देश लूटकर विदेश बसने की छूट देने वाली सत्ता बोले ‘जय हिंद !’


देश के भीतर का सिस्टम या तो पूंजी पर जा टिका है या पूंजीपतियो पर, जो सत्ता को भी गढ़ते हैं और सत्ता के जरिये खुद को भी। फिर सियासत डगमगाने लगे तो देश की नागरिकता छोड़ भारतीय व्यवस्था पर ही सवाल उठाने से नहीं चुकते।




पुण्य प्रसून वाजपेयी

मेहुल चोकसी ने भारतीय नागरिकता छोड़ दी। उससे पहले जांच के लिये भारत लौटने से ये कह कर इंकार कर दिया था कि भारत में उनकी लिचिंग हो सकती है। विजय माल्या ने पहले भारतीय जेल को अमानवीय बताया और अब स्विस बैंक से कह कि ‘आप मेरे अकाउंट की जानकरी भारतीय जांच एंजेसी सीबीआई को कैसे दे सकते है जो खुद ही दागदार है। जिसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रही है।’

भारत के राष्ट्रीयकृत बैंको से जनता के पैसे को कर्ज ले कर न लौटाने वाले कारपोरेट व उद्योगपतियों की तादाद करीब 900 तक पहुंच चुकी है। और आंकडा बारह हजार करोड़ रुपये पार कर चुका है। इसी दौर में देश पर बढ़ता कर्ज 80 लाख करोड का हो चुका है और आक्सफै म की ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत के टॉपमोस्ट सिर्फ नौ लोगों की आमदान -कमाई या संपत्ति का कुल आंकडा देश के 65 करोड लोगों की आय संपत्ति या आमदनी के बराबर है। दुनिया में भारत को लेकर तमाम चकाचौंध बिखराने के बावजूद दुनिया भर से भारत के बाजार में डॉलर झोंकने वाले बढ़ क्यो नहीं रहे हैं, ये सवाल अब भी अनसुलझा सा है। 2017 में भारत में 40 बिलियन डालर का निवेश हुआ तो 2018 में 43 बिलियन डॉलर का। जबकि ब्राजील सरीखे देश में 59 बिलियन डालर का विदेशी निवेश 2018 में हो गया जहाँ की सत्ता ने दुनिया घूमने पर सबसे कम खर्च किया। और चीन में 142 बिलियन डालर का निवेश 2018 में हो गया!

तो भारत की दौड किस देश से हो सकती है, ये सोचने -समझने स पहले इस हकीकत को भी जान लें कि यूपी में निवेश को लेकर जब योगी-मोदी ने बाइब्रेंट गुजरात की तर्ज पर सम्मेलन किया तो निवेश का भरोसा देने वाले एक विदेशी कॉरपोरेट ने पिछले दिनों अध्ययन कर पाया कि कृषि अर्थव्यवस्था पर टिके यूपी में किसानो को अब गाय से अपनी फसल बचाने के खेतों में बाड बनाने के लिए जूझना पड़ रहा है। और बाड़ लगाने क लिये किसानों के पास पैसे नहीं हैं और राज्य सरकार गायों की बढती तादाद के लिये गौ-चारण की जमीन की व्यवस्था तो दूर कोई व्यवस्था करने में सक्षम नहीं हैं। दिल्ली की एक संस्था से मदद लेकर भारत के मेडिकल क्षेत्र में निवेश की योजना बनाने वाली विदेशी कंपनी ने पाया कि भारत में प्राइवेट अस्पताल खोलना सबसे फायदे का धंधा है। और सरकारी अस्पताल में न्यूनतम जरुरतें तो दूर, 70 फीसदी बीमार और ज्यादा बीमारी लेकर अस्पताल से लौटते हैं। यानी अस्पताल साफ सुथरे रहें, सिर्फ ये काबिलियत ही प्राइवेट अस्पताल को लायक होने का तमगा दे देती है!

भारत का अनूठा सच शिक्षा से भी जुड़ा है जहां स्कूल जाने वाले 50 फीसदी से ज्यादा बच्चे जोड़-घटाव तक नहीं कर सकते। अंग्रेजी तो दूर की गोटी है, हिन्दी भी पढ़ नहीं पाते। यानी सामने वाला जो बोल रहा है उसे सुन कर जो सही गलत समझ में आये उसे ही सच मान कर देश की आधी आबादी जिन्दगी जी रही है। और इस जिन्दगी को चलाने वाले नेताओं की कतार सिर्फ बोलती है क्योंकि बोल कर वोट पाने का लाइसेंस उन्ही के पास है और लोकतंत्र का तकाजा यही कहता है कि जो खूब शानदार बोल सकता है वहीं देश की सत्ता को संभाल सकता है। यानी सारे सवाल उस दायरे में आकर सिमट जाते हैं जहाँ 2014 में ’10 जनपथ तक जीरो-जीरो’ लगाते हुये करोड़ों के घोटाले-घपले का आरोप नेहरु गांधी परिवार पर नरेन्द्र मोदी लगाकर सत्ता पाते हैं और 2019 में नरेन्द्र मोदी को ‘चौकीदार चोर है’ कि उपमा दे कर राहुल गांधी अब परिपक्व नजर आने लगते हैं, क्योकि उनकी अगुवाई में कांग्रेस कई राज्यो में लौट आती है। 

तो सवाल कई हैं। मसलन, क्या भारत को ‘बनाना रिपब्लिक’ बनाकर सत्ता पाना ही लोकतंत्र हो चुका है। क्या भारतीय ही भारत को लूट कर गणतंत्र होने का तमगा सीने से लगाये हुये हैं? क्या भारतीय राष्ट्रवाद या राष्ट्रीयता का मोल भाव सत्ता बनाने या बिगाड़ने में जा सिमटा है ? क्या संविधान को भी सत्ता का औजार बनाकर सत्ताधारी देश से खेलने में हिचक नहीं रहे हैं? क्या देश में खुली लूट कर देश छोड़कर भागना बेहद आसान है क्योंकि सत्ता पाने की तिकड़म [ चुनाव के तौर तरीके ] ही एक ऐसी पूंजी पर जा टिकी है जो इमानदारी से बटोरी नहीं जा सकती और बेईमानी किये बगैर लौटायी नहीं जा सकती! क्या दुनिया में भारत इसलिये आकर्षण का केन्द्र है क्योंकि भारतीय बाजार से कमाई सबसे ज्यादा है? या फिर जिस तरह दो जून की रोटी तले आस्था के समंदर में देश के 80 करोड़ लोग गोते लगाते हैं, उसमें दुनिया की कोई भी फिलास्फी फेल होने के बाद भारत आकर आंनद ले सकती है? या फिर भारत धीरे धीरे खुद को उस पुरातन अवस्था में ले जा रहा है जहाँ विकसित या विकासशील होने-कहलाने का मार्ग नहीं जाता बल्कि अतीत के गौरवमयी हालात को धर्म की चादर में लपेट कर सत्ता सुला देना चाहती ह!

यानी मिज़ाज लेकतंत्र का हो या परिभाषा आज़ादी की गढ़ी जाये, या फिर आस्था के आसरे राष्ट्रवाद और देशभक्ति के नारे लगाये जायें, भारत कैसे सत्ता की लूट और विज्ञान के आसरे विकसित होने की तरफ ध्यान ही न दें, इसके उपाय भी लगातार खोजे जा रहे हैं। क्योंकि शिक्षा-प्रोफेशनल्स-रोजगार को लेकर दुनिया में फैले विदेशियो की तादाद में भारत का नंबर चीन- जापान के बाद आता है। चीनी और जापानी देश लौटते हैं। नागरिकता छोड़ते नहीं। अपने देश के लिये काम करते हैं। पर दुनिया में फैले भारतीयों की तादाद लगातार बढ रही है और ये तादाद न लौटने के लिये बढ़ रही है। तो क्या लोकतंत्र के नाम पर भारत खुद को ही नये तरीके से गढ़ रहा है जहाँ गांव से रास्ता छोटे शहर, छोटे शहर से बडे शहर, बडे शहर से महानगर, और महानगर से देश छोड़ कर जाने का रास्ता ही भारत की पहचान हो चुकी है। और जो राजनीतिक सत्ता देश को चलाने के लिये बैचेन रहती है वह भी अब विदेशी जमीन पर अपने होने का राग गा रही है क्योंकि देश के भीतर का सिस्टम या तो पूंजी पर जा टिका है या पूंजीपतियो पर, जो सत्ता को भी गढ़ते हैं और सत्ता के जरिये खुद को भी। फिर सियासत डगमगाने लगे तो देश की नागरिकता छोड़ भारतीय व्यवस्था पर ही सवाल उठाने से नहीं चुकते। और सत्ता कहती है जय हिन्द !

लेखक मशहूर टीवी पत्रकार हैं।

(तस्वीर में नवभारत टाइम्स की खबर साभार)