प्रतिरोध का सिनेमा: किसान संघर्ष को समर्पित 12वाँ पटना फ़िल्मोत्सव शुरू


उद्धाटन करते हुए वरिष्ठ कवि अरुण कमल ने कहा कि “सिनेमा ने शुरू से ही गरीबों और संघर्ष करने वालों का साथ दिया। चाहे चार्ली चैप्लिन हों, बाइसिकिल थीफ हो, कुरोसावा की फिल्में हों या सत्यजीत राय, विमल राय, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन और श्याम बेनेगल हों, इन सबने उन दृश्यों को हमारे सामने लाया जो अब तक बाहर थे। लेकिन आज हम अपनी सिनेमा की दुनिया को देखते हैं तो एक सेंसर बोर्ड भी है, जो सबकुछ को सेंसर करता है, लेकिन हिंसा, झूठ और लोगों को दिमागी गुलामी में ले जाने वाले फंदे को सेंसर नहीं करता।”


विशद कुमार विशद कुमार
मीडिया Published On :


12वां पटना फिल्मोत्सव- ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ आज पटना में शूरू हो गया। किसान आंदोलनों की पृष्ठभूमि में हो रहे इस तीन दिवसीय फिल्मोत्सव का उद्घाटन करते हुए वरिष्ठ कवि अरुण कमल ने यह कहा कि “सिनेमा ने शुरू से ही गरीबों और संघर्ष करने वालों का साथ दिया। चाहे चार्ली चैप्लिन हों, बाइसिकिल थीफ हो, कुरोसावा की फिल्में हों या सत्यजीत राय, विमल राय, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन और श्याम बेनेगल हों, इन सबने उन दृश्यों को हमारे सामने लाया जो अब तक बाहर थे। लेकिन आज हम अपनी सिनेमा की दुनिया को देखते हैं तो एक सेंसर बोर्ड भी है, जो सबकुछ को सेंसर करता है, लेकिन हिंसा, झूठ और लोगों को दिमागी गुलामी में ले जाने वाले फंदे को सेंसर नहीं करता।”

अरुण कमल ने कहा कि “सारा मारधाड़ का कारोबार सिनेमा के नाम पर चलता है। ग्लैमर, मारधाड़, हिंसा और अश्लीलता पूंजीवाद के हक में जाते हैं इसीलिए पूंजीवाद इन सबको अपने खेलों और सिनेमा के जरिये बरकरार रखता है। जब कभी सत्ताधारियों पर संकट आता है तो वे तुरत क्रिकेट खेलने वालों और सिनेमा में काम करने वालों को बुलाते हैं और अपने पक्ष में बयान दिलवाते हैं।”

अरुण कमल ने आगे कहा कि ‘‘हमारे किसान भीषण ठंढ में डेरा डाले हुए हैं और अब तो शायद भयानक गर्मी में भी डेरा डाले रहेंगे। यह एक ऐसी लड़ाई है, जिसके अंत का कुछ पता नहीं। जब इकबाल ने कहा था- जिस खेत से दहकां को मयस्सर नहीं रोजी, उस खेत के हर खोशा-ए-गंदुम को जला दो, तब कोई यह नहीं सोचता था कि एक दिन ऐसा आएगा जब अनाज पैदा करने वाले इस बात के लिए लड़ेंगे कि उनको अनाज पैदा करने दिया जाए। जब निराला किसानों, सभी मजलूमों और दलितों का आह्वान कर रहे थे कि आओ, आओ, जल्दी जल्दी पैर बढ़ाओ… और एक टाट बिछाओ… और सब एक पाठ पढ़ेंगे और तब अंधेरे का ताला खोलेंगे, तब कोई यह नहीं सोचता था कि सचमुच एक ऐसा दिन आएगा। अंधेरे की चाभी खोलने के लिए हमें चाभी भी अंधेरे में ही मिलेगी। जो सत्ताधारी हैं वे तालें लगाते हैं या ताले तोड़ते हैं, ताकि लूटा जा सके और हमलोग, किसान, मजदूर, दलित- निराला के शब्दों में, अंधेरे के ताले को खोलते हैं।’’

उन्होंने कहा कि ‘‘आज हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जहां बोलने, अपनी बात कहने और करोड़ों लोगों तक एक साथ पहुंचने की सुविधा उपलब्ध है। लेकिन साथ ही यह भी सही है कि जितनी पाबंदी अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने पर आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी। दुनिया की सारी दीवारें हवा की इन दीवारों के सामने तुच्छ हो गई हैं। अब पलक झपकते हमारी बात को रोका जा सकता है, पलक झपकते किसी भी बोलने वाले को खींचकर जेल में डाला जा सकता है। ये हालत पूरी दुनिया में है। ऐसे में प्रतिरोध का सिनेमा जैसे समारोह ऐसे अवसरों को ढूंढ निकालने का एक क्षण है, जहां हम इकट्ठा होकर उन दृश्यों और फिल्मों को देख सकें जो आम तौर पर उपलब्ध नहीं होतीं।’’

अरुण कमल ने कहा कि ‘‘प्रतिरोध का सिनेमा का एक विशेष अर्थ है। यह सत्ताधारियों के प्रतिरोध का, दमन और शोषण के प्रतिरोध का सिनेमा है। यह केवल प्रतिरोध का भी नहीं, यह एक नए विकल्प की तलाश का सिनेमा है, जो हॉलीवुड की या बंबइया फिल्में हैं, वे हमारे सोचने और सवाल उठाने की ताकत को कुंद करती हैं। प्रतिरोध का सिनेमा के अंतर्गत जो फिल्में हमने देखी हैं, उससे हम अपने लोगों के साथ, सताए हुए लोगों के साथ और प्रकृति के साथ एक गहरे प्रेम का अनुभव करते हैं। सिनेमा एक अद्भुत कला-माध्यम है, शायद इतना विशद, इतना संशलिष्ट और लोगों तक तेजी से पहुंचने वाला, असर करने वाला दूसरा कोई कला-माध्यम नहीं है। ऐसे कला-माध्यम की पवित्रता और उसकी नैसर्गिक प्रतिबद्धता को बचाए रखना बेहद जरूरी है। आज यह हमारा दायित्व है कि इस कला-माध्यम को भी बचाएं। प्रतिरोध का सिनेमा इसलिए भी जरूरी है कि वह सिनेमा को व्यवसायीकरण से, प्रदूषण से और सत्ता की मार से बचाए। जब धर्म, जाति, क्षेत्र और संप्रदाय के नाम पर भयानक हिंसा हमारे देश में चारों तरफ फैली हुई है, तब प्रतिरोध का सिनेमा हमें आश्वासन देता है कि हम एक साथ मिलकर इसका मुकाबला कर सकते हैं।’’

अरुण कमल ने कहा कि ‘‘हारने में कोई अप्रतिष्ठा या बेइज्जती नहीं है, बेइज्जती है गलत करके जीतने में। गलत करके जीतना मनुष्यता का अपमान है। जो ईश्वर में विश्वास करते हैं उनके लिए भी दैवीय नियमों का उल्लघंन है कि आप दूसरों को सताएं, हिंसा करें। प्रतिरोध का सिनेमा इसलिए भी जरूरी है कि वह बार-बार हमें याद दिलाता है कि हम मनुष्य हैं और इसीलिए हम सब एक हैं।’’

अपनी बीमारी के कारण समारोह में प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित न होने की चर्चा करते हुए उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि “उन्हें लगता है कि जो लोग नजरबंद होते हैं उनको कैसा लगता होगा। यह भी लगता है कि क्या हमारा पूरा देश एक दिन नजरबंद हो जाएगा?” लेकिन उन्होंने उम्मीद जाहिर की, कि “प्रतिरोध का सिनेमा तब भी होगा। अंधेरा होगा, पर अंधेरे के गीत भी होंगे। प्रतिरोध का सिनेमा भी अंधेरे का वह गीत ही है।”

बताते चलें कि पटना फिल्मोत्सव के उद्घाटन वक्तव्य के पूर्व हिरावल के कलाकारों द्वारा मशहूर शायर फैज की नज्म ‘इंतेसाब’ के गायन से शुरू हुई। अवसर पर फिल्मोत्सव की स्मारिका का लोकार्पण भी हुआ। फैज की नज्म ‘इंतेसाब’ से ‘बादशाह-ए-जहां…दहकां के नाम’ को 12वें फिल्मोत्सव का थीम बनाया गया है।

अवसर पर सामाजिक कार्यकर्ता गालिब खान ने फिल्मोत्सव स्वागत समिति के अध्यक्ष के बतौर उपस्थित दर्शकों का स्वागत किया। उन्होंने शायर इकबाल के हवाले से कहा कि “उठो मेरे दुनिया के गरीबों को जगा दो/ काख-ए-उमरा के दर ओ दीवार को हिला दो/ जिस खेत से दहकां को मयस्सर नहीं रोजी/ उस खेत के हर खोशा-ए-गंदुम को जला दो।” उन्होंने फिल्मोत्सव को एक वैकल्पिक हस्तक्षेप बताया।

इस 12 वें पटना फिल्मोत्सव के उद्घाटन सत्र का संचालन करते हुए जन संस्कृति मंच के राज्य सचिव सुधीर सुमन ने कहा कि “कोविड महामारी और उसकी आड़ में सत्ता जिस तरह सामूहिकता को नष्ट कर रही है, उसके प्रतिवाद की एक कोशिश है पटना फिल्मोत्सव। पिछले ग्यारह वर्षों में पटना फिल्मोत्सव में कॉरपोरेट पूंजी और भारत की सरकारों के गठजोड़ द्वारा आदिवासियों और किसानों को जल, जंगल, जमीन पर उनके अधिकार से वंचित किए जाने के खिलाफ लगातार फिल्में दिखाई है, श्रमिकों को उनके अधिकारों से वंचित किए जाने के प्रतिरोध में बनाई गई फिल्में प्रदर्शित की।”

सुधीर सुमन ने कहा कि “आज जब हमारा देश एक ऐतिहासिक किसान आंदोलन और सरकार की अभूतपूर्व संवेदनहीनता के दौर से गुजर रहा है, तब कला के सारे औजारों को लेकर उनके पक्ष में खड़ा होने की जरूरत पिछले किसी दौर से अधिक है। फिल्मोत्सव का उद्घाटन ‘दो बीघा जमीन’ से हो रहा है, जो चैहत्तर साल पहले बनी थी, पर आज भी प्रासंगिक है। पूंजीवाद आज और अधिक निर्मम हुआ है और जमींदार की जगह सरकार ने ले ली है। ऐसे में फिल्मकारों, कलाकारों, साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों का दायित्व बढ़ गया है। खेती को बचाना सिर्फ किसान को ही बचाना नहीं है, बल्कि उन सबको बचाना है जिसे किसान की मेहनत से जीवन मिलता है, रोटी मिलती है, भूख मिटती है।”

स्वतंत्रता सेनानी रमाकांत द्विवेदी ‘रमता’ के हवाले से उन्होंने कहा कि “रोटी बढ़कर स्वर्गलोक से, रोटी जीवन प्राण/ रोटी से बढ़कर ना कोई देव-दनुज-भगवान/ सो रोटी उपजे खेती से, खेती करे किसान/ जो किसान का साथ निबाहे, सो सच्चा इंसान।”

उद्घाटन सत्र में ही गालिब खान, कथाकार अवधेश प्रीत, प्रो. भारती एस. कुमार, प्रो. संतोष कुमार, मधुबाला, रंजीव, सुमंत शरण और फिल्मोत्सव की संयोजक प्रीति प्रभा ने फिल्मोत्सव की स्मारिका का लोकार्पण किया। इस अवसर पर कालिदास रंगालय के प्रांगण में एक बुक स्टाॅल भी लगाया गया है।

‘दो बीघा जमीन’ से फिल्मोत्सव की शुरुआत

इस 12वें पटना फिल्मोत्सव का पर्दा विमल राय की बहुचर्चित फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ से उठा। यह फिल्म एक रिक्शाचालक के रूप में महान अभिनेता बलराज साहनी के जबर्दस्त यथार्थपरक अभिनय के लिए जानी जाती है। सलिल चैधरी द्वारा संगीतबद्ध इसके गीत अत्यंत लोकप्रिय रहे हैं। पूंजीवादी शक्तियां किस तरह सामंती शक्तियों के साथ मिलकर छोटे किसान को उनकी जमीन और गांव से उन्हें विस्थापित करती हैं और महानगर पहुंचकर वे किन जानलेवा त्रासदियों का शिकार बनते हैं, इस फिल्म का यही कथ्य है।

1953 में निर्मित इस फिल्म में बलराज साहनी ने एक सीधे-साधे किसान शंभू महतो की भूमिका की है, जिसकी दो बीघे जमीन पर जमींदार ठाकुर हरनाम सिंह की नजर है। वह शहर के एक कारोबारी के साथ मिलकर गांव में मिल लगाना चाहता है, जिसके लिए उसे शंभू महतो के जमीन की जरूरत है। शंभू उसे बेचना नहीं चाहता, पर अकाल के दौरान दिए गए कर्ज की आड़ में जमींदार उस पर कब्जा कर लेना चाहता है। शंभू कोर्ट में भी जाता है, लेकिन अदालत जमींदार के पक्ष में फैसला सुनाता है। तीन महीने में उसे 235 रुपये चुकाना है, वर्ना उसका घर और उसकी जमीन नीलाम हो जाने की नौबत है। तब वह कर्ज चुकाने के लिए मजदूरी करने कलकत्ता जाता है। उसके साथ उसका बेटा कन्हैया भी ट्रेन में छुपकर कलकत्ता जाता है।

कर्ज चुकाने के दिन जैसे-जैसे करीब आते जाते हैं, शंभू ज्यादा कमाई के लिए तेजी से रिक्शा खींचता है। इसी में एक दिन रिक्शे का पहिया निकल जाता है। शंभू दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है। कन्हैया पिता की हालत देखकर चोरी करने लगता है। इसी बीच शंभू की पत्नी अपने पति और बेटे को खोजते हुए कलकत्ता पहुंच जाती है, जहां कार से उसकी दुर्घटना हो जाती है। शंभू के सारे पैसे उसके इलाज में खर्च हो जाते हैं। आखिरकार जमीन की नीलामी हो जाती है और मिल चालू हो जाता है। शंभू अपने परिवार के साथ अपनी जमीन देखने गांव आता है और वहां कारखाना देखकर बहुत दुखी होता है। वह मुट्ठी भर गंदगी कारखाने की ओर फेंकता है। सुरक्षाकर्मी उसे बाहर निकाल देते हैं। फिल्म यहीं खत्म हो जाती है।

आज के समय में कॉरपोरेट कंपनियां जिस तरह जबरन किसानों को उनको जमीन से बेदखल कर रही हैं और सरकारें तथा उनके अंधभक्त जिस तरह किसानों को विस्थापित करने के अभियान में लगे हैं, उसे देखते हुए किसानों पर केंद्रित इस फिल्मोत्सव की शुरुआत के लिए ‘दो बीघा जमीन’ एक अत्यंत प्रासंगिक फिल्म लगी।

कुंभ : दी अदर स्टोरी

2020 में पवन श्रीवास्तव द्वारा बनाई गई डाक्यूमेंट्री ने अर्धकुंभ के शर्मनाक राजनैतिक उपयोग के यथार्थ को दर्शाया। अपनी फिल्म के बारे में भेजे गए वीडियो संदेश में पवन श्रीवास्तव ने बताया कि अर्द्धकुंभ का बजट तीनगुना कर दिया गया था, पर उसकी तैयारी में लगे श्रमिकों को उनका हक नहीं दिया गया। उन्होंने अपना उचित मेहनताना मांगा तो उन पर दमन ढाया गया। यहां तक कि श्रद्धालुओं के साथ भी छल किया गया। उनके लिए भी बुनियादी सुविधाएं नहीं थीं। अर्द्धकुंभ को पूरी तरह भाजपा के राजनैतिक प्रचार का अवसर बना दिया गया था। वहां मोदी के बड़े-बड़े कट आउट और बैनर लगे हुए थे। मौजूदा सरकार किस तरह लोगों की धार्मिक और भक्ति भावना का राजनैतिक दोहन करती है, किस तरह बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार को प्रश्रय दिया जाता है, उसी यथार्थ को इस डाक्यूमेंट्री में दर्शाया गया था।

कल के आकर्षण

मालूम हो कि 12 वें पटना फिल्मोत्सव के दूसरे दिन की शुरुआत दोपहर बाद 2 बजे से होगी। पहली फिल्म ‘द बैटल ऑफ भीमा कोरेगांव’ है। कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और एक्टिविस्टों को भाजपा की सरकार ने जबसे जेल में डाल दिया है, तब से भीमा कोरेगांव चर्चा में है। इसके संघर्ष के इतिहास और वर्तमान से कल दर्शक रूबरू होंगे। दूसरी फिल्म ‘ लूटिंग फार्मर्स एट द मंडी’ प्राइवेट मंडियों द्वारा किसानों के निर्मम शोषण के यथार्थ को दर्शाएगा। कम अवधि वाली इस फिल्म को देखकर समझा जा सकता है कि क्यों किसान एमएसपी की मांग कर रहे हैं। उसके बाद बच्चों की फिल्मों और नए फिल्मकारों की फिल्मों का सत्र होगा, जिसमें सम किड्स एंड मेनी ऑफ चिल्ड्रेन, एनफैन्सी ऑफ स्कारसिटी और द इंडिपेंडेन्ट इम्पेयर्ड नामक फिल्में दिखाई जाएंगी।

राम डाल्टन की फिल्म ‘दी स्प्रिंग थंडर’ भी कल का आकर्षण होगी। कल ही एकतारा कलेक्टिव की ‘होटल राहगीर’ और अमुधन आर पी की फिल्म ‘माई कास्ट’ भी दिखाई जाएगी।