मणिबेली: गुजरात के विकास मॉडल को 26 साल पहले ललकारने वाला मतदाता सूची का पहला गांव

मेधा पाटकर
ख़बर Published On :


नर्मदा किनारे बसा हुआ महाराष्ट्र का मणिबेली गांव राज्‍य की मतदाता सूची में पहला गांव है। मणिबेली का वलसंग बिज्या वसावे, दामजा गोमता का पोता, इस लोकसभा चुनाव की सूची में राज्‍य का पहला मतदाता। इस हकीकत को जानने कुछ पत्रकार वहां पहुंचे थे। कुछ मराठी, गुजराती और अंग्रेजी में लिखी खबरों को पढकर लगा, हमारे सभी देशवासियों तक मणिबेली की पहचान और यादगार का पहुंचना जरूरी है, वह भी तत्काल।

मणिबेली– गुजरात की सीमा पर बसा हुआ महाराष्ट्र का एक गांव! मणिबेली का विस्तार पांच फलियों का, करीब 1000 हेक्टेयर में है। तड़वी और वसावा, दो आदिवासी जमात के करीब 100 परिवार यहां रहते हैं और जंगल, जमीन, नर्मदा और नाले या उपनदियों का पानी तथा मछली पर पीढि़यां जीती रही हैं। मणिबेली में एकेक पहाड़ और फलियों में बचाया जंगल इस बात का गवाह था कि वहां के आदिवासी न बिना कारण जंगल काटते थे, न बेचते थे। उतार वाली खेती के साथ नदी किनारे की प्याज, लहसुन, राई, मकाई, सब्जियां तक पकाने वाली जमीन उन्हें साल भर खिलाती थी, तो उन्हें कहीं मजदूर बनने गांव छोड़कर जाना नहीं पड़ता था। उन्होंने अपनी जरूरत पूर्ति गांव के संसाधनों से करते हुए, बाजार से करीब पूरी दूरी बना के रखी थी।

पेड़ की लकड़ी से बनी अपनी छोटी सी एक नाव में बैठकर, नदी पार होकर, फिर कुछ किलोमीटर चलकर गुजरात के किसी बाजार में पहुंचना या फिर गांव के पीछे कट्टर समर्थक जैसा खड़ा पर्वत चढ़-उतर कर, दो राज्यों के बीच की देवनदी पार करते हुए सात-आठ घंटे चलकर महाराष्ट्र के मोलगी गांव के बाजार में पहुंचना असंभव नहीं था, लेकिन आसान भी नहीं। अपने आप में स्वयंपूर्ण या कम से कम स्वयं निर्भर था मणिबेली गांव। न बिजली, न सिंचाई; एक दुकान के अलावा व्यापार की कोई निशानी नहीं। आदिवासियों का यह गांव ‘ग्राम स्वराज्य’ का स्‍वाभाविक प्रतीक था।

वैसे महाराष्ट्र के सतपुड़ा की कोख में बसे कई सारे आदिवासी गांव, खासकर नर्मदा किनारे के गांव, मणिबेली जैसे ही थे। मणिबेली फिर भी कुछ अलग था अन्य गांवों से। यहां का दामजा गोमता पूरे जंगल की जड़ीबूटी जानने, छानने और हर बीमार व्यक्ति को देने वाला वैदू था। भील आदिवासियों की देवेदानी में गांवदेव, वाघदेव जैसा प्रकृति से जुडाव था| दामजा गोमता गांव का पुजारी भी था|

सरदार सरोवर बांध स्थल से निकलकर नर्मदा के दक्षिण किनारे, गुजरात के तीन गांव पार करके, चार किलोमीटर पैदल चलकर हम मणिबेली पहुंचते थे। अकेले चलते, कभी संघर्ष गीत मनभर उभरता तो कभी रणनीति। मणिबेली का नाम जगप्रसिद्ध हुआ सरदार सरोवर को चुनौती देने वाले संघर्ष से! मणिबेली गांव सहित उस वक्त के धुले जिले के नौ गांवों में जा जाकर गांवस्तरीय समिति और फिर तहसील स्तर की समिति गठित होने के बाद,  धुले में कभी तो मुंबई में एकाध बार, महाराष्ट्र के सरदार सरोवर प्रभावित 33 गांवों के 33 प्रतिनिधियों का समूह मुख्यमंत्री या मुख्य सचिव के समक्ष दो या तीन घंटों तक एक-एक सवाल उठाता, बहस करता था। बांध स्थल के पास परियोजना की केवडिया कालोनी में, केन्द्र और चार बांध प्रभावित व लाभार्थी राज्यों के उच्च अधिकारियों के साथ चर्चा चली थी मई 1988 में छह घंटों तक! उसमें गुजरात के वाहिनी संगठन के कार्यकर्ता भी शामिल हुए थे और घाटी के कुल 300 प्रतिनिधि|

चर्चा के बाद देर रात हम केन्द्र के समाज कल्याण सचिव एस.एस. वर्मा जी को सर्किट हाउस में मिले तो उन्होंने साफ कहा, ‘‘इन राज्यों के पास तो पुनर्वास का नक्शा तक तैयार नहीं है। कहां है जमीन? प्लान ही नहीं, तो बांध कैसे?’’ हमने उनके हाथ पत्र रखकर चेतावनी दी कि हमारे सभी सवालों के जवाब और पुनर्वास की पूरी योजना सामने नहीं रखी तो दो महीने बाद हम सरदार सरोवर बांध का विरोध करेंगे। मणिबेली की ओर से महिलाएं भी शामिल रहती थी, और गुजराती व भिलारी दोनों भाषाओं में सवालों की तीक्ष्णता, संगठन की प्रक्रिया, बैठकें, प्रबोधन चलती बढती जाती थी। 18 अगस्त 1988 में कुल छह शहरों में, तीनो राज्यों में रैली निकालकर हमने सरदार सरोवर का विरोध जाहिर किया|

मणिबेली से ही शुरूआत हुई जल सत्याग्रह की। सरकार बांध बनाती गई और डूब चढ़ती गई। जब अंदाजा आया कि 1990 के मानसून में अब मणिबेली की खेती ही क्या, घर भी डूब सकते हैं तो अप्रैल में हम निकल पडे। खबर आयी कि मणिबेली का रायण का पेड छांट दिया पुलिस ने। जिसके नीचे बैठक करते, रायण के पीले, मीठे फल उठा उठाकर खाते थे हम, हमारे अतिथि भी, उस पर प्यार करने वाले हम हादसा खा गये। इतने में पुलिसों से केसुभाई का मकान घेरा जाने और उनकी बेटी कुंता ने पुलिसों को घंटों तक रोकने की खबर आयी। केसुभाई का तोड़ा गया घर बाद में तो शासन से फिर से बंधवा लिया हमने, लेकिन उस वक्त हम देवरामभाई के साथ उपवास पर उतरे।

मणिबेली की 1993 की पहली बड़ी डूब और उसका लोगों द्वारा किया गया सामना उस गांव की अपूर्व ताकत का प्रददर्शन था। 22 दिन की नन्ही बच्ची को लेकर हिरूबेन, सरपंच रहे नारायण भाई की पत्नी और सभी घर घर के परिवारजन, घर, मवेशी डूबते हुए और पानी चढते हुए भी बैठे रहे। मणिलाल काका-जडीबेन की भैसें डूब गईं। पूरा तड़वी पाड़ा डूबा तो 13 परिवारों के बूढे, बच्चे, बहनें सभी बेघर हो गये। इस स्थिति में सभी तड़वी परिवारों को सहारा दिया भील-वसावा परिवारों ने।

मणिबेली में 1991-92 में  विश्वबैंक से नियुक्त अंतरराष्ट्रीय स्तर की मोर्स समिति का पधारना एक विशेष घटना थी। यूएनडीपी जैसी वैश्विक संस्था के उपाध्यक्ष रहे ब्रॅडफोर्ड मोर्स इसके अध्यक्ष थे तो कनाडा के न्यायाधीश थॉमस बर्जर उपाध्यक्ष। हम लोग करीब दस किलोमीटर चलकर नदी किनारे पहुंचे थे। बोट मोर्स समिति की रिपोर्ट (1993) दुनिया के विकास मॉडल और गुजरात के विकास मॉडल पर कड़ी समीक्षा थी और विश्व बैंक पर भी एक सटीक टिप्पणी थी। बड़े बांधों की इसमें पोलखोल भी की गई थी। इसके बाद ही विश्वबैंक ने सरदार सरोवर को एक प्रकार से विनाशकारी घोषित करते हुए अपनी आर्थिक सहायता आधे पर रोक दी।

1998 में विश्व बैंक के 50 साल पूरा होने के मौके पर उनकी साहूकारी से देश-देश में हुई घुसपैठ, विस्थापन, विनाश, कानून-नीति में बदलाव आदि मुद्दों को लेकर एक चेतावनी कार्यक्रम हुआ मैड्रिड, स्पेन में| दुनिया के 2000 संगठनों ने मिलकर जो संकल्प पत्र जारी किया उसका नाम था मणिबेली डिक्लेरेशन!

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महाराष्ट्र के पहले मतदाता वलसंग बिज्या के परिवार का सबसे बुजुर्ग यानी आदिवासी भाषा में ‘डाया’ है दामजा गोमता वसावे। पूरे बाल चांदी जैसे चमकते हुए दामजाभाई शांति से पेश आने वालों में से एक थे। फिर भी मीटिंग में उनका प्रभाव था जरूर। उनकी बडवा या वैदू की भूमिका भी थी इसका आधार। बिज्या दामजा उनका बड़ा बेटा, वह भी बुढापे की तरफ झुका हुआ। बिज्याभाई की पत्नी खात्री बाई सतत संघर्ष के लिए तैयार। गुजरात के नसवाडी में हमने निकाली थी आदिवासी महिला रैली| उसी में पत्थर फेंक होकर खात्री बाई बेसुध हुई थी। फिर भी बिज्या का परिवार और वलसंग ने भी आन्दोलन पर कभी कोई सवाल नही उठाया।

छोटा भाई नरपत जीवनशाला से निकला और वलसंग खेती, मछली दोनों में लगा रहा है आज तक। बिज्याभाई यानी पिता की पात्रता पर 5 एकड़ जमीन मिली लेकिन वलसंग को अभी भी 31.2 एकड़ आवंटित हुई तो डेढ़ एकड़ देना अभी भी बाकी है। नरपत तो आज शादीशुदा होकर भी  कम उम्र के कारण से अघोषित है और रहेगा| उसे बचे हुए गांव में डटकर खेती, मछली, जंगल पर जीना होगा।


यह लेख मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर के लिखे एक लंबे लेख का संपादित रूप है जो जनांदोलनों के राष्‍ट्रीय समन्‍वय (NAPM) की ओर से ऑनलाइन प्रसारित किया गया है


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