कोरोना-काल में बढ़ा सत्ता को आईना दिखाने वाले पत्रकारों का दमन

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पिछले सप्ताह द वायर के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन के दिल्ली स्थित आवास पर उत्तर प्रदेश के पुलिस कर्मियों का एक दल पहुंचा। यह दल उनके खिलाफ दर्ज प्राथमिकी के सिलसिले में 14 अप्रैल को उन्हें अयोध्या के एक थाने में हाजिर होने के लिए एक नोटिस लेकर आया था।  कोरोना को लेकर जब चहुँओर हाहाकार मचा है और स्वयं प्रधानमंत्री ने घोषणा की थी कि अति आवश्यक यात्राओं के अतिरिक्त सड़कों पर कोई भी वाहन नहीं चलेगा, राज्यों की सीमाएं बंद पड़ी हैं; ऐसी स्थिति में उत्तर प्रदेश पुलिस का यह कदम बेहद चौंकाने वाला था।

कुछ दिन पूर्व उत्तर प्रदेश पुलिस ने सिद्धार्थ वरदराजन के खिलाफ दो एफआईआर दर्ज की थीं।  अयोध्या मंदिर ट्रस्ट के मुखिया आचार्य परमहंस ने एक विवादास्पद बयान जारी करते हुए कहा था कि भगवान राम सभी श्रद्धालुओं की कोरोना वायरस से रक्षा करेंगे। सिद्धार्थ ने अपने एक लेख में गलती से आचार्य परमहंस के इस बयान को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के हवाले से उद्धृत कर दिया। लेकिन जैसे ही अगले दिन उन्हें अपनी गलती के बारे में पता लगा उन्होंने न सिर्फ उस लेख में संशोधन किया अपितु एक ट्वीट के माध्यम से इस त्रुटि के बारे में बता भी दिया।  

अंग्रेजी समाचार पत्र हफ्फिंगटन पोस्ट से बातचीत करते हुए सिद्धार्थ वरदराजन ने इस सारे मामले पर अपनी बात रखी है। 

जहाँ तक उपरोक्त ट्वीट का सवाल है उत्तर प्रदेश सरकार के मीडिया सलाहकार की तरफ से बयान आया कि सिद्धार्थ वरदराजन अपने ट्वीट को मिटाकर माफी मांगे। सिद्धार्थ के अनुसार इस ट्वीट को न मिटाने के पीछे उनका अपना तर्क है।  वे कहते हैं कि अगर ट्वीट मिटा दिया जाता तो यह आरोप लगाया जाता कि मैंने सबूत मिटा दिया। मुझे लगता है अगर ट्वीट में कुछ त्रुटि हो जाए तो मूल ट्वीट को बरक़रार रखते हुए, और त्रुटि स्वीकार करते हुए उसके नीचे संशोधित करके लिख दिया जाना चाहिए। इसके दो फायदे होते हैं; गलती भी ठीक हो जाती है और गलती का रिकॉर्ड भी बरकरार भी रह जाता है। 

 वैसे तो किसी भी स्थिति में कोई पुलिस-दल कोई नोटिस लेकर किसी के यहाँ धमक जाए तो थोड़ी सी बेचैनी स्वाभाविक है, पर कोरोना वायरस के दौर में जब आपको ऐसा कोई नोटिस आये तो कैसा लगता होगा? इस पर सिद्धार्थ कहते हैं, थोड़ी सी हैरानी तो जरूर हुई कि उन्हें यह मामला इतना जरूरी लगा कि उन्हें मुझे पुलिस स्टेशन में बुलाने के लिए अयोध्या से यहां पुलिस दल को सम्मन देने के लिए भेजना पड़ा। अजीब बात है; पर मुझे यकीन है कि उनका इरादा सिर्फ नोटिस देना नहीं था। शायद वे मुझे गिरफ्तार करना चाहते थे। मैं घर पर नहीं था। मेरी पत्नी नंदिनी ने नोटिस लिया। उसके बाद का सारा घटनाक्रम हम सार्वजनिक रूप से बता चुके हैं।” 

सिद्धार्थ के अनुसार उन्हें पहले से ही कुछ आशंका तो अवश्य थी कि सरकार दबाव बढ़ाएगी, राजनेता दबाव बढ़ाएंगे, और जिस तरह का कोलाहल सोशल मीडिया पर चल रहा है , उसे देखते हुए यह भी लग रहा था कि इस तरह का कोई कदम अवश्य उठाया जाएगाखासकर प्राथमिकी दर्ज होने के बाद।  सिद्धार्थ के लिए यह अप्रत्याशित नहीं था और निश्चित रूप से भयावह भी नहीं। उनका मानना है इस प्रकरण को पूरी मीडिया के लिए एक चेतावनी के रूप में देखा जाना चाहिए।  

यदि राज्य सरकारें  मीडिया को लक्षित करने को प्राथमिकता देनें लगें, वह भी तब जब स्वयं प्रधानमंत्री ने कहा हो कि राज्य सरकारों को अपना पूरा ध्यान लोगों को वायरस से बचाने पर केन्द्रित करना चाहिए तो स्थिति की गंभीरता को समझा जा सकता है।

इस घटना ने  मीडिया और आम  लोगों को स्मरण दिलाया है कि हमारी लोकतांत्रिक आज़ादी कितनी कमजोर है।

सिद्धार्थ के खिलाफ जब 1 अप्रैल को एफ आई आर दर्ज हुई तब भी इस पर हर ओर चर्चा हुई थी पर दस्ती नोटिस भेजने की घटना के बाद तो जैसे हंगामा खड़ा हो गया।

जब एफआईआर दर्ज की गई थी, तो पत्रकार संगठनों द्वारा व्यापक रूप से इसकी रिपोर्टिंग और निंदा की गई थी। इस देश में पुलिस तमाम किस्म के  मुकदमे दर्ज करती है। पर मुझे लगता है कि किसी ने यह कल्पना नहीं की होगी कि सरकार इतनी बेरहमी से इस एफआईआर को गिरफ्तारी में बदलने की कोशिश करेगी। लोगों को यह तो अवश्य लगा कि आदित्यनाथ सरकार ने प्रेस पर हमला किया है, लेकिन उन्हें यह अनुमान नहीं था की सरकार का इरादा इससे भी आगे जाने का हो सकता है। लेकिन जब आप, लॉकडाउन के दौरान एक संपादक को अयोध्या के थाने में उपस्थित होने के लिए  सात पुलिस वालों के हाथ सम्मन भेजते हैं और – अच्छी तरह से यह  जानते हुए कि वह उपस्थित नहीं हो सकता – तो साफ है कि इसके माध्यम से कुछ और ही संदेश दिया जा रहा है। और मुझे लगता है कि मीडिया और नागरिक समाज ने इस संदेश को सही ढंग से पढ़ लिया है। 

सिद्धार्थ के मुताबिक संदेश साफ है कि लोकतांत्रिक अधिकारों और अभिव्यक्ति की आजादी के बारे में ज्यादा सवाल ना खड़े किये जाएँ।

हाल ही में मणिपुर में, एक जेएनयू स्कॉलर के खिलाफ एक मामला दर्ज किया गयाक्योंकि उसने मणिपुरी मुसलमानों के संबंध में मुख्यमंत्री की नीतियों के बारे में एक आलोचनात्मक लेख लिखा था; और अब उसके खिलाफ कार्यवाही की जा रही है। एक ट्वीट के लिए गुजरात में प्रशांत भूषण के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है। 

सिद्धार्थ के अनुसार महामारी और लॉकडाउन का दौर अधिकारवादी राज्य-सरकारों को इस तरह की चालें चलने के लिए प्रेरित कर रहा है। यह जानते हुए भी कि आज अपने खिलाफ किसी कारवाई का कोई उपाय कर पाना पहले से कितना कठिन है। “ कोविड-संकट के बहाने पूर्वाग्रह, अधिकारवादी प्रवृतियाँ, गोपनीयता, पारदर्शिता न रखने और लोगों में आपसी फूट डालने के इरादे से साम्प्रदायिक राजनीति का प्रयोग करने जैसी चीज़ें एकाएक ज्यादा बढ़ गईं हैं। 

पूर्व-कोरोनावायरस काल की भारतीय शासन की सभी सबसे खराब प्रवृत्तियां और गहरा गई हैं। इस पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हो रहा। कितना अच्छा होता अगर केंद्र और राज्यों का नेतृत्व इस महामारी से कुछ सबक सीखता – कि कैसे कोई समाज पूरी पारदर्शिता के साथ, लोकतांत्रिक तरीके से, अपने सब नागरिकों को समान समझते हुए, किसी समस्या का खुलकर सामना कर सकता है, ठीक वैसे ही जैसे यह वायरस नागरिक-नागरिक में भेद नहीं कर रहा। स्पष्ट शब्दों में कहूँ तो सत्तासीन शासन की सबसे बुरी प्रवृतियाँ कहीं और पैनी हो गई हैं। भारत ही नहीं अपितु अन्य कई देशों में भी ऐसा ही हो रहा है। इस संकट के कारण जहाँ कई देशों में हालात ख़राब हो गए हैं वहीँ कुछ देशों ने बेहतर राह भी पकड़ी है। कुल मिलाकर जिन देशों में पहले से ही लोकतांत्रिक अधिकारों पर चोट पहुँच रही थी, उन्ही देशों में लोकतंत्र का संकट और गहरा गया है। 

मीडिया बिरादरी पूर्व-कोरोना विश्व के अपने राजनीतिक पूर्वाग्रह, झुकाव और मतभेदों को एक तरफ रखकर यह आकलन क्यों नहीं करती कि इस संकट से सरकार कैसे निपट रही है?

पत्रकारिता किसी से सहमत होना अथवा न होना नहीं है। पत्रकारिता का काम है कि वह यह बताये कि जमीन पर क्या हो रहा है और लोगों का ध्यान सरकार के निर्णयों की प्रकृति की ओर आकर्षित करे; और उन्हें बताये कि कि कहाँ कमी हैं और कहाँ, क्या प्रगति हुई है। आपको अपने पाठकों और दर्शकों के लिए सटीक रिपोर्टिंग करनी होती है। मुझे नहीं लगता सरकार से आपकी सहमति अथवा असहमति या सरकार से जुड़ाव या अलगाव से आपकी रिपोर्टिंग की प्रकृति पर कोई प्रभाव पड़ना चाहिए। अगर राजस्थान सरकार, जहाँ केंद्र-सरकार की पार्टी से अलग पार्टी की सरकार है, से जुड़ा कोई मसला सामने आता है तो उसे भी, इसी तरह सामने लाना चाहिए। हमारे राजनीतिक विचार हम पर हावी नहीं होने चाहियें। खबर बस खबर होती है। मुझे नहीं लगता कि महामारी या अन्य किसी संकट के दौर में मीडिया को अपनी मूल प्रकृति को निलंबित कर देना चाहिए। मीडिया को निष्पक्ष रहते हुए सरकारों से प्रश्न पूछने ही होंगे, विशेषकर अब जब लॉकडाउन के कारण पारदर्शिता भी कम हो गई है। मीडिया का कर्तव्य है कि वह बिना किसी भय और पक्षपात के, अपना काम करे। आज के दौर में मीडिया की जिम्मेदारी और ज्यादा बढ़ गई है।     

द वायर के खिलाफ कानूनी कार्यवाहियों की क्रोनोलोजी समझाते हुए सिद्धार्थ बताते हैं,

जय शाह वाले मामले में हम पर पहली बार आपराधिक मुकदमा दर्ज किया गया, लेकिन यह मानहानि के मुकदमे का ही हिस्सा है, इसलिए अगर इसे अपराध के स्तर के तौर पर देखा जाए तो यह इतना बड़ा भी नहीं है। इसके अलावा बाकी सब दीवानी मुकदमें हैं। पर यह मामला अलग ही परिमाण का है। इस मामले में आई पी सी की गंभीर धाराओं, इन्फॉर्मेशन टेक्नोलोजी एक्ट, महामारी रोग अधिनियम की अवहेलना करने जैसे गंभीर आरोप हैं। यह बिलकुल नये किस्म की घटना है। मीडिया का अपराध तय करने की जो उचित सीमाएं थीं, यह उससे बहुत आगे का कदम है। मीडिया को अपमानजनक व्यवहार के आरोप में उसे अपराधी ठहरा सकते हैं। उसके बाद मुकदमा दर्ज कर सकते हैं, ऐसी चीज़ों को इस खेल के नियमों के तौर पर देखा जाता था। लेकिन इस मामले में दरअसल वे पाले से बाहर जाकर और इस तरह के आरोप लगाकर परेशान और आतंकित करने के नये खेल खेल रहे हैं।   

सिद्धार्थ के मुताबिक उन्होंने कभी किसी दुस्वप्न में भी नहीं सोचा था कि उन पर एपिडेमिक डिजीज एक्ट यानि महामारी बीमारी अधिनियम की अवहेलना करने का मुकदमा भी दर्ज हो सकता है।  

भारत ही नहीं अपितु पूरा विश्व कोविड-19 के संकट से जूझ रहा है जिस समय सरकार को अपना पूरा ध्यान इस महामारी को नियंत्रित करने पर केंद्रित करना चाहिए उस समय ऐसा कदम बेहद हैरान करता हैं।” 

कुछ दिन पहले पवन कुमार जायसवाल नाम के पत्रकार ने उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में बच्चों को रोटी के साथ सिर्फ नमक परोसने की एक घटना के बारे में रिपोर्टिंग की थी। नतीजे के तौर पर उसके खिलाफ एफ आई आर दर्ज हो गई। सिद्धार्थ से जब यह पूछा गया कि इन दोनों मामलों में क्या फर्क है तो उनके मुताबिक़ दोनों मामलों में कोई फर्क नहीं है। न तो जायसवाल का मामला अकेला है और न ही द वायर का। उत्तर प्रदेश, मणिपुर, जम्मू कश्मीर, छत्तीसगढ़ और तमाम जगहों पर पत्रकारों को निशाना बनाने की खबरें सामने आ रही है। किसी प्रकाशन के संपादक के खिलाफ कार्यवाही की इस घटना को, एक बड़ा संदेश देने की कोशिश के रूप में भी देखा जा सकता है। स्वाभाविक रूप से मीडिया के एक बड़े तबके में इस घटना से असुरक्षा का भाव पैदा होगा।

अलग-अलग प्रदेशों में पत्रकारों के खिलाफ अलग-अलग किस्म के मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं और सिर्फ पत्रकारों के खिलाफ ही नहीं, पिछले कुछ सालों में सोशल मीडिया पर लिखी किसी पोस्ट के आधार पर भी बहुत व्यक्तियों के खिलाफ कार्यवाही करने के मामले सामने आए हैं। 

और यह सब पिछले पांच-छह सालों से बड़ी तेजी से किया जा रहा है। निसंदेह, अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने और स्वतंत्र मीडिया को कमज़ोर करने के इरादे से। अगर हम सब मिलकर इसे रोकने की मांग नहीं करते है तो किसी न किसी रूप में यह ऐसे ही चलता रहेगा।” 

द वायर के खिलाफ मानहानि के करीब 10 मुकदमे दर्ज हैं। उसके बावजूद भी सिद्धार्थ विचलित नजर नहीं आते। उनका कहना है कि इस तरह के मुकदमों का उन पर ज्यादा असर नहीं होता। लेकिन इनसे यकीनन समय तो बहुत बर्बाद होता है। तमाम किस्म के कानूनी दस्तावेजों से माथापच्ची करनी पड़ती है। कानूनी प्रक्रिया के माध्यम से आप को प्रताड़ित किया जाता है। सिद्धार्थ वरदराजन 2012-13 में द हिंदू के संपादक थे, उस अवधि के भी कुछ मुकदमे अब तक लटक रहे हैं। हां, फिक्र तो होती है क्योंकि बीच-बीच में आपको वे काम रोकने पड़ते हैं, जिन्हें करने में आपको बेहद आनंद मिलता है और मेरे लिए वह काम है पत्रकारिता।” 

इस घटना के बाद एडिटर्स गिल्ड ने भी एक पत्र जारी किया था, जो मुख्यतः सुप्रीम कोर्ट द्वारा कोविड-19 पर रिपोर्टिंग को लेकर मीडिया की भूमिका के बारे में था। इसी पत्र में एडिटर्स गिल्ड ने आखिर की दो पंक्तियों में सिद्धार्थ वरदराजन को उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा भेजें गए नोटिस के बारे में भी लिखा था।  सिद्धार्थ का कहना है कि एडिटर्स गिल्ड एक महत्वपूर्ण संस्था है; उसके द्वारा इस घटना का संज्ञान लिए जाना और उसकी निंदा करना जरूरी भी था। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन्होंने अपने पत्र में दो पंक्तियां लिखीं या दस। लेकिन उन्हें एडिटर्स गिल्ड से यह अपेक्षा अवश्य है कि जब यह मामला आगे बढ़ेगा तो गिल्ड अपनी आवाज उठाता रहेगा

दो सौ पत्रकारों ने सिद्धार्थ वरदराजन के समर्थन में एक बयान जारी किया है। लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि पत्रकारों की ऐसी बिरादरी है भी है जो या तो इस पूरे मामले के प्रति उदासीन बनी रही है या इससे कदाचित प्रसन्न भी हुई हो।

मेरे साथ उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने जो किया, उस पर कोई भाजपा समर्थक पत्रकार अगर खुश है तो उसे यह भी समझना चाहिए कि उसके साथ भी किसी राज्य की गैर-भाजपा सरकार के द्वारा बिल्कुल ऐसा ही किया जा सकता है। अगर ऐसे ही चलता रहा और पत्रकारों को इसी तरह निशाना बनाना जारी रखा गया तो कौन कह सकता है कि कल किस विचारधारा से चलने वाली कौन सी सरकार, किस को निशाना नहीं बना लेगी। हम सब जानते हैं, चाहे पश्चिम बंगाल हो, तमिलनाडु, केरल या जम्मू कश्मीर; अलग अलग विचारधारा वाली सब राज्य सरकारों ने समय-समय पर भिन्न विचार रखने वाले लोगों को निशाना बनाया है।” 

अभी हाल ही में पायल रोहतगी नाम की अभिनेत्री ने ट्विटर पर जवाहरलाल नेहरू के बारे में कुछ उलजलूल बातें लिखी। उसके खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज कर दिया गया और इस अभिनेत्री को तीन-चार दिन हवालात में गुजारने पड़े।

सिद्धार्थ कहते हैं कि, मैंने सार्वजनिक तौर पर इस अभिनेत्री का समर्थन किया और राजस्थान सरकार की निंदा की। मेरा मानना था कि आप उससे सहमत हो अथवा न हो लेकिन उसके खिलाफ इस तरह की कार्यवाही करके कानून का दुरुपयोग किया जा रहा है। जब इस तरह की कोई घटना हो तो आपके निर्णय का पैमाना यह नहीं होना चाहिए कि पीड़ित पक्ष की क्या विचारधारा है और सरकार की क्या। 

और अगर आप पत्रकार हैं तो आपका पैमाना अभिव्यक्ति की आजादी और प्रेस की स्वतंत्रता की समझदारी पर आधारित होना चाहिए। मुझे अफसोस है कि मेरी ही बिरादरी के कुछ लोग चीजों को इस नजरिए से नहीं देखते।” 

सिद्धार्थ वरदराजन के खिलाफ उत्तर प्रदेश सरकार की इस कार्यवाही को इस रूप में भी देखा जा रहा है कि उन्होंने तबलीगी जमात और योगी आदित्यनाथ द्वारा रामलला की मूर्ति को अयोध्या ले जाने की घटना को कहीं ना कहीं एक जैसा माना जबकि यह कार्यक्रम सार्वजनिक कार्यक्रम नहीं था।

 “ हम इस बात को लेकर भी बहस कर सकते हैं कि मरकज का कार्यक्रम भी सार्वजनिक नहीं था; क्योंकि न उसमें आप थे और न मैं। मरकज में जो लोग इकट्ठा हुए थे, वे सब निमंत्रण पर आए थे और सब तबलीगी थे। जो लोग अयोध्या में इकट्ठा हुए, वे मंदिर के लोग थे या आदित्यनाथ के सहयोगी या फिर उनके अधिकारी। यह आयोजन लॉकडाउन के नियमों के विरुद्ध था। किसी ने मास्क नहीं पहना था। सोशल डिस्टेंसिंग के निर्देशों की सरासर अवहेलना की गई थी।  सच तो यह है कि दोनों ही घटनाएं बेहद गैर-जिम्मेदाराना थीं।” 

चौबिस मार्च को लॉकडाउन की घोषणा के बाद प्रवासी मजदूर सैंकड़ों मील दूर स्थित अपने घरों की ओर पैदल ही निकल पड़े। सुप्रीम कोर्ट ने जब इसका संज्ञान लिया तो उसने सरकार को चेताया कि  कोरोना संकट पर कैसे रिपोर्टिंग हो इस बारे में मीडिया मे कोई दखल न दिया जाए और न ही न्यायालय ने प्री-सेंसरशिप जैसी किसी बात को माना।  

वरदराजन सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से थोड़ा निराश नजर आते हैं।  क्योंकि इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय का भी यही मत था कि फेक न्यूज़ की वजह से मजदूरों ने पलायन शुरू कर दिया। मौखिक जिरह में केंद्र सरकार भी यही बात कह रही थी। हालांकि सरकार ने लिखित में ऐसा कोई बयान नहीं दिया। अच्छी बात यह रही कि सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया पर ऐसा कोई बंधन नहीं लगाया कि खबर छापने से पहले उसका मिलान सरकारी दृष्टिकोण से किया जाना भी ज़रूरी है। अगर ऐसा हो जाता तो किसी समाचार पत्र और सरकारी गजट में क्या फर्क रह जाता।

तबलीगी जमात के मसले ने वायरस के संकट का साम्प्रदायीकरण कर दिया। क्या सरकार भी इसके लिए जिम्मेदार थी? इस पर वरदराजन कहते हैं कि यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह भी सच है इस संकट का साम्प्रदायीकरण तो हुआ है। सांप्रदायिकता का वायरस दूर-दूर पहुंच गया है। मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री को इसमें दखल करना चाहिए था। क्योंकि वह यह मानते हैं लोग उनकी बात सुनते हैं। सरकार में उनके कद के किसी व्यक्ति को तो इस जरूर बयाँ जारी करना चाहिए था। मुस्लिम वायरस वगैरह जैसे तमाम किस्म के जो हैशटैग चल रहे हैं उन्हें बंद करवाया जाना चाहिए था।    

“  इस तरह के सोशल मीडिया अभियान से राष्ट्र और राष्ट्रीय एकता को तो नुकसान होगा ही, कोरोना वायरस नाम की वैश्विक महामारी के खिलाफ हमारी जंग भी निश्चित रूप से कमज़ोर होगी।

 


प्रस्तुति- कुमार मुकेश


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