अयोध्या: मायावती ने 30 सितंबर, 2010 को नज़ीर रखी थी, क्या योगी उसे दुहरा पाएंगे?



बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि विवाद पर सुप्रीम कोर्ट अगले महीने अपना फ़ैसला सुना सकता है। क्या इस फ़ैसले के आने के बाद यूपी सरकार प्रदेश की सुरक्षा को लेकर तैयार है या नहीं?

यूपी सरकार की कानून-व्यवस्था को लेकर सुप्रीम कोर्ट टिप्पणी कर चुका है कि यूपी में क़ानून-व्यवस्था ठीक नहीं है, बल्कि यहां तक कि यूपी में जंगलराज क़ायम है। यूपी में योगी आदित्यनाथ की सरकार क़ानून-व्यवस्था को लेकर फेल समझी जा रही है क्योंकि योगी सरकार बात बनाने में तो माहिर हैं परन्तु काम करने की कोशिश ही नहीं करती।

ऐसा नहीं है कि सरकार चाहे और क़ानून-व्यवस्था सही न हो। यह कोई मानने को तैयार नहीं है क्योंकि बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ का 30 सितंबर 2010 को जब फ़ैसला आया था तब प्रदेश में क़ानून-व्यवस्था का आलम यह रहा था कि हैवान तो हैवान, किसी परिंदे ने भी हिम्मत नहीं कि थी कि प्रदेश का माहौल ख़राब कर सके। लेकिन यह ऐसे ही नहीं हो गया था। उसके लिए सरकार की इच्छा थी कि प्रदेश का माहौल ख़राब नही होना चाहिए।

उस वक्त सरकार थी सुश्री मायावती की, जिसे संकीर्णता से ग्रस्त लोग ठीक नहीं मानते यह बात अलग है। याद रखना ज़रूरी है कि उस वक्त मायावती सरकार ने अपने अधिकारियों को बुलाकर निर्देश दिए थे कि कुछ भी हो, प्रदेश का माहौल ख़राब नहीं होना चाहिए। ऐसा ही हुआ भी। सब कुछ शान्ति से निपट गया। इसके लिए मायावती सरकार को आज भी याद किया जाता है।

उस दिन यूपी वालों ने पुलिस और सिस्टम की पावर को भी देखा और समझा था। राज्य के हर गांवों, नगरों और शहरों में पुलिस क्या होती है और क्या कर सकती हैं इसे बहुत ही क़रीब से महसूस किया गया था। पुलिस ने गांवों से लेकर गली−मोहल्लों में सुरक्षा समितियों का गठन किया था और ख़ासतौर पर मुसलमानों की रक्षक बनने का संकल्प लिया था जिसे उन समितियों ने बहुत ही ख़ूबसूरती से अंजाम भी दिया। इसका परिणाम यह रहा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने अयोध्या की विवादित ज़मीन पर जब अपना फ़ैसला सुनाया तो यूपी में कहीं भी किसी की हैवानियत फैलाने की हिम्मत नहीं हुई।

यह एक ऐसा सच है जिसे विपक्ष भी मानता है। कोर्ट के फ़ैसले पर न तो ढोल नगाड़ों बजाने की किसी की हिम्मत हुई और न ही ग़म करने की। 30 सितंबर 2010 को उस राज्य में ये सब हो जाना इसलिए भी बड़ी बात समझी जाती है क्योंकि विवादित मन्दिर का ताला खुलने, विवादित जन्मभूमि पर शिलान्यास होने से लेकर 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद शहीद होने पर अपने घरों की छतों पर खड़े होकर शंख बजाकर लोगों ने अपनी ख़ुशी का इज़हार किया था कि देखो हमने कितना बड़ा काम कर दिया। उसी राज्य में 30 सितंबर 2010 को कोई सड़क पर नहीं आया और एक भी अप्रिय घटना नहीं हुई। राज्य के कैबिनेट सचिव रहे शशांक शेखर सिंह जो अब इस दुनिया में नहीं हैं; मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव गृह व पुलिस महानिदेशक, एडीजी क़ानून-व्यवस्था (जिन्हें मायावती ने डीजीपी भी बनाया था जो अब मोदी की भाजपा में चले गए हैं और अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष पद पर कार्यरत हैं) के संयुक्त प्रयास से 30 सितंबर 2010 को शान्ति बहाली में सफलता हासिल की गयी।

इस एजेंडे को अमली जामा पहनाने के लिए मायावती सरकार और प्रशासन ने 700 कंपनी केन्द्रीय सुरक्षा बल मांगे थे लेकिन दिल्ली में कामनवेल्थ गेम और बिहार में विधानसभा चुनावों को लेकर केंद्र सरकार मात्र 50 कंपनी ही केन्द्रीय बल यूपी की मायावती सरकार को भेज पायी थी। मायावती सरकार ने हार नहीं मानी और अपनी पुलिस, होमगार्ड और जनता के ज़रिये सूबे में अमन शांति सुकून बनाए रखने का बीड़ा उठाया। इसके लिए प्रदेश को तीन हिस्सों में बांटा गया।

पश्चिमी प्रदेश की कमान एडीजी (क़ानून-व्यवस्था) को, मध्य की ज़िम्मेदारी राज्य के तत्कालीन डीजीपी को दी गई वहीं पूर्वी इलाक़े की ज़िम्मेदारी राज्य के प्रमुख सचिव (गृह) को सौंपी गई। पश्चिम में जो हिस्सा शामिल था उसमें मेरठ, सहारनपुर, बरेली, मुरादाबाद, अलीगढ़ एवं आगरा मंडल थे। मध्य हिस्से में छह मंडल लिए गए थे। छह ही मंडल पूर्वी हिस्से में लिए गए थे। ये तीनों अफसर मिली चुनौती को अमली जामा पहनाने के लिए आवंटित मंडलों में और ज़िलों में गए और वहां मौजूद ज़िलों और मंडलों के अफसरों को साफ़-साफ़ लफ़्ज़ों में कहा कि सरकार का आदेश है कि बाबरी मस्जिद राम जन्मभूमि पर आने वाले कोर्ट के फ़ैसले के बाद माहौल ख़राब नहीं होना चाहिए।

उन्होंने कहा था कि हर सरकारी और ग़ैर सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल करें, गाँव नगरों शहरों और मोहल्लों में जाए और लोगों को बताएं कि कोर्ट का फ़ैसला कुछ भी आए लेकिन अपने प्यार मोहब्बत और अपनी बीच के भाईचारे को न खोएं, किसी के भी साथ कोई बदसलूकी न हो, ख़ासतौर पर मुसलमानों के साथ या उनके धार्मिक स्थलों की रक्षा की जाए। प्रदेश के समस्त ज़िलों में समन्वय स्थापित करने के लिए रजिस्टर बनाए गए और उसमें जीते हारे लोगों के नंबर दर्ज किए गए जिससे उनसे सम्पर्क करने में आसानी हो। पुलिसकर्मियों से कहा गया कि अपने-अपने इलाक़ों की सुरक्षा समितियों से सम्पर्क में रहें ताकि अवाम में संदेश जाए कि कोई गड़बड़ होने पर बख़्शीश नहीं होगी।

21 और 22 सितंबर की रात को आठ से दस बजे के बीच राज्य के संवेदनशील जनपदों में हैलीकाप्टर से कमांडो उतारे गए ताकि ये संदेश जाए कि मायावती सरकार की पुलिस किसी भी समय लोगों के बीच पहुंच सकती है। पुलिस कीं अतिसंवेदनशीलता के चलते हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने फ़ैसला सुनाने की तारीख़ बदल दी। उसे 24 से 30 सितंबर कर दिया गया। हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने 30 सितंबर की शाम चार बजे अपना फ़ैसला सुनाया। जब हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में ये ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया जा रहा था तो उससे छह घंटे पहले राज्य का पुलिस और प्रशासन सड़क पर पहुंच चुका था।

फ़ैसले के वक़्त पुलिस ने गहनता से जाँच करनी शुरू कर दी। देखते ही देखते यूपी की सड़कों पर सन्नाटा पसर गया। लोग अपने घरों में दुबक गए और सुरक्षा समितियां सड़कों पर उतर आयीं। देश के कई राज्यों में ऐसा नहीं हो पाया था क्योंकि उन राज्यों में मायावती जैसा हुक्मरान नहीं था और वैसी संवेदनशीलता नहीं बरती गई थी जैसी यूपी ने बरती थी।

इस बार भी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को लेकर लोगों के मन में वैसी ही उत्सुकता है, जैसी हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के फ़ैसले को लेकर थी। इसे ध्यान में रखते हुए सरकार की ओर से कोई ख़ास तैयारी होती नहीं दिख रही है। हां, अयोध्या प्रशासन ने ज़रूर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को लेकर शहर में आपसी भाईचारा क़ायम करने के कदम उठाए हैं। वहाँ 10 दिसंबर तक धारा 144 लागू कर दी गई है। और भी बहुत फ़ैसले लिए हैं, जैसे देश और राज्यों का माहौल ख़राब करने में अहम भूमिका निभाने वाले टीवी चैनलों की सार्वजनिक स्थानों पर परिचर्चाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया है जिससे वहां शांति बहाल रखी जा सके।

इस सिलसिले में 2010 के मुक़ाबले पुलिस की मज़बूती इसलिए भी अधिक मानी जा रही है कि जो संगठन और नेता कहते थे कि यह क़ानूनी नहीं आस्था का सवाल है इस कारण अदालतें इसका फ़ैसला नहीं कर सकतीं, वे भी सर्वोच्च अदालत के फ़ैसले को मानने की बात इस बार कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर दुनिया की नज़र है। फ़ैसला के आने के बाद पूरी दुनिया हिन्दुस्तान की अवाम का रद्दे अमल ख़ामोशी से देखेगी, साथ ही अपने इतिहास में भी दर्ज करेगी कि हिन्दुस्तान मुल्क की अवाम ने फ़ैसले को किस तरह और किस तरह से स्वीकार किया। दुनिया ने यह भी देखा है कि 6 दिसंबर 1992 को कैसे सैकड़ों साल पुरानी ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद को योजनाबद्ध तरीक़े से शहीद कर दिया गया था और इसके अपराधियों को आज तक दंड नहीं दिया गया, जिसकी वजह से हिन्दुस्तान का सर शर्म से झुक गया था। साथ ही हमारे समाज में गहरी दरारें आ गईं थीं जिसकी आज तक भरपाई नहीं हो पायी है।

सरकार को 30 सितंबर 2010 जैसी तैयारी करने की ज़रूरत है ताक़ि कोई भी सियासत हमारे बीच धार्मिक आस्थाओं को भड़काकर दरार न पैदा कर पाए।


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