आसाराम के एक ‘साधक’ संपादक का किस्सा उर्फ़ पत्रकारिता का भक्तिकाल

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अनिल जैन 


बलात्कारी आसाराम का मामला अंतत: अपनी तार्किक परिणति तक पहुंच गया और इसी के साथ मुझे अपने दफ्तर का 56 महीने पुराना वह वाकया याद आ गया जिसके चलते एक वरिष्ठ कहे जाने वाले पत्रकार संपादक के चेहरे से शराफत और नैतिकता का नकाब उतरा था और मेरे लिए दुश्वारियों का सिलसिला शुरू हुआ था।

बात 20 अगस्त 2013 की है। शाम का वक्त था। मैं नईदुनिया के दिल्ली स्थित कार्यालय में प्रतिदिन की तरह अखबार का संपादकीय लिख चुकने के बाद एजेंसी की खबरें देखते हुए चाय पी रहा था तभी अखबार के क्राइम रिपोर्टर ने आकर आसाराम के खिलाफ यौन शोषण का मुकदमा कमला नगर थाने में दर्ज होने की जानकारी विस्तार से दी और मुझसे खबर लिखने की इजाजत मांगी। उसने मुझे यह भी बताया कि यह जानकारी अभी अपने अलावा कुछ ही अखबार वालों के पास है।

चूंकि रिपोर्टर की दी हुई जानकारी पर अविश्वास करने की कोई वजह नहीं थी और फिर उसके पास एफआईआर की कॉपी भी थी, लिहाजा कुछ आवश्यक मशविरे के साथ मैंने रिपोर्टर से कहा कि वह सबसे पहले यही खबर लिखकर दे दे ताकि अखबार के सभी संस्करणों में जा सके। कोई डेढ घंटे बाद रिपोर्टर की लिखी खबर मेरे सामने थी। मैंने उसमें कुछ जरूरी संपादन करने के बाद उसे इंदौर कार्यालय में समाचार डेस्क पर भेज दिया।

चूंकि मामला संवेदनशील था, लिहाजा मैंने वह खबर अखबार के प्रधान संपादक श्रवण गर्ग को भी ई मेल के जरिए प्रेषित कर दी और अपने दूसरे काम में लग गया। करीब 15 मिनट बाद मेरे फोन की घंटी बजी। फोन श्रवण गर्ग ने किया था। मेरे फोन उठाते ही उन्होंने मुझसे अपने जाने-पहचाने जाहिलाना अंदाज में पूछा कि आसाराम के बारे में आपने जो भेजा, आप जानते हैं वह क्या है…. आपने वह कैसे भेज दिया…..आपको अंदाजा है कि उसे छाप देने पर कल क्या होगा….आप तो अखबार के दफ्तर में आग लगवा देंगे…जिसने यह खबर लिखी है मैं उसे नौकरी से निकाल दूंगा। (‘नौकरी से निकाल दूंगा’, ‘भगा दूंगा’ और ‘नौकरी खा जाऊंगा’ जैसे धमकी भरे जुमले श्रवण गर्ग को बेहद प्रिय रहे हैं और वे दिन में चार-पांच मर्तबा तो इसका उच्चारण नियमित रूप से करते ही थे। वे कहते ही नहीं थे बल्कि ऐसा करते भी थे। अपनी इसी परपीड़क मानसिकता के चलते उन्होंने अपने कामकाजी जीवन में सैकड़ों लोगों का कॅरिअर तबाह किया है। कुछ लोग तो उसकी दी हुई मानसिक प्रताड़ना के चलते गंभीर बीमारियों के और दो लोग असमय मृत्यु के शिकार भी हुए हैं।)

बहरहाल, मुझे कुछ बोलने का मौका दिए बगैर ही वे यह सब बोलते गए। वे रुके तो मैंने बोलना शुरू किया- कहा, सर, यह खबर मैंने वैसे ही भेजी है जैसे दूसरी खबरें रोजाना भेजता हूँ। इस खबर को अपने रिपोर्टर ने सुनी-सुनाई बातों के आधार पर नहीं लिखा है, बल्कि उसके पास बाकायदा एफआईआर की कॉपी है। संबंधित उच्च पदस्थ पुलिस अधिकारियों का आवश्यक कथन भी खबर में है। इसके बावजूद अगर आपको लगता है कि खबर विश्वसनीय नहीं है, तो आप प्रधान संपादक हैं, आप इसे रोक दीजिए। आपके पास मैंने खबर भेजी ही इसी आशय से है कि आप भी छपने से पहले इसे देख लें।

मेरे इस निवेदन को भी उन्होंने अपने अहंकार और सहयोगियों के साथ बदतमीजी करने के अपने ‘मौलिक अधिकार’ पर तीखा प्रहार माना और चीखते हुए कहा- अब आप बताएंगे कि मुझे क्या करना चाहिए। एक-डेढ़ मिनट तक इसी तरह अनर्गल प्रलाप करते हुए फोन बंद किया। अगले दिन वह खबर दिल्ली में अंग्रेजी के अधिकांश और हिंदी के कुछ अखबारों में छपी। नईदुनिया और दैनिक जागरण में वह खबर रोक ली गई। बेखबरी टीवी चैनलों पर चूंकि नियमित रूप से आसाराम के ‘प्रवचन’/’सत्संग’ का प्रायोजित कार्यक्रम दिखाने का सिलसिला जारी था, इसलिए वह खबर दिखाने का सवाल ही नहीं उठता था। तीसरे दिन बाकी अखबारों ने भी लजाते-सकुचाते हुए उस खबर को छापा। नईदुनिया में भी 10-12 लाइनों में वह खबर छपी। टीवी चैनलों ने भी अनावश्यक बेशर्मी का परिचय देते हुए उस खबर को ब्रेकिंग न्यूज के तौर पर दिखाना शुरू कर दिया।

इस सबके बाद आसाराम का जो होना था वह तो हुआ ही, उसकी खबर पर श्रवण गर्ग के भुनभुनाने की वजह का भी जल्द ही पता चल गया। वजह यह थी कि तीन साल तक गांधीनगर/अहमदाबाद में भास्कर समूह के गुजराती अखबार ‘दिव्य भास्कर’ में रहने के दौरान श्रवण गर्ग भी आसाराम के ‘साधक’ बन चुके थे, लिहाजा यौन शोषण से संबंधित आसाराम की खबर से उनकी विकलांग श्रद्धा को भारी ठेस पहुंची थी, जिसके लिए वे मुख्य रूप से मुझे और उस खबर को लिखने वाले रिपोर्टर को जिम्मेदार मानते थे। आसाराम जैसे पाखंडी से श्रवण गर्ग का यह तादात्म्य मेरे लिए नई जानकारी जरूर थी लेकिन इसमें हैरान होने जैसी कोई बात नहीं थी, क्योंकि इंदौर के एक लफड़ेबाज़ कथित राष्ट्रीय संत से श्रवण गर्ग के करीबी संबंधों की जानकारी मुझे पहले से थी।

बहरहाल, उन्होंने कुछ ही दिनों बाद मुझे परेशान करने का सिलसिला शुरू कर दिया। उन्होंने हर मुमकिन कोशिश की कि मैं संस्थान से इस्तीफा दे दूं। अन्य संस्थानों में प्रबंधन से खटपट के चलते अपन पहले भी कुछ नौकरियां छोड़ चुके थे, लेकिन इस बार तय कर लिया था कि मैदान नहीं छोडेंगे और हर तिकड़म याकि कमीनेपन का मुकाबला करेंगे। मुकाबला लंबा चला और आखिरकार मुझे कोर्ट में जाना पड़ा, जहां अभी भी संघर्ष जारी है। मुझे ‘ठिकाने’ लगाने के बाद उस रिपोर्टर को निशाने पर लिया गया। उसे भी तरह-तरह से इतना परेशान किया गया कि उसने खुद ही अपना इस्तीफा प्रबंधन के मुंह पर दे मारा और दूसरे संस्थान में काम शुरू कर दिया। हालांकि इस सबके बाद श्रवण गर्ग भी वहां ज्यादा समय नहीं रह सके और अखबार मालिक ने उन्हें भी बेआबरू कर घर का रास्ता दिखा दिया। अब नरपिशाच आसाराम तो जेल में अपना जीवन बिताना रहा है और उसके ‘साधक’ श्रवण गर्ग इंदौर में अपने घर पर।


अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं 


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