ग्राउंड रिपोर्ट : जयपुर के चूड़ी उद्योग में झुलसते गया के मुसहर बच्चे और मांझी नेताओं का मौन



मांझी बहुल गया में बाल मजदूरी पर बात करने वाले लोग ही नहीं मिलते. चुनाव का मसला सिर्फ इतना है कि मांझी किसको वोट देंगे. जीतन राम को या विजय मांझी को



पुष्यमित्र


उस रोज मैं गया शहर में था. गया में पहले चरण में ही वोट पड़ने हैं, 11 अप्रैल को. मगर शहर में कहीं चुनावी शोर-शराबा नजर नहीं आया, कहीं पोस्टर बैनर भी नहीं दिखे, जबकि यह एक हाई प्रोफाइल सीट है. यहां से पूर्व मुख्यमंत्री और हम पार्टी के अध्यक्ष जीतन राम मांझी मैदान में हैं. उनके सामने एनडीए के उम्मीदवार विजय मांझी हैं, जो उनके सजातीय हैं और अपनी जाति में ठीक-ठाक दखल रखते हैं. जीतन राम की उम्मीदवारी के बावजूद शहर में कहीं चुनावी हलचल नजर नहीं आयी. इस चुनाव की यह एक बात अबूझ है. सोशल मीडिया पर खूब बहसें हैं, टीवी चैनलों पर हाथापाई हो रही है मगर ग्राउंड पर सन्नाटा है.

बहरहाल, शहर में घुसते ही एक खबर मिली कि तीन-चार दिन पहले शेरघाटी प्रखंड के एक गांव में दो महिलाओं ने मिलकर दो बच्चों को बाल मजदूरी का शिकार बनने से रोक दिया है. यह मामला समोद बिगहा गांव का था, जहां कुछ लोग होटल में काम करवाने के लिए बच्चों को ले जाने आये थे. बच्चों के मां-बाप से सौदा भी पक्का हो गया था, मगर स्वयं सहायता समूह से जुड़ी इन महिलाओं को जब पता चला कि आठ-दस साल के बच्चों को होटल में काम करने भेजा जा रहा है तो उन्होंने विरोध किया और पुलिस को सूचित कर दिया. इस तरह ये बाल मजदूरी का शिकार होने से बच गये. इस बात ने मुझे बहुत प्रभावित किया और मैं शेरघाटी प्रखंड की तरफ निकल पड़ा.

उस रोज मौसम का सबसे गर्म दिन था, बाद में कहीं पढ़ा कि तापमान 39 डिग्री तक चला गया था. गया की सड़कें खूब तप रही थीं. यात्रा में हमारे साथ बाल मजदूरी पर काम करने वाले एक स्थानीय स्वयंसेवी भी थे. वे बता रहे थे कि गया में मुसहरों की बड़ी आबादी है और हर पांच मुसहर परिवार में से दो में आपको बाल मजदूर मिल जायेंगे. उन्होंने मुझे आंकड़ा देते हुए बताया कि पिछले कुछ साल में यहां के 980 बच्चों को बाल मजदूरी से बचाया गया है, इनमें से 90 फीसदी बच्चे संयोगवश मुसहर हैं. भीषण गरीबी और अशिक्षा की वजह से 10-11 साल का होते ही ये लोग अपने बच्चों को काम करने के लिए बाहर भेज देते हैं. पिछले कुछ साल से यहां के बच्चे जयपुर जा रहे हैं, जहां चूड़ी कारखानों में इनसे सितारा बिठाने का काम लिया जाता है. वहां इन बच्चों की काफी दुर्गति होती है. कुछ दिनों पहले हुए सर्वे में पता चला कि जयपुर में बिहार के डेढ़ लाख से अधिक बच्चे काम करते हैं, इनमें गया के बच्चे सर्वाधिक हैं.

उनकी बात सुनते हुए मैं सोचने लगा कि इस चुनाव में जब यहां मुसहर जाति के दो बड़े नेता आमने-सामने हैं और पिछले कुछ समय से इसी जाति के नेता यहां का प्रतिनिधित्व भी करते रहे हैं, तो क्या ये लोग अपनी जाति के इस भीषण संकट के बारे में सोचते हैं? क्या इस बार मुसहर जाति के बीच बाल मजदूरी का मुद्दा इस चुनाव को प्रभावित करेगा?

समोद बिगहा पहुंचे तो सबसे पहले उन दो बच्चों से मुलाकात हुई जो 2014 में जयपुर के चूड़ी कारखाने से छुड़ा कर लाये गये थे. उनमें से एक बच्चे के शरीर में आज भी उस कारखाने में काम करने के निशान थे. उसने बताया कि एक बंद कमरे में उनसे यह काम कराया जाता था. वह जो चमकीला पदार्थ चूड़ियों पर उनसे चिपकवाया जाता है, वह उस बंद कमरे में उड़ता रहता था. सांस लेने पर वह भीतर भी चला जाता था. वह इस वजह से काफी बीमार हो गया था. ऐसा लगने लगा था कि उसकी छाती में कुछ जम गया हो, खांसी आती थी और सांस लेने में तकलीफ होती थी.

वहां सुबह नौ बजे से रात के बारह बजे तक उनसे काम कराया जाता था. ठीक से खाने को भी नहीं देते और कोई काम करते-करते थक जाता और हाथ रुक जाता तो मारपीट की जाती. ऐसे में उनके साथ वहां गये सभी बच्चे परेशान थे. उनके बीच का एक बच्चा वहां से किसी तरह भाग निकला और उसने पुलिस को शिकायत कर दी, जिसकी वजह से उन सभी लोगों को छुटकारा मिला. फिर जयपुर में ही सरकार द्वारा उसका एक महीने तक इलाज करवाया गया. थोड़ा आराम हुआ मगर तकलीफ बनी रही. आज भी उसकी तबीयत अक्सर खराब रहती है. उसके शरीर में क्या-क्या होता है, उसे पता नहीं चलता.

वहां मौजूद दो-तीन और बच्चों ने हमें वह सब बताया जो उन्होंने जयपुर में चूड़ी फैक्ट्री में काम करते हुए भुगता था. बाद में हम शेरघाटी और डोभी प्रखंड के कई गांवों में गये, जहां हमें जयपुर से भाग कर आये या छुड़ा कर लाये गये बच्चे मिले. चीलिंग गांव में एक ऐसे बच्चे के बारे में पता चला जिसकी गरदन सीधी होकर अकड़ गयी थी, वह उसे घुमा नहीं पाता था. उसकी मां ने बताया कि बच्चे से 18-18 घंटे काम कराया जाता था. एक बार काम करते-करते वह झुकने लगा तो मालिक ने उसके गरदन पर जोरदार प्रहार कर दिया. उसी वजह से उसकी गरदन अकड़ गयी. लगातार बैठे रहने से एक बच्चे के पांव अकड़ गये थे. दुखद तथ्य यह था कि ये तमाम बच्चे मांझी समुदाय से आते हैं. उसी मांझी समुदाय से जिसके दो नेता गया में इस बार आमने सामने हैं. ये लोग अपने समुदाय को उस विभीषिका से मुक्त कराने के बारे में क्यों नहीं सोचते?

सिर्फ गया में ही नहीं, पूरे बिहार में यह गरीब मुसहर समुदाय बाल मजदूरी के लिए सबसे आसान टारगेट है. राज्य में 2011 की जनगणना के मुताबिक 11 लाख बाल मजदूर हैं. इनमें मांझी समुदाय के बच्चे सर्वाधिक हैं, मगर इस चुनाव में बाल मजदूरी कहीं कोई मुद्दा नहीं है. संभवतः इसलिए भी कि बच्चे वोटर नहीं होते और उनके मां-बाप जो वोटर हैं, बाल मजदूरी के लाभार्थी हैं. इसी वजह से इस समुदाय का जीतन राम मांझी जैसा नेता जो मुख्‍यमंत्री रह चुका है, कभी बाल मजदूरी पर सवाल नहीं उठाता. अपने समुदाय को समझाता नहीं कि हमें इस अभिशाप से उबरना चाहिए. लिहाजा समुदाय भी मानता है कि बाल मजदूरी में कोई खराबी नहीं. परिवार मानकर चलता है कि उसका बच्चा यदि कमाने लायक हो गया है तो कमा कर परिवार की मदद करना उसकी जिम्मेदारी है.

इस बात का नमूना उसी रोज हमें समोद बिगहा गांव में दिख गया. हम बच्चों और उन्हें बाल मजदूरी से बचाने वाली महिलाओं से बात कर ही रहे थे कि उन बच्चों की माताएं भी पहुंच गयीं, जिन्हें इन महिलाओं ने बाल मजदूर बनने से रोका था. उन्होंने जिद की कि वे ऑन कैमरा अपनी बात रखेंगी और उन्‍होंने बताया कि अगर बच्चा बड़ा हो गया है तो काम करने में क्या बुराई है. उनके साथ गलत हुआ है. वे गरीब हैं, बच्चों को पढ़ा नहीं सकतीं. बच्चा कमा कर नहीं लायेगा तो घर कैसे चलेगा. बाद में वे उन महिलाओं से भी झगड़ने लगीं, जिन्होंने पुलिस को इत्तेला देकर उनके बच्चों को काम पर जाने से रोका था.

गया जिले में बाल मजदूरी के मसले पर काम करने वाली संस्थान सेंटर डायरेक्ट के कार्यकारी निदेशक सुरेश कुमार कहते हैं, ‘’यह बहुत जटिल मसला है. परिवार के लोग भी नहीं समझते कि उनके बच्चों के लिए क्या सही है, क्या गलत. जब तक पंचायत और समाज के नेता इस बात को दूसरों को समझायेंगे नहीं, तब तक हालात सुधरने वाले नहीं हैं’’. उनकी संस्था बाल मजदूरी से बचाये गये बच्चों को फिर से मुख्यधारा से जोड़ने में मदद कर रही हैं. जयपुर से 2014 में छुड़ाये गये बच्चे अब इनकी वजह से अपनी पढ़ाई पूरी कर रहे हैं. एक बच्चा तो इंजीनियरिंग पढ़ने जाने वाला है. हकीकत यह है कि किसी संस्था विशेष के छिटपुट प्रयास से कुछ खास नहीं होने वाला.

सुरेश कहते हैं, ‘’एक बड़ी समस्या यह भी है कि सख्त कानून होने के बावजूद बाल मजदूरी में शामिल अपराधियों को आज तक सजा नहीं हुई. इस कानून का कंविक्शन रेट लगभग शूऩ्य है और यह बड़ी समस्या है. इसी वजह से ट्रैफिकर और बाल मजदूरी कराने वाले डरते नहीं. उन्हें कई स्तर पर राजनीतिक संरक्षण भी मिल जाता है. इसलिए जब तक राजनीति के स्तर पर प्रयास नहीं होंगे कुछ नहीं बदलेगा’’.

सच्‍चाई यह है कि मांझी बहुल गया में बाल मजदूरी पर बात करने वाले लोग ही नहीं मिलते. चुनाव का मसला सिर्फ इतना है कि मांझी किसको वोट देंगे. जीतन राम को या विजय मांझी को.


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