कांशीराम जयंती पर विशेष: तीसरी आज़ादी का परम दीवाना बहुजन कब मुस्काएगा?

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अनिल कुमार यादव

तीसरी आज़ादी का परम दीवाना, बहुजन कब मुस्काएगा.
यह तो खुद आजाद नही ,यह क्या गाना गाएगा.
यह भीम, कांशीराम का सपना, भारत में न जाने कब आएगा.
तब तक समता की हरियाली का वृक्ष ही सूख जाएगा.
तहस नहस होके समता मानवता का दीप ही बुझ जाएगा. 
तीसरी आज़ादी का परम दीवाना, बहुजन कब मुस्काएगा.

 

(गीत के लिए ‘कांशीराम गर्जना’ पुस्तिका के लेखक को आभार) 


यह गीत बसपा की रैलियों में खूब गाया जाता था. टैक्टर-ट्रालियों, पैदल महिलाओं के हुजूम इस जैसे गीतों को गाते गांवों–कस्बों से निकल कर जब बसपा की जनसभाओं में जाते थे तो उच्च जातियों के लोग ताने कसते हुए कहते थे- क्यों? कल मजदूरी करने नहीं आना है क्या? सिर्फ इतना ही नहीं, बसपा और कांशीराम को लेकर वर्चस्वशाली पिछड़ी जातियों का रवैया भी बहुत ठीक नहीं था. मुझे याद है कि मेरे बचपन के एक दोस्त को और उसके चचेरे भाई को गाँव में लोग मुलायम और कांशीराम बुलाते थे क्योंकि उनका जन्म उस समय हुआ था जब कांशीराम और मुलायम एक दूसरे के करीब आ रहे थे. एक यादव परिवार में यह नामकरण कैसे हुआ होगा? यह एक महत्वपूर्ण सवाल है.

जैसे-जैसे मेरे दोस्त बड़े हुए वैसे–वैसे उनके इस बुलाये जानेवाले नाम के साथ अलग-अलग घटनाएं हुईं. मेरे दोस्त को आज भी घर पर लोग मुलायम ही बुलाते हैं लेकिन उसके चचेरे भाई को कोई कांशीराम नहीं बुलाता है क्योंकि वे इस नाम से भड़क कर मार-पीट और गाली गलौज करने लगते थे. वस्तुतः गलती उनकी नहीं बल्कि नामकरण के समय ही उनके साथ भेदभाव कर दिया गया था. वैसे कहने को तो भारत में रंगभेद नहीं है पर समाज में श्यामवर्ण को निचली जातियों से जोड़कर देखा जाता है. इसीलिए उनको कांशीराम और गोरे रंग के बच्चे का नाम मुलायम बुलाया जाता था. मेरे दोस्त के चचेरे भाई को इसी से दिक्कत है कि उनका बुलाने का  नाम निचली जाति से जुड़ा है.

आज कांशीराम की जयंती पर ज़रूरी है कि हम बहुजन के कांसेप्ट पर कुछ चर्चा करें. यह इसलिए और भी ज्यादा ज़रूरी है कि उत्तर प्रदेश में गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा के परिणामों के बाद फिर से अकादमिक जगत से लेकर सोशल मीडिया में बहुजन एकता का विमर्श तेज हुआ है. बहस होना मुनासिब हो गया है कि बहुजन पहचान की राजनीति की दिशा और दशा क्या है? सामूहिक पहचानें अक्सर नकारात्मक रूप से परिभाषित की जाती हैं. यानि दूसरों के खिलाफ. ‘हम ‘ खुद को ‘आपसी’ इसलिए समझते हैं क्योंकि हम ‘उनसे’ अलग हैं। इसी की बुनियाद पर पहचान की राजनीति की इमारत खड़ी होती है।

मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम

15 मार्च 1934 को पंजाब के रोपड़ जिले के खबासपुर ग्राम में केशधारी रामदासी (चमार जाति से सिख धर्म में आये लोग रामदासी कहलाते हैं) सिख परिवार में जन्मे कांशीराम न सिर्फ भारतीय राजनीति में दलितों को उनका हक दिलाया बल्कि यह साबित किया कि भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद पड़ना बीसवीं सदी की महानतम परिघटना है. जिस समाज में दलितों को इन्सान होने का दर्जा तक नहीं था, उस देश में कांशीराम ने एक दलित वह भी महिला को सबसे बड़े सूबे का मुख्यमंत्री बनाया. यह सफरनामा आसान नहीं रहा होगा पर कांशीराम की जीवटता के आगे सब असफल साबित हुआ.

अक्सर कांशीराम कहा करते थे- यदि तमन्ना सच्ची है तो तो रास्ते सैकड़ों हैं, यदि झूठी है तो बहाने हजारों हैं. कांशीराम ने 1984 में बहुजन समाज पार्टी बनायी, इसके पहले उन्होंने तीन और संगठन बनाये थे– बामसेफ, डीएस4 और बीआरसी. कांशीराम ने 1978 में बामसेफ बनाया हालाँकि संगठन बनाने का संकल्प 6 दिसम्बर 1973 को पूना में लिया गया था जिसको 6 दिसम्बर 1978 को दिल्ली में औपचारिक रूप दिया गया. यह गैर-आन्दोलनकारी कामगारों का एक संगठन था. बामसेफ बनाने के पीछे मूल उद्देश्य था कि इन वर्गों के सुविधासम्पन्न शिक्षित कर्मचारी अपने दलित शोषित समाज के पीड़ितों के लिए कार्य करें. यह उनका सामाजिक दायित्व है.

दूसरा संगठन कांशीराम ने 1981 में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति नाम से बनाया गया जिसे डीएस-4 के नाम से जाना गया. इस संगठन का नारा था– शक्ति संघर्ष से पैदा होती है. यह प्रारंभ में आंदोलनात्मक संगठन था जिसका पहला कार्यक्रम पूरे देश में एक साथ शुरू हुआ. दक्षिण के कन्याकुमारी, उत्तर के करगिल, पश्चिम में पोरबंदर, पूर्वोत्तर के कोहिमा समेत देश में कई जगह से 100 दिन ‘समता और सम्मान’ के नारे के साथ यात्रा निकली. इस यात्रा में तीन लाख लोगों ने भाग लिया. यह संगठन शुरू से ही एक गैर-राजनीतिक संगठन था परन्तु इसने शुरू से चुनाव लड़ना शुरू कर दिया. तीसरे संगठन के रूप में समाज के बदलावों और सुधार के लिए कांशीराम ने बुध्दिस्ट रिसर्च सेंटर की स्थापना की.

कांशीराम का मानना था कि भारत में कोई भी वाद सफल नही हो सकता है- न तो पूंजीवाद, न उदारवाद, न समाजवाद, न साम्यवाद- जब तक यहाँ ब्राह्मणवाद है क्योंकि वर्षों पूर्व जिन्होंने इन वादों को जन्म दिया है उन्होंने जातीय परम्परा पर ध्यान नही दिया. सारे वाद भारत के लिए विदेशी हैं. केवल ब्राह्मणवाद जन्मजात भारतीय है. इसलिए हमको भारतीय परिस्थिति के अनुकूल एक वाद बनाना होगा. कांशीराम ने सामाजिक और जातीय स्रोतों के बारे में अम्बेडकर की वैचारिक और मानवशास्त्रीय स्थापनाओं को दरकिनार करते हुए ज्योतिबा फुले के आर्य बनाम अनार्य के आधार पर बहुजन (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ी जाति और धार्मिक अल्पसंख्यक) के कांसेप्ट पर गोलबंदी की बात की. यह गोलबंदी आर्थिक शोषण के बजाय आत्मसम्मान और आइडेंटिटी के सवाल पर ही संभव हो पायी थी.

कांशीराम की नज़र में ‘हम’ (बहुजन) 85 फीसदी हैं और सवर्ण 15 फीसदी. यहाँ दो अहम सवाल हैं- पहला कि दलित और पिछडी जातियों में उभर रही नई संवृत्ति को परखने की ज़रूरत है कि जमीनी स्तर पर ‘हम’ कौन हैं? और ‘वे’ कौन हैं? इसकी शिनाख़्त होनी चाहिए क्योंकि पिछले ढाई दशक की राजनीति में बहुत सारे बदलाव आये हैं जिसमें ‘हम’ और ‘वे’ दोनों बदले हैं. गौरतलब है कि एक तरफ हिंदुत्व ने अपने ‘हम’ के सिद्धांत को खोलने का, विस्तारित करने का काम किया है और हिंदुत्व की राजनीति को टक्कर देने वाली दलित-पिछड़ों की राजनीति अब उसके पैदल सिपाही ही नहीं बल्कि सेनापति की भूमिका में दिख रही है। बहुत हद तक इसकी जिम्मेवारी कांशीराम पर भी जाती है.

दूसरा यह कि बहुजनों के लिए मुसलमान किस श्रेणी में आते हैं? क्या वे ‘हम’ के दायरे में आते हैं? बहुजन के कांसेप्ट में धार्मिक अकलियत उसका हिस्सा है पर इसका तर्क यह है कि मुसलमान भी दलित रहे हैं और उन्होंने धर्म परिवर्तन किया है. यानि कि एक स्वतंत्र पहचान के तौर पर मुसलमानों का व्यवहारिक बहुजन राजनीति में अस्तित्व नहीं है.

लेख की शुरुआत में जिस घटना का जिक्र है, उसे ध्यान में रखते हुए राजनीति के नये शिल्पकारों को समझ दुरुस्त करने की ज़रूरत है. यानि जातीय और मुसलमानों के साथ धार्मिक पहचानों के आधार भेदभाव दूर किये बिना किसी बहुजन राजनीति का खाका पूरा नहीं हो सकता है. साथ ही साथ इस राजनीति के अंदर न्यायपूर्ण भागीदारी और हिस्सेदारी को तय करने की भी ज़रूरत है.


लेखक गिरी विकास अध्ययन संस्थान, लखनऊ में शोधार्थी हैं 


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