपने लेख के ज़रिए बीबीसी पर सवाल उठा चुके अरविंद दास ने इस जवाब पर सवाल खड़े किए हैं। पत्रकारों के बीच पत्रकारिता को लेकर गंभीर विचार विमर्श हो, इस उम्मीद के साथ यह लेख प्रकाशित किया जा रहा है-संपादक 

अरविंद दास

बीबीसी हिंदी में राजेश प्रियदर्शी के इस ब्लॉग में  अन्य बातों के अलावे प्रकारांतर से पिछले दिनों बीबीसी हिंदी पर जो स्टीरियोटाइप छवि गढ़ने, मनगढंत विश्लेषण करने का आरोप लगा, उसका जवाब दिया गया है. मैंने ‘बीबीसी सिरीज’ के तहत जेएनयू के प्रसंग में लिखे एक लेख-‘सतही हो चुकी है जेएनयू की भीतरी विचारधारा’ को लेकर बिंदुवार कुछ सवाल उठाए थे. असल में यह लेख एक प्रोपगैंडा के सिवाय कुछ भी नहीं है. पर मेरे सवालों का जवाब या उस लेख की चर्चा इस ब्लॉग में कहीं नहीं है. उलटा बीबीसी ने हाथी के दाँत से बनी मीनार में बैठ कर, गुरु ज्ञानी बन कर पूछा है: सबको चाहिए मनभावन समाचार, क्या करें पत्रकार?

इस ब्लॉग के मुताबिक बीबीसी के दिशा-निर्देश में हर तरह के विचारों को जगह देने की बात है. पर क्या इसमें प्रोपगैंडा भी शामिल है ? बीबीसी हिंदी को खुद से यह सवाल पूछना चाहिए.

‘भारत में अल्पसंख्यक होना कितना तकलीफ़देह है’, क्या यह अलीगढ़ में पढ़ रही एक हिंदू लड़की और बीएचयू में पढ़ रही एक मुस्लिम लड़की के विचारों से तय होगा? संभव है ऐसा ‘जनरलाइजेशन’ बीबीसी के लिए ‘मनभावन’ हो.

जब बीबीसी का संवाददाता एक लड़की का सरनेम ‘तिवारी’ से बदल कर ‘यादव’ कर देता है (एमएमयू वाले लेख में) और लोटा को सांप्रदायिक बना देता है, तब उसके लिए यह सब ‘मनभावन’ होता है. क्या बीबीसी के दिशा-निर्देश में मुसलमानों को ओबीसी के ख़िलाफ़ खड़ा करना भी शामिल है?
किसी प्रोफेसर पर मुसलमान विरोधी होने का आरोप लगाना, स्टोरी में बिना उस प्रोफेसर का पक्ष दिए (बीएचयू वाले लेख में), क्या पेशेवर पत्रकारिता है? भले उस प्रोफेसर का नाम लेख में ना लिखा गया हो, ऑन लाइन की दुनिया में लोग चटखारे लेकर उनकी चर्चा कर रहे हैं.

इस ब्लॉग के मुताबिक: किसी ज़माने में बीबीसी में काम कर चुके जाने-माने लेखक जॉर्ज ऑरवेल ने लिखा था, “पत्रकारिता उसे सामने लाना है जिसे कोई छिपाना चाहता हो, बाक़ी सब प्रचार है.”

अव्वल तो मुझे यह जानने की उत्सुकता है कि ऐसा ऑरवेल ने कहाँ और कब लिखा था? लेकिन ऑरवेल ने अपने इस्तीफा पत्र में बीबीसी को  यह जरूर लिखा था :

“पिछले कुछ समय से मुझे लग रहा था कि मैं अपना समय और सरकार का पैसा उस काम को करने में बर्बाद कर रहा हूँ जिससे कोई परिणाम सामने नहीं आ रहा. मैं मानता हूं कि मौजूदा राजनीतिक वातावरण में ब्रिटिश प्रोपगैंडा का भारत में प्रसार करना लगभग एक निराशाजनक काम (hopeless work) है. इन प्रसारणों को तनिक भी चालू रखना चाहिए या नहीं इसका निर्णय और लोगों को करना चाहिए लेकिन इस पर मैं अपना समय खर्च करना पसंद नहीं करुंगा, जबकि मैं जानता हूँ कि पत्रकारिता से खुद को जोड़ कर ऐसा काम कर सकता हूं जो कुछ ठोस प्रभाव पैदा कर सके…”

यह पत्र 1943 में ऑरवेल ने लिखा था. लगभग 75 साल बाद भी ऐसा लगता है कि बीबीसी प्रोपगैंडा ही कर रहा है, परिप्रेक्ष्य भले बदल गया हो (भूलना नहीं चाहिए कि इराक युद्ध (2003) के दौरान बीबीसी ने जिस तरह से युद्ध को कवर किया, प्रोपगैंडा में भाग लिया, उसकी काफी भर्त्सना हो चुकी है) पर बीबीसी के हिंदी पत्रकारों में यह स्वीकार करने की कूवत नहीं रही. इस्तीफा देना तो दूर की बात है!

बहरहाल, ऐसा नहीं कि मनभावन खबरों पर जोर हाल के वर्षों में (व्हाट्स एप या फेसबुक के दौर में) बढ़ा है, जैसा कि इस ब्लॉग को पढ़ने पर लगता है. पिछले दशक में मैंने अपनी पीएचडी शोध में पाया था कि हिंदी अखबारों में भूमंडलीकरण के आने के बाद किस तरह ‘ख़ुशखबर’ देने पर जोर बढ़ा है, किस तरह खबरों का विभाजन ‘अप मार्केट/डाउन मार्केट’ खबरों में किया जाने लगा है. इतना ही नहीं पाठकों की क्रय शक्ति (वर्ग) को ध्यान मे रख कर खबरों का उत्पादन किया जा रहा है. वर्ष 2007 में इसी के इर्द-गिर्द दया थुस्सु ने ‘NEWS AS ENTERTAINMENT ‘ नाम से एक किताब लिखी थी.

सवाल है कि जब बीबीसी पर बाज़ार का दबाव नहीं है तब क्यों वेबसाइट ‘मनभावन ख़बरों’ को पाठकों को परोसता है? क्यों अंग्रेजी संवाददाता की आँखों से ही हिंदी के पाठकों को ख़बर दिखाने पर जोर है? जबकि इन वर्षों में पुल के नीचे काफ़ी पानी बह चला है. अखबारों के अलावे हिंदी के कई समाचार चैनल बाज़ार में आ गए हैं, खबरों के कई वेबसाइट हैं. पर क्या बीबीसी की होड़ इन्हीं हिट बटोरू वेबसाइटों से है, जिनका काम हेडिंग में सेन्सेशनल और प्रोवोकेटिव शब्द डाल कर चल जाता है!

यदि हम बीबीसी हिंदी के वेबसाइट का ‘कंटेंट एनालिसिस’ करें तो पाते हैं कि वह हिंदी के पाठकों को अनूदित भाषा (यहाँ अंग्रेजी से हिंदी) में आधुनिकता को परोसने की कोशिश करता है, यह देशज आधुनिकता (Vernacular Modernity) कतई नहीं है. एक ‘साफ्ट पॉर्न (SOFT PORN) की पॉलिसी यहाँ भी स्पष्ट दिखती है ताकि हिट बटोरा जा सके. उदाहरण के लिए 11 जुलाई 2017 को बीबीसी के मेन पेज पर:

‘सेक्स स्लेव’ बनाई गई महिलाओं का वीडियो
सेक्स के दौरान वजाइना में ग्लिटर कैप्सूल ख़तरनाक
पत्नी के साथ सेक्स वीडियो डालता था पॉर्न साइट पर…. आदि खबरों का लिंक दिखता है.

इसी तरह बीबीसी सिरीज के तहत लिखे गए लेखों के शीर्षक भी इस बात की पुष्टि करते हैं.

बीबीसी लिखता है कि- ‘नीयत पर शक करने की हड़बड़ी ऐसी है कि लोग हेडलाइन पढ़कर फ़ैसला सुना देते हैं.’ ….बीबीसी ऑन लाइन पर फ़ैसला सुनाने का वक़्त यह भले ना हो, पर नीयत, नीति और खबरों के उत्पादन की संस्कृति पर संदेह जरूर है. पत्रकारिता की पहली शर्त (और आलोचना की भी) संदेह और सवाल उठाना ही तो है.

बीबीसी को ‘निंदक नियरे’ रखना चाहिए.

 



लेखक पेशे से पत्रकार हैं। मीडिया पर कई शोधों में संलग्‍न रहे हैं। नब्‍बे के दशक में मीडिया पर बाज़ार के प्रभाव पर इनका शोध रहा है। जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय से पढ़ाई-लिखाई। इनकी पुस्‍तक ‘हिंदी में समाचार’ काफी लोकप्रिय रही है। दो विदेशी लेखकों के साथ धर्म और मीडिया पर एक पुस्‍तक का संयुक्‍त संपादन। फिलहाल करण थापर के साथ जुड़े हैं।