“भीम आर्मी” का प्रदर्शन: मीडिया का मुंडन !

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सुरेश जोगेश

21 मई की सुबह से भीड़ जमा होनी शुरू हो गयी थी जंतर-मंतर पर. देखते ही देखते आसमान का रंग जमीन ओढ़ने लगी थी. वही आलम सोशल मीडिया का भी था. हर ओर नीला ही नीला. मुख्यधारा मीडिया का काम इस बार सोशल मीडिया बखूबी निभा रहा था. जो तस्वीरें आती रहीं उनमें फ्राँस, अमेरिका और जर्मनी के कुछ पत्रकार कैमरा और माइक के साथ थे पर भारतीय मीडिया घरानों चर्चित या अर्चित पत्रकार या ऐंकर नहीं दिखे। साख के मामले में भारतीय मीडिया 180 देशों की सूची में 136 वें पर यूँ ही नहीं है। दबी-कुचली-वंचित जनता के आक्रोश के लिए वहाँ जगह नहीं है। अगर वार ब्राह्मणवाद की बुनियाद पर हो रहा हो, तब तो यह संपादकों और पत्रकारों का निजी मामला जैसा हो जाता है। वे सहारनपुर से लेकर झारखंड तक मचे उत्पात को दबाने के लिए पाकिस्तान पर गोलाबारी तेज़ कर देते हैं। घेरकर मारे जा रहे निर्दोषों की चीख़ दबाने के लिए परेश रावल के ट्वीट का शोर मचा देते हैं।

बहरहाल, जंतर-मंतर पर भीम आर्मी के प्रदर्शन को राजनीति और समाज में एक अहम मोड़ माना जा रहा है तो यह भी देख लिया जाए कि मीडिया ने इस ऐतिहासिक करवट को पकड़ने में कैसी भूमिका निभाई-

  1. 22 मई को Indian Express में 3-4 आर्टिकल छपे. जिसमे एक भीम आर्मी से परिचय कराने वाला था तो बाकी 2-3  कार्यक्रम की मुख्य बातों पर. अखबार के दिल्ली संस्करण ने मुख्य पृष्ठ पर महत्वपूर्ण जगह दी लेकिन इसी ग्रुप के हिंदी अख़बार ‘जनसत्ता’ में दो आलेख छपे हैं, जिनमें महज़  5000 (?) की भीड़ होने का दावा किया गया. एक आलेख इनपुट IANS से बताता है. दूसरी ओर अख़बार के दिल्ली संस्करण के मुख्य पेज से यह खबर ही गायब है. मुख्य पेज पर आईपीएल और भगवत गीता की पढ़ाई को जगह दी गयी है.

2. NDTV  की वेबसाइट पर 2 आर्टिकल हैं. एक हिंदी व एक अंग्रेजी में. जिसके लिए इनपुट PTI से लिया गया है. NDTV लिखता है कि सहारनपुर हिंसा के विरुद्ध लगभग 5 हजार (?) लोगों प्रदर्शन किया. चंद्रशेखर पर दर्ज मुकदमे वापस लेने के लिए आवाज उठाई गई.

चैनल पर NDTV संवाददाता और एंकर, दोनों ने ही चर्चा बसपा के संभावित विकल्प बताने वाली बात को हाईलाइट करके शुरू की। दूसरी ओर एक पोस्टर को दिखाकर कहा कि  देखिए, हिंसा इस तरह से भड़काई जाती है. पोस्टर चंद्रशेखर के खिलाफ संभावित कार्रवाई के विरुद्ध चेतावनी को लेकर था। भीम आर्मी यहाँ सवालों के घेरे में दिखी. कभी राजपूत युवक की मौत (पोस्टमॉर्टेम के अनुसार दम घुटने से) को लेकर तो कभी अत्याचार के आरोपों की सत्यता को लेकर. स्क्रीन काली करके नाम कमाने वाले इस चैनल के कवरेज दलितों के आक्रोश और उसके कारणों की पड़ताल गायब थी जो जंतर-मंतर पर साफ़-साफ़ दिख रहा था। यहां भी 5 हजार की भीड़ बताई गई है जबकि सामान्य अंदाज़ में भी यह कई गुना ज़्यादा थी.
(Ref: https://youtu.be/IO79pMp7JCA)

3. टाइम्स ग्रुप (TOI, NBT etc): टाइम्स ऑफ इंडिया, नवभारत टाइम्स व इकनोमिक टाइम्स, सभी ने इसे पहले पन्ने की खबर नही माना. वेबसाइट की बात की जाए तो TOI ने 50 हजार से ज्यादा की भीड़ का दावा किया है. दो आलेख छपे हैं, TNN से इनपुट के आधार पर. ग्राउंड रिपोर्टिंग नही है. नवभारत टाइम्स ने भी दो जगह ख़बर लगाई है पर पहले पन्ने पर इस ख़बर को ना देना बहुत कुछ बताता है।

4. बीबीसी ने 4-5 आलेख लिखे है. प्रदर्शन की कवरेज व भीम आर्मी से परिचय पर. कुल मिलाकर कवरेज संतोषजनक रहा. बीबीसी ने भारतीय मीडिया की बेरुखी और असंवेदनशीलता पर सवाल उठाने के साथ भीड़ को कम बताने का भी आरोप लगाया. बीबीसी के अनुसार भारतीय मीडिया के बड़े घरानों ने भी इसे 5-10-15 हजार का आंकड़ा बताया है जबकि भीड़ इससे कहीं ज्यादा थी.

5. इंडिया टुडे वेबसाइट पर 2 आर्टिकल दिखे, लेकिन  इस ग्रुप के चैनल, सबसे तेज़ ‘आज तक’ से यह खबर ग़ायब दिखी। जब नंबर एक का यह हाल था तो कॉरपोरेट चैनलों के बाकी नंबर वालों से क्या उम्मीद हो सकती थी…लगभग ब्लैकआउट ही था।

6. The Hindu ने दो आर्टिकल के साथ ठीक-ठाक तरह से कवर किया है, लेकिन भीड़ को कम आँकने की कोशिश की है. मुख्य पृष्ठ से यहाँ भी खबर गायब दिखी.

7. Bhaskar ने इसे ज्यादा तवज्जो नही दी है. दिल्ली संस्करण के मुख्य पृष्ठ से भी गायब रही खबर. पेज नंबर 4 पर एक तस्वीर के साथ एक कॉलम में किसी तरह निपटाया गया है।

8. Jagran ने पेज नंबर 7 पर दो कॉलम की फोटो समेत खबर दी है। बताया गया है कि दो समुदायों के बीच हिंसा हुई थी।

9. अमर उजाला में भी पेज नंबर 7 पर एक खबर है, फोटो समेत तीन कॉलम। लेकिन कोई विश्लेषण नहीं। पुलिस की इजाज़त बग़ैर हुआ प्रदर्शन, इस पर ज़ोर है।

10. हिंदुस्तान में पेज नंबर 2 पर देश पेज पर खबर है। 5000 दलितों की भागीदारी बताई गई है।

11. राजस्थान पत्रिका ने पेज नंबर 14 पर एक तस्वीर के साथ एक कॉलम की ख़बर छापकर ख़ानापूरी कर ली है।

भीम आर्मी के ऐतिहासिक प्रदर्शन को लेकर ख़ासतौर से हिंदी अख़बारों और चैनलों की यह उपेक्षा बहुत कुछ कहती है। यह संयोग नहीं कि तमाम दलित नौजवान अब ‘अपने’ मीडिया की बात ज़ोर-शोर से कर रहे हैं। कथित मुख्यधारा का कारोबारी मीडिया, उनका नहीं है, यह बात साफ़ हो चुकी है।



 

 

लेखक सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं.