पहला पन्ना: टीके के बाद मुआवज़ा देने के लिए मजबूर केंद्र सरकार 


मुख्य न्यायाधीश की इस बात से साफ है कि बहुमत या निर्वाचित होने का मतलब अत्याचार का अधिकार नहीं है और इसपर नजर रखने वाले की अपनी जरूरत है। शायद, इसीलिए द टेलीग्राफ में सिंगल कॉलम की इस खबर का शीर्षक है, “आवश्यकता है: न्यायपालिका के लिए पूरी आजादी”।


संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
मीडिया Published On :


सुप्रीम कोर्ट के सख्त रुख के बाद टीका नीति बदलने को मजबूर हुई केंद्र सरकार से अब अदालत ने कहा है कि उसे कोविड-19 से मरने वालों को मुआवाजा भी देना होगा। द टेलीग्राफ की खबर के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि केंद्रीय कानून के अनुसार सरकार को मरने वालों के परिवार को एक्स-ग्रेशिया राशि देनी होगी। केंद्र सरकार ने पहले कहा था कि इस तरह के भुगतान जरूरी (बाध्यकारी) नहीं हैं। अदालत ने कोविड से मौत के मामले कम दिखाने की राज्य सरकार की कथित कोशिशों का भी संज्ञान लिया है और मृत्यु प्रमाणपत्रों को भी ठीक करने का आदेश दिया है। मुआवजे की राशि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को तय करनी है। इसके लिए छह हफ्ते का समय दिया गया है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के मुखिया प्रधानमंत्री हैं। आज सभी अखबारों में यह खबर लीड है। लेकिन द टेलीग्राफ ने इसके साथ टीके की कमी की एक खबर छापी है और बताया है कि कई राज्यों में टीके की कमी है।

वैसे तो आज कोविड-19 से मरने वालों को मुआवजा देने के मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश सबसे बड़ी खबर है और सभी अखबारों में उनके अपने अंदाज में शीर्षक है। और सबमें लीड है। ऐसे मामलों में शीर्षक का खेल ज्यादा मायने नहीं रखता है। जनता को यह बताये जाने की जरूरत है कि सरकार अपना काम नहीं कर रही थी और सुप्रीम कोर्ट ने उससे कहा है कि वह अपना काम करे। यह काम अखबारों की खबरों से कम लेख और संपादकीय के अलावा टीवी चैनल की बहस से हो सकता है। पर वह सब होगा नहीं। मेरे पांच अखबारों में अकले इंडियन एक्सप्रेस खबर के साथ उसकी व्याख्या करता है। आज भी इस खबर की व्याख्या यह की गई है कि इसका परिणाम क्या हो सकता है। एक्सप्लेन्डकी मानें तो इस आदेश से परंपरा पड़ सकती है या यह आदेश नजीर हो सकता है। पूरा मामला प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण से संबंधित है इसलिए अखबार ने लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से महामारी से निपटने के लिए इस कानून को लागू करने के तर्क पर भी सवाल उठता है क्योंकि यह प्राकृतिक आपदा से अलग थी जिसके लिए यह कानून बना था। 

मेरा मानना है कि यह सरकार से ऊपर भी कुछ होने का उदाहरण है और सरकार को उसका काम बताया जाना है। सरकार कानून की जिस या जैसी व्याख्या से अपनी जिम्मेदारी या अधिकारों का उपयोग कर रही थी उसमें जनहित कहीं छूट जा रहा है और पहली नजर में लोकप्रियता का दुरुपयोग लगता है। जनहित सर्वोपरि है और इसकी व्यवस्था तो होनी ही चाहिए। इस संबंध में शिकायत की गुंजाइश भी रहनी चाहिए। संयोग से आज मुख्य न्यायाधीश के भाषण का कुछ अंश भी अखबारों में है। मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना बुधवार को पीडी देसाई मेमोरियल लेक्चर में कहा, चुनावों के जरिए सत्ता बदलने का अधिकार “चुने गए लोगों के अत्याचार के खिलाफ गारंटी” नहीं है। इसके साथ ही उन्‍होंने ये भी तर्क दिया कि लोकतंत्र का फायदा तभी होगा, जब इन दोनों की बातें तर्क के साथ सुनी जाएं। इसके साथ ही मुख्य न्यायाधीश ने सोशल मीडिया के प्रभाव और शोर से सावधान रहने की आवश्यकता पर भी जोर दिया। मुझे लगता है कि कल के फैसले के भाषण के साथ यह खबर कम महत्वपूर्ण नहीं है। 

द हिन्दू में यह खबर तीन कॉलम में है। शीर्षक है, चुनाव अत्याचार के खिलाफ कोई गारंटी नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर सिंगल कॉलम में है और शीर्षक है, शासक को बदलने का अधिकार भर होना अत्याचार के खिलाफ कोई बचाव नहीं है। मुख्य न्यायाधीश की इस बात से साफ है कि बहुमत या निर्वाचित होने का मतलब अत्याचार का अधिकार नहीं है और इसपर नजर रखने वाले की अपनी जरूरत है। शायद, इसीलिए द टेलीग्राफ में सिंगल कॉलम की इस खबर का शीर्षक है, “आवश्यकता है: न्यायपालिका के लिए पूरी आजादी”। हिन्दुस्तान टाइम्स में यह खबर अंदर होने की सूचना पहले पन्ने पर विशेष अंदाज में दी गई है। यह मुख्य न्यायाधीश के कोट की तरह उनकी फोटो के साथ प्रमुखता से छपा है। कोट हिन्दी में कुछ इस तरह होगा, “न्यायपालिक सरकार के अधिकार पर नियंत्रण रखे, इसके लिए उसे पूरी आजादी होनी चाहिए। न्यायपालिका को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है वरना देश का कानून भ्रामक हो जाएगा”। टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर दो कॉलम में है, “चुनाव निर्वाचितों के अत्याचार के खिलाफ कोई गारंटी नहीं हैं:सीजेआई”। 

द हिन्दू ने आज पहले पन्ने पर एक और दिलचस्प खबर छापी है। इस खबर का शीर्षक है, “हमले के बाद जम्मू व कश्मीर जिले में ड्रोन और उड़ने वाले खिलौनों पर प्रतिबंध।” आप जानते हैं कि 27 जून को भारतीय वायु सेना के जम्मू एयरबेस पर ड्रोन से हमला किया गया था। वैसे तो इसमें कोई हताहत नहीं हुआ पर जम्मू में हमला हो जाना भारत की सुरक्षा एजेंसियों के लिए ख़तरे की घंटी है। जवाब में सरकार और चाहे जो कर रही हो, खिलौनों पर प्रतिबंध हास्यास्पद है। जम्मू केंद्र सरकार के सीधे नियंत्रण में है और उसपर वायुसेना का अड्डा। दूसरी ओर, बड़ी-बड़ी बातें करने वाली सरकार। कश्मीर की सुरक्षा पहले से टाइट है फिर भी हमला हो गया और अभी तक कोई सुराग नहीं लगा तो खिलौनों पर प्रतिबंध से क्या होगा। लेकिन इसे महसूस करने वाले कितने लोग हैं? और जब खबर ही नहीं छपेगी तो इसकी परवाह किसे रहेगी। देखते रहिए। 

धारा 370 हटाने के बाद दो साल से पुराने पूरे जम्मू और कश्मीर राज्य में जबरदस्त सुरक्षा है और उसके बाद भी हमला हो जाना तथा कोई सुराग नहीं मिलना और अब खिलौनों पर प्रतिबंध लगाना सरकार की कार्यकुशलता और व्यवस्था की पोल खुलना है पर खबर सिर्फ (वैसे यह फॉलो अप है) द हिन्दू में पहले पन्ने पर है। टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर के अनुसार जम्मू में तीसरे दिन रक्षा क्षेत्रों के ऊपर ड्रोन देखे गए। बड़ी-बड़ी बातें करने वाली सरकार कार्रवाई के मामले में कितनी सक्षम है उसका यह सब उदाहरण है। लेकिन अखबार प्रचार और प्रशस्ति से भरे होते हैं। टीके का मामला ऐसा ही है। बहुत ही मजबूरी में काफी देर से सरकार ने टीका लगवाने का फैसला किया और प्रचार व धन्यवाद प्रधानमंत्री जी के विज्ञापनों की बाढ़ आ गई। इस बीच झारखंड में टीका खत्म हो गया और इसकी खबर सिर्फ द टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर पर बंगाल के मामले में खबर की चर्चा कल आपने यहां पढ़ी थी।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

 


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