‘बर्बाद’ टी.वी.पत्रकारिता में गुंजाइश तलाशते पत्रकारों का दर्द भी जानिए !

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नितिन ठाकुर

 

आप नहीं समझ रहे हैं कि हम किस संकट से जूझ रहे हैं। मैं टीवी जर्नलिज़्म की बात कर रहा हूं। टीवी पत्रकारिता आज पहले से ज़्यादा मुश्किल हो गई है। इसके लिए कुछ हद तक ज़िम्मेदार टीवी के कर्ताधर्ता ही हैं, तो कुछ वो लोग खुद हैं जिनके लिए इसे किए जाने का दम भरा जाता रहा है। प्रबंधन और पत्रकारों के जटिल संबंधों को समाज द्वारा ना समझ पाना, पत्रकारिता की हज़ारों अनकही चुनौतियों से लोगों का पूरी तरह अनजान होना, नेताओं और प्रभावशाली लोगों द्वारा मीडिया को निगेटिव संस्था के तौर पर स्थापित कर देने के बाद अब इस काम से मोहभंग हो रहा है। नए लोग पत्रकारिता के पेशे में कुछ ठोस करने के लिए अब टीवी की तरफ कदम कम बढ़ा रहे हैं, डिजिटल का रुख अधिक कर रहे हैं।

खैर, अभी मैं बात टीवी की कर रहा हूं। ये एक महंगा सौदा है। हर पत्रकार चैनल नहीं शुरू कर सकता इसलिए उसे किसी ना किसी ग्रुप के साथ जुड़कर ही ये काम करना पड़ता है। इसके पीछे जॉब सिक्योरिटी, अपने काम को संपन्न करने के लिए पर्याप्त संसाधनों की उपलब्धता का भरोसा और अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचने की अपेक्षा काम करती है। टीवी चैनल खोलना हाथी पालना है। अभी तक देश में ये काम बहुत ही कम ग्रुप पेशेवराना तौर पर कर रहे हैं। बहुत सारे चिंदी चोरों ने तो चैनल इसलिए खोल डाले ताकि उनसे अपनी कंस्ट्रक्शन कंपनियों, खदानों, राजनीतिक संपर्कों और अन्य बिज़नेस को सुरक्षित कर सकें। ये बात आपको समझनी होगी कि प्रबंधन का इरादा और वहां काम करनेवाले लोगों की नीयत में अधिकांश बार फर्क ही होता है। इसे उदाहरण से समझ लें। गुप्ता जी ने पब्लिशिंग हाउस खोला ताकि वो इस क्षेत्र में मुनाफा कमा सकें। उनके यहां शर्मा जी ने नौकरी ज्वाइन की ताकि ना सिर्फ पैसे कमाएं बल्कि कमज़ोर लेखकों की अपने प्रभाव से कुछ मदद भी कर सकें। अब ज़रूरी नहीं कि शर्मा जी को गुप्ता जी के दूसरे एजेंडे भी मालूम ही हों और उनमें वो सक्रिय भी हों। ना ही ये ज़रूरी है कि गुप्ता जी को हर बात शर्मा जी से साझा ही करनी पड़े।

बहरहाल, मैं यहां बात कर रहा हूं प्रतिमा मिश्रा की, बात कर रहा हूं कमलजीत संधू की और बात है इल्मा हसन की। ये तीनों ही टीवी रिपोर्टर्स हैं। प्रतिमा एबीपी के साथ हैं, कमलजीत इंडिया टुडे चैनल में काम करती हैं और इल्मा भी वहीं हैं।

पहले सुनिए प्रतिमा का किस्सा.. प्रतिमा अपने चैनल के लिए दिल्ली में वकीलों के उस प्रोटेस्ट को कवर कर रही थीं जो कन्हैया कुमार के साथ मारपीट के बाद हुआ था। प्रतिमा मारपीट में शामिल होने के आरोपी रहे एक वकील से सवाल कर रही हैं लेकिन वो उन्हें जवाब देने के बजाय या जवाब देने से मना करने के बजाय ऑन एयर शर्त रख रहा है कि पहले भारत माता की जय बोलो। अब चाहे प्रतिमा सुबहोशाम भारत माता की जय बोलती ही हों मगर कैमरे के सामने उनसे ऐसा करने को कहना दरअसल उन्हें सिर्फ परेशानी में डालने के लिए किया गया। वकील ने ऐसी मांग कर दी कि वो एक झटके में राष्ट्रवाद के पैमाने पर प्रतिमा से बड़ा दिखने लगा। प्रतिमा चाहे तो हज़ारों की भीड़ के सामने हड़बड़ाहट में बोल भी देतीं लेकिन जैसे वकील बेतुकी बात पर अड़ा था वैसे ही उन्होंने समझदारी भरा हठ दिखाकर अपना काम पूरा किया। मुझे विश्वास है कि अगर भारत माता हैं तो उन्हें प्रतिमा जैसी बेटी पर गर्व होगा।

दूसरा वाकया कमलजीत का है। वो पैसे लेकर कश्मीर में फसाद फैलाने वाले स्टिंग ऑपरेशन के सामने आने के बाद हुर्रियत नेता यासीन मलिक का वर्ज़न लेने के लिए पहुंची थीं। इस स्टिंग में यासीन के सहयोगी नेता मान रहे थे कि उन्हें घाटी में हिंसा फैलाने के लिए पैसा मिलता है। कमलजीत की आपबीती का वीडियो भी नीचे कमेंटबॉक्स में दूंगा। वो यासीन के घर पहुंची थीं। अपनी आंखों से देखिएगा कि कैसे उनका मोबाइल तोड़ डाला गया। मैं मानता हूूं कि आप जबरन किसी से कोई स्टेटमेंट नहीं ले सकते पर ये न्यूनतम शिष्टाचार है कि आप पत्रकार से बात करने के लिए मना कर दें। एक आम आदमी के लिए ये समझना कठिन हो भी सकता है पर पेशेवर नेताओं के लिए ये स्थिति आसानी से हैंडल होनेवाली चीज़ें हैं। मैं इस मामले में मुलायम सिंह यादव का टेंपरामेंट उन दिनों देखकर हैरान था जब उनका भाई और बेटा प्रभुत्व की जंग लड़ रहे थे।

तीसरा वाकया सबसे ताज़ा है। एक साथ तीन तलाक लेने के तरीके पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाई तो देश में अधिकांश जगह से प्रतिक्रियाएं आ रही थीं। इल्मा हसन अलीगढ़ मुस्लिम विवि के बाहर कुछ लड़कियों से बात करने के लिए खड़ी थीं। अचानक वहां पहले एक लड़का पहुंच गया और फिर देखते ही देखते 15 लोगों का हुुुुजूम चलते कैमरे के सामने इल्मा को हड़काने के अंदाज़ में उनसे कोई ऐसा परमिशन लैटर मांगने लगा जिसकी ना तो ज़रूरत थी और ना ही जिसे देखने का अधिकार ही उन्हें था। मालूम पड़ रहा था कि वो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद लड़कियों को उनकी राय कैमरे पर ना रखने देने की कोशिश कर रहे थे। जो कुछ हुआ वो कमेंटबॉक्स में आप खुद देख सकते हैं।

तीनों वाकये एक बात तो साबित करते हैं। वो ये कि मीडिया किसी को पसंद नहीं आ रहा है। पहले मामले में वकील कहता है- मुझे पता है ये वामपंथियों का चैनल है। दूसरे मामले में यासीन बाद में बयान देता है कि महिला रिपोर्टर उसके बेडरूम में घुस आई थी (मोबाइल तोड़ डालने की बात वो गोलमोल करता है), तीसरे मसले में साफ दिख रहा है कि लड़के विवि परिसर के बाहर गुंडागर्दी कर रहे हैं तो बस इसलिए क्योंकि उन्हें लग रहा है कि मीडिया मुस्लिम लड़कियों की आवाज़ को देश में सुनाने का ‘कुकृत्य’ कर रहा है।

इन तीनों मामले में रिपोर्टर्स से बद्तमीज़ी करने वाले पक्षों को पहचानिए। एक वकीलों का समूह है जिसका काम बिन मीडिया चल सकता है। दूसरा एक नेता है जिसे मीडिया से शिकायत होना स्वाभाविक है। ये तो इस धारणा को स्थापित करने में सबसे आगे हैं कि मीडिया खलनायक है। उसकी वजह ये भी है कि मीडिया इन्हें बनाता तो है, लेकिन वहीं इनके गोरखधंधे खोलने में भी आगे रहा है। नेता मीडिया को संदिग्ध बनाए रखना चाहते हैं ताकि अनुयायियों का भरोसा उनसे ना दरके।

तीसरा पक्ष छात्रों का गुट है। वो परमिशन लेटर मांग रहे हैं। मीडिया अगर इस मुल्क में वाकई सारी कवरेज परमिशन मांगकर ही करने लगे तब तो बची खुची पत्रकारिता भी खत्म हो जाएगी। करप्शन पकड़ने के लिए या बेबाक राय लेने के लिए कैमरे पूछ कर नहीं चलाए जाते। बहरहाल इल्मा ने इस पर पूरे विस्तार से बहुत कुछ कहा है वो सुनिएगा।

मैं आपके सामने इन तीनों मसलों को इसलिए सरका रहा हूं ताकि वक्त रहते समझ लें कि मीडिया खराब भले हो लेकिन इसमें कुछ गुंजाइश अभी भी बाकी है। अलग-अलग लोग इसे बुरा कहते हैं क्योंकि वो मन मुताबिक चीज़ें ना होते देख कुढ़ते हैं। आप लोगों के लिए अभी भी ये काम का है। किसी सामूहिक बेवकूफी में पड़कर इस माध्यम को ना मरने दें। लाख संक्रमित होकर भी ये अभी जनमाध्यम है।



 

नितिन ठाकुर

लेखक टीवी पत्रकार हैं । ‘आज तक ‘ से जुड़े हैं।

 



 


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