लोकसभा चुनाव में लेखक संगठन प्रलेस, जलेस, जसम और दलेस की मतदाताओं से संयुक्‍त अपील



एक बार फिर आम चुनाव सामने हैं।

और ठीक पांच साल पहले जिन हाथों में केंद्र की सत्ता सौंपी गयी थी, उनकी जनविरोधी कारगुज़ारियाँ भी हमारे सामने हैं।

ये पांच साल इस देश के इतिहास में एक दु:स्वप्न की तरह याद किये जायेंगे। इन सालों में आरएसएस की विचारधारा वाले शासकों ने हिटलर और मुसोलिनी के नक़्शे-क़दम पर चलते हुए मुल्क को नफ़रत की आग में झोंक दिया। तर्क-विवेक की बात करने वाले लेखकों-कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुईं, उन्हें झूठे मामलों में फंसाकर जेलों में बंद किया गया, उनका लिखना-बोलना बंद कराने की कोशिशें हुईं। कभी गोकशी तो कभी धर्म-परिवर्तन के नाम पर मुसलमानों पर जानलेवा हमले हुए; अखलाक़ से लेकर पहलू खान तक, न जाने कितने बेगुनाह नागरिकों को तथाकथित गोरक्षकों ने मौत के घाट उतार दिया। गोरक्षा के बहाने दलितों और आदिवासियों को भी हिंसा का निशाना बनाया गया। इन सब मामलों में आरएसएस की विचारधारा पर चलने वाली केंद्र और राज्य की सरकारों ने कहीं अपनी चुप्पियों से और कहीं बज़रिये पुलिस-प्रशासन, कहीं नौकरियाँ देकर और कहीं सम्मानित करके, जिस तरह संघी हत्यारों का साथ दिया, वह इस देश के अमनपसंद लोग कभी भूल नहीं सकते। वे कभी नहीं भूल सकते कि सत्ता पर क़ब्ज़ा जमाकर आरएसएस ने देश के नागरिकों की निजी पसंद को भी, वह भोजन से सम्बंधित हो या जीवनसाथी के चुनाव से, अपने दकियानूस ख़यालात की बेड़ियों में जकड़ने की मुहिम छेड़ दी।

इन पांच सालों में जनसंचार माध्यमों की आज़ादी का गला घोंट दिया गया, उन्हें हिन्दुत्ववादी विचारधारा का भोंपू बना दिया गया। तमाम टीवी चैनलों को साम-दाम-दंड-भेद के बल पर रात-दिन सांप्रदायिक नफ़रत, अंधविश्वास, अज्ञान बढ़ाने वाले कार्यक्रम प्रसारित करने के लिए मजबूर किया गया। जो पत्रकार अपना ईमान और अपनी आत्मा नहीं बेच पाये, उन्हें चैनलों से हटवा दिया गया ताकि सरकार के झूठे प्रचार की असलियत सामने न आ पाये।

इस मनुवादी मोदी सरकार ने शिक्षा, संस्कृति, स्वास्थ्य संबंधी योजनाओं और ग़रीबों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, महिलाओं, बच्चों के कल्याण से संबंधित योजनाओं के बजट में कटौती की। नवउदारवादी नीतियों को पूरी बर्बरता से लागू किया गया। मज़दूरों के अधिकारों को छीनने के लिए श्रमक़ानूनों में संशोधन किये गए। देश के तमाम शिक्षण संस्थानों को बरबाद करने के एक के बाद एक क़दम उठाये गए । स्थायी नौकरियों के लाखों खाली पदों को भरा नहीं गया। हर जगह ठेकेदारी से काम कराने की प्रथा को बढ़ावा देकर अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों को संविधान-प्रदत्त आरक्षण की सुविधा से वंचित कर दिया गया। यों तो नोटबंदी, जीएसटी, पेट्रोलियम पदार्थों व गैस आदि के दामों में लगातार बढ़ोतरी से देश के मध्यवर्ग से लेकर तमाम आमजनों को इस सरकार ने नकारात्मक रूप में प्रभावित किया, लेकिन इसकी नीतियों का सबसे बुरा असर किसानों, मज़दूरों, दलितों और आदिवासियों की ज़िंदगी पर पड़ा। अर्थव्यवस्था चौपट हो गयी। सिर्फ़ दो सौ कॉर्पोरेट घरानों और बहुराष्ट्रीय निगमों की आमदनी दिन दूनी रात चौगुनी हुई। विदेशों से काला धन लाने के वायदे तो क्या पूरे होते, उलटे बैंकों पर अरबों रुपयों का क़र्ज़ लादकर कई व्यापारी-उद्योगपति देश से भागने में कामयाब हुए। इस पांच सालों में विदेशी क़र्ज़ सत्तर साल के आज़ाद भारत के इतिहास में अधिकतम होकर 529.7 बिलियन डॉलर हो गया। साथ ही, बैंकों से लिए गए अरबों की वसूली तो दूर, उनमें भी भारी इज़ाफ़ा हुआ। इधर बेरोजगारी का आलम यह कि पिछले 45 बरसों में वह इतनी कभी नहीं बढ़ी। यह है विकास की असलियत!

देश की बरबादी की मुख्य वजह है, हर स्तर पर लोकतंत्र की हत्या। इस फ़ासीवादी सरकार ने सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं की कमर तोड़ दी और उन्हें अपना पिछलग्गू बना लिया। इससे न न्यायपालिका बची है, न कार्यपालिका, यहाँ तक कि सेना का भी राजनीतीकरण करने की बेशर्म कोशिशें जारी हैं। और इसका कारण है कि सारी सत्ता एक व्यक्ति के हाथ में केन्द्रित हो गयी है। इस व्यक्ति के मुंह से निकलने वाले सारे दावे झूठे होते हैं और जो भी उस झूठ का भंडाफोड़ करता है, वह या तो मारा जाता है, या उसे बेरोज़गार-बेसहारा बनाने की कोशिश में पूरा तंत्र लग जाता है।

अब समय आ गया है कि हम सब मिलकर 2019 के आम चुनाव में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की बहाली को सुनिश्चित करें। हमारी अपील है कि बाबा साहब आंबेडकर द्वारा तैयार किया गया संविधान—जो इस देश में समानता, जनतंत्र और धर्म-निरपेक्षता के साथ विचारों की स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के सिद्धांतों को सुरक्षा प्रदान करता है—उसके प्रति लोगों की जागरूकता बढ़ायें। आज यह संविधान ही ख़तरे में है। आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों ने कभी भी उसे स्वीकार नहीं किया। उनका मक़सद तो समाज पर एक बार फिर मनुस्मृति को ही थोपना है और पिछले पांच वर्षों की उनकी कारगुज़ारियाँ इसी दिशा में अग्रसर रही हैं। आपका मताधिकार और आपके प्रयास इन ताक़तों को रोकने के काम आने चाहिए।

आइये, इस कॉर्पोरेट-परस्त साम्प्रदायिक-फ़ासीवादी सरकार को दुबारा सत्ता में आने से रोकने के लिए वोट करें!

बहुत हो गया जुल्म और अत्याचार

नहीं चाहिए ज़ालिम मोदी सरकार

निवेदक

जनवादी लेखक संघ | जन संस्कृति मंच | प्रगतिशील लेखक संघ | दलित लेखक संघ


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