‘पत्रिका’ के ‘गुलाब’ को आरक्षण में कांटे क्यों दिखते हैं?

मयंक सक्सेना मयंक सक्सेना
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हालांकि ‘पत्रिका’ समूह (पूर्व राजस्थान पत्रिका) के संपादक, गुलाब कोठारी इस बात पर खुश भी हो सकते थे कि अभी तक हिंदी पट्टी में संपादकीय पढ़ा जाता है और वो ऐसे संपादकों की सूची में शामिल हैं। लेकिन दुर्भाग्य से, उनके जिस संपादकीय की देश भर में चर्चा हो रही है – वो किसी अच्छी वजह से नहीं बल्कि आरक्षण और सामाजिक न्याय कि मुख़ालिफ़त करने के लिए चर्चा, बल्कि विवादों के घेरे में है। गुलाब कोठारी – जिनको राजस्थान पत्रिका समूह अख़बार में बाकी सबसे अलग, श्री गुलाब कोठारी लिख कर प्रकाशित करता है, समूह के प्रधान संपादक हैं और उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में हो रही आरक्षण की समीक्षा पर सुनवाई के मामले पर अपनी संपादकीय टिप्पणी में जाति-आधारित आरक्षण को ख़त्म कर डालने की हिमायत कर डाली है।

गुलाब कोठारी के इस संपादकीय के प्रकाशित होते ही, राजस्थान ही नहीं, देश भर के अंबेडकरवादी कार्यकर्ताओं से लेकर आम नागरिकों की ओर से विरोध से स्वर सामने आने लगे। लॉकडाउन के कारण, विरोध का स्थल बन गया सोशल मीडिया और ट्विटर पर #गुलाब_कोठारी_शर्म_करो हैशटैग ट्रेंड करने लगा। तमाम बहुजन कार्यकर्ताओं के अलावा अन्य सोशल एक्टिविस्ट, लेखक और पत्रकार भी इस संपादकीय के ख़िलाफ़ लिखने लगे।

 रात होते-होते, न केवल इस संपादकीय का देश भर में विरोध शुरु हो चुका था। लोगों ने राजस्थान पत्रिका के बहिष्कार की अपील भी शुरु कर दी थी – #BoycottRajasthanPatrika भी ट्रेंड होने लगा था। कई जगह से अख़बार की प्रति जलाए जाने की तस्वीरें, सोशल मीडिया पर अपलोड होने लगी थी।

दरअसल गुलाब कोठारी का ये संपादकीय न केवल, आरक्षण के ख़िलाफ़ है – ये संपादकीय लेख, बेहद सीधे तरीके से कई जगह पुराने वैदिक नियम या समाज की वकालत करते भी दिखाई देता है। इसके हिस्सों को अलग-अलग गंभीरता से विश्लेषित किया जाए तो वे सीधे-सीधे पूरे आधुनिक विमर्श को ही ठोकर मारते नज़र आ जाते हैं। वे संपादकीय की शुरुआत ही पूर्वजन्म के कर्म और उनके फल से करते हैं, जो जाति व्यवस्था और जाति आधारित शोषण को लेकर पुराना ब्राह्मणवादी तर्क रहा है, लेकिन आगे लिखते हुए वे 1990 के आरक्षण विरोधी आंदोलन को युवा क्रांति बता बैठते हैं,

“वैसे भी क्रांति तो युवा के नेतृत्व में ही आती है। उनमें जोश होता है, आंखों में सपने होते हैं, शक्ति का महासागर होता है। 1990 का आरक्षण विरोधी आंदोलन, युवा आंदोलन ही तो था।”

(गुलाब कोठारी के संपादकीय से)

आरक्षण के ख़िलाफ़ सीरियल ऑफेंडर हैं – गुलाब कोठारी

ऐसा भी नहीं है कि गुलाब कोठारी और उनके अख़बार ने पहली बार कुछ ऐसा लिखा-कहा-छापा हो। वे इसके पहले भी जातिगत आरक्षण का विरोध, इस तरह बार-बार करते हैं, जैसे कि कोठारी और उनका अख़बार कोई आरक्षण विरोधी एक्टिविस्ट हो – जिसका एजेंडा ये ही हो कि शोषित-वंचित समाज को आरक्षण मिलना बंद हो जाए। अतीत में चलते हैं –

  • सितंबर, 2015 में महीने के आख़िरी दिन के अपने संपादकीय ‘आरक्षण से अब आज़ाद हो देश’ शीर्षक में भी उन्होंने न केवल आरक्षण के ख़िलाफ़ लेख लिखा था, बल्कि वर्णाश्रम और मनुवादी सामाजिक व्यवस्था की वकालत भी की थी।
  • जनवरी, 2018 में उन्होंने ‘हिंदू एकीकरण’ शीर्षक से संपादकीय लिखा, जिसमें एक बार फिर हिंदू समाज और उसके अंदर की फूट के लिए जाति व्यवस्था की जगह आरक्षण को दोषी ठहराया। इस लेख में उन्होंने मोहन भागवत की आरक्षण ख़त्म करने वाली सलाह का समर्थन भी कर डाला था। ये अलग बात है कि भागवत, अपने बयान से बाद में पीछे हट गए थे।
  • अक्टूबर, 2018 में पत्रिका समूह ने आरक्षण पर बाक़ायदा एक सर्वे करा के छापा, जिसके मुताबिक – आरक्षण से सामाजिक वैमनस्य बढ़ा है। ज़ाहिर है इस पर भी गुलाब कोठारी की प्रतिक्रिया वही थी, जो लगातार आरक्षण को लेकर रही है।
  •  25 मई, 2019 को नरेंद्र मोदी के दोबारा पीएम बनने पर, गुलाब कोठारी को संपादकीय के तौर पर लिखा गया खुला पत्र, पढ़ने लायक है कि उसमें किस तरह से पौराणिक युग के लौट आने जैसी खुशी और कामना ज़ाहिर की गई थी।

ये अज्ञानता या भूलवश लिखा गया संपादकीय नहीं है

और अब इस नए संपादकीय में वे लिखते हैं, “पिछले 7 दशकों में आरक्षण का घुण, देश की संस्कृति, समृद्धि, अभ्युदय सबको खा गया। शिक्षा नौकर पैदा कर रही है। खेती, पशु-पालन, पुश्तैनी कार्य छूटते जा रहे हैं।” ज़ाहिर है कि उनका सीधा इशारा ही ये है कि दलित-वंचित और पिछड़े समुदाय चूंकि सरकारी नौकरियों में जा रहे हैं। इसलिए खेती, पशुपालन और पुश्तैनी कार्य (जिसका आशय शायद वो लिखना नहीं चाहते थे) ठीक से नहीं हो पा रहे हैं। ज़ाहिर है कि इस पूरे वक्तव्य में ही सवर्ण सामंती पीड़ा है, जिसको वो चाह कर भी सीधे ज़ाहिर नहीं कर पा रहे हैं।

इसके आगे वे और दो कदम आगे जाते हैं और सीधे-सीधे हिंदू दक्षिणपंथियों का पोंगावादी एजेंडा सामने ले आते हैं। वे लिव-इन की मुख़ालिफ़त तो करते हैं, लेकिन किसी तार्किक या मनोवैज्ञानिक आधार पर नहीं, बल्कि धार्मिक संस्कृति के आधार पर। वे अप्रत्यक्ष रूप से चाहते हैं कि लिव-इन की वैधानिक मान्यता ही ख़त्म कर दी जाए, बुद्धिजीवियों को नीतियां बनाने के काम से हटा दिया जाए, “बुद्धिजीवी नीति बनाते हैं, माटी से इनका जुड़ाव नहीं, संवेदना इनके पाठ्यक्रम में नहीं। वे आंकड़ों में जीते हैं, शरीर प्रज्ञा से अविज्ञ होते हैं। भारत जैसे देश में लिव-इन को क़ानूनी मान्यता क्या विवेकशीलता है?”

वो ये ही भूल जाते हैं कि वे आरक्षण के खिलाफ़ लिख रहे हैं और इसका लिव-इन से या लिव-इन का आरक्षण से कोई रिश्ता ही नहीं है। इस संपादकीय के और अधिक हिस्सों पर हम आगे भी बात करते रहेंगे। फिलहाल देश भर में इसको लेकर आक्रोश है, बहुजन समाज के साथ मानवाधिकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं में भी इस पर काफी गुस्सा है। हालांकि माफ़ी तो इसके पहले भी गुलाब कोठारी ने नहीं मांगी, लेकिन इस बहाने जाति आधारित शोषण पर विमर्श फिर से तेज़ हुआ है और ये समाज को बदलने के लिए ज़रूरी भी है। लेकिन सवाल गुलाब कोठारी से है, कि संपादक के तौर पर उनको अभी आरक्षण की चिंता है या उनकी चिंता उन सवालों को लेकर होनी चाहिए, जो सरकार से पूछे जाने हैं, मगर पूछे नहीं जा रहे…ज़ाहिर है हमारी प्राथमिकताएं ही हमारी पहचान हैं।


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