इलाहाबाद: GBPSSI के सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन पर वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ का वक्तव्य

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गोविंद बल्लभ पंंत सामाजिक विज्ञान संस्थान (इलाहाबाद) में चल रही व्याख्यानमाला की 34 वीं कड़ी में ‘रमन मैग्सेेेसेे’ पुरस्कार से सम्मानित पत्रकार चिंतक लेखक ‘पीं साईनाथ’ को सुनना अदभुत अविस्मरणीय कर देने वाला रहा। एक ऐसे समय में ऐसी निर्भीक आवाज को सुनना जब भारतीय पत्रकारिता और बौद्धिक मेधा सत्ता से सवाल पूछने की बजाय आंख बंद कर गुणगान करने में मग्न हो। व्याख्यान के विषय की विविधता, प्रश्नों की गंभीरता और सकारात्मक जबाब मिलना सेमिनार में उपस्थित विधार्थियों के मार्गदर्शन के पदचिह्न के निशान छोड़कर गई।

पी साईनाथ ने शुरुआत करते हुआ कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव प्रत्येक क्षेत्र में अलग अलग रूप में पड़ा। गांवों से लेकर किसानों तक उत्पादन से लेकर उधोग तक जिसे मैं ‘एग्रेरियन क्राइसिस’ कहता हूं जो आगे बढ़ता हुआ ‘सोसाइटल क्राइसिस’ से होता हुआ ‘सिवीलाइजेशन क्राइसिस’ तक जा पहुंचा। जहा पर लाइफ, प्रोडक्शन,और मानव ही खतरे की दहलीज पर पहुच चुका है।

पिछले तीन दशको में 3 लाख किसान आत्महत्या कर चुके है लेकिन यह खबर ना तो अखबारों की सुर्खियां बनती है ना ही विमर्श का केंद्र। जबकि सत्ता में बैठी रहने वाली सरकारें आंकड़ों के माध्यम से बताने का प्रयास करती है कि किसानों का प्रतिशत कम हुआ है यह भारत के विकसित होने की निशानी है बजाय ये जाने कि कितने किसानों ने खेती छोड़ी?

सवाल सिर्फ़ किसानों की आत्महत्या तक नही! सवाल है शिक्षा की दुर्गती ने इस संकट को कैसे संकटग्रस्त बनाया।

आज भूमंडलीकरण के दौर में सभी आंकड़ों को छुपाया जा रहा है कितने किसानों नें आत्महत्या की क्राइम कितना बढ़ा? केंद्र सरकार और राज्य सरकारें ‘नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरों’ के आकड़ों को सामने आने नही दें रही है।

ग्लोबल वार्मिग पर बात रखते हुए कहा कि सवाल खड़ा होता है कि एक तरफ आयल इंडस्ट्री और आटोमोबाइल सेक्टर विस्तार कर रहा है तो दूसरी तरफ ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने की बात की जा रही है इसलिए दोनों के बीच विरोधाभास दिखाई पड़ता है जिसकी प्रमुख जड़ इंडस्ट्रियल कैपिटलिस्ट है। यही कारण है कि आज दुनिया में ही नही भारत में भी कोलोनियल क्षेत्रों का विस्तार हो होता जा रहा है।

कटाक्ष करते हुए कहा कि आज देश में तमाम चुनौतियों के होते हुए हम jio का पैक पाकर रिलेक्स हो जाने की महामारी की जकड़ में फसते जा रहे है।

जो प्रकृति सबसे बड़ी इंजीनियर है उसके वेदर को क्लाइमेट को हम बदलते जा रहे। उस बदलाव का प्रभाव Natural Politics or Economic पर देखा जा सकता है। क्योंकि इस बदलाव के अंश को देखना हो तो नेशनल कहलाने वाले अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर देखा जा सकता है समाज के 76% जनसंख्या की आवाज का मात्र 0.6% भी आवाज़ सुनाई नही देती। यह हमारी गुलाम मानसिकता नही तो फिर क्या कहा जाए?।

आज इस बदलती हुई जलवायु परिवर्तन का असर उन सभी क्षेत्रों पर पड़ रहा है जिनकी समस्या और प्रभाव कि कोई आवाज कही नही सुनाई पड़ती। 2% प्रतिशत तापमान बढ़ने से गुणवत्ता और उत्पादन पर कितना असर पड़ता है? तापमान का कम होना या पहले आने से कैसे ‘आम’ की फसल प्रभावित होती है कोई विमर्श नही, जबकि फिश और आम प्रोटीन और न्यूट्रिशन मिलने के प्रमुख स्रोत यानि कुपोषण तक पहुचना क्योंकि आमजन मानस की पहुंच से दूर। हम सबके और हमारे मीडिया के विमर्श से यह चुनौतियां बहुत दूर हो चुकी है।

आज इस जलवायु परिवर्तन के कारण ही फसलों की वरीयता में बदलाव, परिणाम मृदा प्रभावित वाटर क्राइसिस। यानि हाईब्रिड बीज की फसलों का बढ़ना कितनी महिलाओं को खेती से बाहर कर चुका है जो अपने बीजों को सवार कर रखती थी। आज बाजार की इस व्यवस्था नें कितनी महिलाओं का रोजगार खत्म किया कोई आंकड़ा किसी सरकार के पास नहीं?।

इस बदलाव की स्थिति का असर प्रोडक्शन से लेकर रेवेन्यू तक पड़ रहा है तो साथ ही दूध जैसे मूल्यवान चीज लोगों की पहुंच से दूर होती जा रही है परिणाम बच्चों में कुपोषण की गति तेज।

लातेहार मराठा जैसे क्षेत्रों तक पानी का बिकाऊ पन तो दूसरी तरफ सूखा पड़ रहा था एक तरफ हाइब्रिड बीज बोकर मृदा बजंर बन रही है तो दूसरी तरफ हमारे फिल्म इंटस्ट्री के सितारे उनके ब्रांड एम्बेसडर बने हुए है।

व्याख्यान के अंतिम पड़ाव की तरफ बढ़ते हुए कहा कि जिसे आज हम ‘वाटर क्राइसिस’ कह रहे है वो आगे चलकर मृदा की खनिजता में कमी परिणाम इकोसिस्टम प्रभावित जिसकी शुरुआत हो चुकी है।

सवाल सिर्फ ये नही कि वैल्थ बढ़ी महत्वपूर्ण यह है कि इसमें मजदूरों और किसानों की कितनी वैल्थ बढ़ी या फिर अम्बानी अडानी की?।

सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए कहा कि क्या जीरों बजटिंग संभव हो पायेगी? जब कृषि की लागत में इतनी अधिक तेजी आ चुकी हो।

इरेशनल होते जा रहे समाज के लिए वे सब एकेडमिक संस्थान और इंटेक्चुअल लोग भी जिम्मेदार है जो समाज की असल चुनौतियों का सामना आधुनिक, तर्कसंगतपूर्ण और वैज्ञानिक तरीके से नही करना चाहते।

इसलिए आवश्यकता इस बात कि है कि सभी समस्याओं की बुनियाद बढ़ती हुई असमानता में छिपी हुई है यही असमानता जीवन शैली में बदलाव परिणाम समाज के एक प्रतिशत लोगों के पास देश के सत्तर प्रतिशत संसाधन जो विलासिता की तरफ बढ़ा रहा है, इसलिए गांव और शहर के बीच अंतर बढ़ता जा रहा है ऐसे में न्याय की समानता की और फ्रीडम की तरफ आगे बढ़ना होगा।

सवाल सत्र में विकास और रोजगार से सम्बन्धित प्रश्नों का जवाब देते हुए कहा कि विकास सरप्लस की अवधारणा है लेकिन विकास से तात्पर्य सिर्फ एक क्षेत्र तक सीमित नही अगर रियल एस्टेट का विकास हो तो साथ में आधारभूत संरचना का भी ,गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा का भी तो साथ में स्वास्थ्य का भी यानि समग्रता में सतत रूप से हो। जहा मीडिया की आजादी भी उतनी ही महत्वपूर्ण हो। इसलिए हम सब मिलकर आज कि चुनौतियों पर विचार करे समाधान के रास्तें तलाशे जिससे आगे आने वाले दशकों में इन चुनौतियों के गंभीर परिणाम भुगतने से देश को और मानव सभ्यता को बचाया जा सके।


मोहम्मद नईम, ब्रह्म आइएएस इलाहाबाद से साभार प्रकाशित.

 


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