‘ब्राह्मण’ होने पर पर ‘गर्व’ करते पत्रकारों का ‘गोडसे प्रेम’ !

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 ”जात-जात में जात है, जस केलन के पात, रैदास न मानुष बन सके जब तक जात न जात”

‘जाति के रहते भारत कभी राष्ट्र नहीं बन सकता।जाति राष्ट्रीय चेतना की राह में रोड़ा है”- डॉ.अंबेडकर

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इस तस्वीर में बाईं तरफ नवीन कुमार हैं और दाईं ओर चित्रा त्रिपाठी। नवीन न्यूज़ 24 में और चित्र इंडिया न्यूज़ में एंकर हैं। नवीन ने कुछ समय पहले ऊँच-नीच की भावना को सैद्धांतिक आधार देने वाले ”ब्राह्मणवाद” की निंदा करते हुए फ़ेसबुक पर एक टिप्पणी पोस्ट की थी जिस पर बड़ा विवाद हुआ। इस विवाद के ज़रिये यह बात समझ में आई कि युवा पत्रकारों की बड़ी जमात को समाजविज्ञान या अन्य अकादमिक अनुशासनों से जुडी बुनियादी जानकारी भी नहीं है। ”ब्राह्मण” और ”ब्राह्मणवाद” को एक मानते हुए नवीन की लानत-मलामत हुई और इसी क्रम में बात यहाँ तक पहुँची कि चित्रा त्रिपाठी ने ऐलान किया कि उन्हें ”ब्राह्मण होने पर गर्व है।” नवीन ने इस पर उन्हें सार्वजनिक बहस की चुनौती दी और 11 जून को मंच भी सजाया, लेकिन चित्रा त्रिपाठी नहीं पहुँचीं। हाँलाकि उन्होंने पहले बहस की चुनौती स्वीकार की थी। बहरहाल, उनके पास ऐसा करने के कारण ज़रूर  रहे होंगे, लेकिन इस संदर्भ में  उनकी ओर से संपर्क किये जाने पर मीडिया विजिल ने भी उनसे जाति गर्व के सैद्धांतिक आधार को स्पष्ट करने का आग्रह किया था, जिसे उन्होंने तवज्जो नहीं दी। 

ख़ैर, इस पूरे प्रकरण से एक बार फिर साबित हुआ कि पत्रकार और पत्रकारिता किस कदर जाति के ज्वर से पीड़ित हैं। इस स्थिति पर अफ़सोस ही किया जा सकता है कि वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों की ओर से इस बीमारी के इलाज का कोई प्रयास नहीं दिखता (बढ़ाने के प्रमाण कई हैं।) यह समाचार कक्षों की सामाजिक बुनावट के कारण भी हैं जहाँ, दलित, आदिवासी, पिछड़े हाशिये पर भी नहीं दिखते। ‘जाति-गर्व ‘का झंडा बुलंद करने वाले पत्रकारों की हालत वैसी ही है जैसे कि वानर से नर बनने की प्रक्रिया में एक शाखा वनमानुष बन कर रह गई। यह संयोग नहीं कि जाति पर गर्व करने वाले अधिकतर ख़ुद को ”राष्ट्रवादी” मानते हैं, जबकि ऊपर वर्णित रैदास और डा.अंबेडकर की कसौटियों के मुताबिक ऐसे लोग मनुष्य ही नहीं हैं और राष्ट्रनिर्माण की राह में बाधा हैं। हद तो यह है कि यह गौरव-बोध गाँधी जी के हत्यारे गोडसे की प्रशंसा तक पहुँच जाता है क्योंकि वह ब्राह्मण था।

मीडिया विजिल नवीन कुमार के इस विस्तृत जवाब के साथ इस बहस को विराम देता है। (चित्रा त्रिपाठी ने  लिखने का आग्रह अस्वीकार कर अपना पक्ष रखने का मौका गँवा दिया है।) पढ़िये नवीन की विवेचना——–

”एक स्वीकृत बहस से भाग खड़े होने के जवाब में भयानक कुंठा, बेबसी, क्षोभ और अहंकार से भरा पत्र पढ़ा। मैं आपकी बेचारगी समझ सकता हूं और सोच रहा हूं कि आपकी वैचारिक दरिद्रता और जातीय पाखंड का क्या जवाब हो सकता है। और यह भी कि जब इस दरिद्रता और पाखंड को ही कोई अपना अर्जित ज्ञान   समझ बैठता है तो उसकी दशा आपकी तरह क्यों हो जाती है?

अब जबकि आप चीख-चीखकर कह रही हैं कि आपको पढ़ने-लिखने सोचने की कोई ज्यादा ज़रूरत नहीं क्योंकि आप व्यावहारिक गुणों से भरपूर एक विदुषी हैं तो कहने को क्या वाकई कुछ बचता है? अपने आपको डिफेंड करने की कोशिश में आपने कल्पेश याग्निक को कोट किया है। आप उन्हें खलिल जिब्रान, नोम चोम्स्की, पाओलो कोएल्हो, प्रेमचंद, धूमिल या पाश मान लेने को स्वतंत्र हैं लेकिन आप समझ नहीं पाईं कि इस कोशिश में आपकी समझ की सीमाएं उधड़कर बेपर्दा हो गई है।

आपने लिखा है कि “मैं देश के बड़े चैनल के महत्त्वपूर्ण ओहदे पर हूं, कुछ भी लिखने या बोलने से पहले देखना पड़ता है कि उसका क्या असर होगा।” क्या वाकई चित्रा त्रिपाठी? फिर तो मान लेना चाहिए कि जब देश के इतिहास को तोड़ा—मरोड़ा जा रहा था, जब बापू के हत्यारे नाथू राम गोडसे को ग्लोरीफाई किया जा रहा था तो आपने बहुत सोच समझकर उसके पक्ष में अपनी पसंद का झंडा उठाया था। अगर आप वाकई बहुत सोच समझकर लिखती बोलती हैं तो आप चार दिन में स्मृतिदोष की शिकार क्यों हो गई हैं।

हालांकि अपनी इस पूरी समझदारी में गोडसे की प्रशंसक होने के कारण आप तार्किकता के महत्त्व को नहीं समझ पाएंगी लेकिन आपको याद दिलाना जरूरी है कि मीडिया विजिल के पोस्ट पर विचलित होकर आपने दो जून की रात के साढ़े बारह बजे सार्वजनिक तौर पर अपने और मीडिया विजिल के पेज पर उसके संचालकों का नंबर देने की एक पोस्ट डाली थी। आपने लिखा था “मैं आपसे बात करना चाहती हूं।” मीडिया विजिल ने इसका एक स्वाभाविक जवाब दिया था लेकिन उस जवाब से घबराकर आपने अपनी पोस्ट डिलीट कर दी थी लेकिन मीडिया विजिल का जवाब अभी भी वहीं है। आप अपनी सहूलियत से भूल गई हों तो पढ़िए।

“MediaVigil नंबर नहीं है, लेकिन साइट के ऊपर दर्ज एक ईमेल हे। आप ब्राह्मण जाति पर अपने गर्व के सैद्धांतिक आधारों को स्पष्ट करते हुए टिप्पणी भेज सकती हैं। यह भी बताइयेगा कि ब्राह्मण या किसी भी जाति में पैदा होने पर किसी को क्यों गर्व होना चाहिए और इसमेें (पैदा होने में) जातक का क्या योगदान है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक तमाम ऐसे मनीषी हुए हैं जिन्होंने जातिप्रथा को मनुष्य होने की राह में रोड़ा बताते हुए इससे मुक्त होने का संदेश दिया था। उनकी नज़र में जाति भेदभाव का सबसे सुगठित तंत्र है जिसकी किसी आधुनिक समाज में कोई जगह नहीं हो सकती। आप इस विचार का खंडन करते हुए अपने तर्क लिख भेजें। मीडिया विजिल में छपेगा।”

आपकी जवाब देने की हिम्मत क्यों नहीं हुई चित्रा जी? आपको लगा कि अब आपकी वैचारिक दरिद्रता और जातीय श्रेष्ठताबोध का पाखंड और बेपर्दा हो जाएगा तो आपने अपनी पोस्ट ही डिलीट कर दी। आप जवाब न देतीं तो न देतीं लेकिन आपने अपनी पोस्ट क्यों डिलीट की? आपने तो उसी दिन एक स्वस्थ बहस में विश्वास को लेकर अपनी नीयत ज़ाहिर कर दी थी।

पता नहीं आपने क्यों सोचा कि यह बहस जीत या हार के लिए है। जबकि हममे से हरेक व्यक्ति वैचारिक तौर पर कुछ ज्यादा ठोस हासिल करने की उम्मीद में वहां पहुंचा था। आप क्यों दहशत से भर गई थीं ? शनिवार और इतवार वाला आपका बहाना बहुत खोखला, बेतुका और विरोधाभासी है। आप तो कहती हैं कि टीवी में एक सेकंड का भी बहुत महत्त्व होता है। फिर आपके लिए क्यों 30 घंटे पहले की तयशुदा बहस का कोई मतलब नहीं रहा। क्योंकि आप चुनौती स्वीकार करने के साथ ही इससे भागने का बहाना ढूंढने लगी थीं।

बड़ी लाजवाब है आपकी न आने की दलील। शुक्रवार को सवेरे ही जब आपको बताया गया कि आयोजन शनिवार को ही है तब भी आपने नहीं बताया कि आप नहीं आएंगी। जबकि आपको यह लिखना याद रहा कि अबतक तुम कहां थे। उसी समय आपने क्यों नहीं कहा कि आप नहीं आ पाएंगी। जब आपको टर्म्स ऑफ रेफरेंस की जानकारी दी गई तब भी आपने नहीं बताया कि आप नहीं आ रही हैं। हद तो तब हुई जब बहस वाले दिन मैं लगातार आपको फोन करता रहा, मेसेज करता रहा कि आप आ रही हैं या नहीं। कम से कम इतना ही बता दें जिससे कार्यक्रम शुरू हो सके। आपके भीतर का वह कौन सा भय था चित्रा जी जिसने आपको फोन उठाने या मेसेज के जवाब देने से रोक दिया? और कार्यक्रम की तस्वीर आते ही आप अपनी अहंकारी मुद्रा के साथ फेसबुक पर हाज़िर हो गईं।

खैर, आपने एक तार्किक बातचीत से पलायन के पक्ष में महान विचारक श्री कल्पेश याग्निक का एक ऐतिहासिक कोट डाला है – “व्यवहार ही सर्वोच्च है, विचार नहीं। व्यवहार का एक ग्राम विचार के एक क्विंटल पर भारी है।” अपनी वैचारिक दरिद्रता, अनपढ़ता और खोखलेपन के पक्ष में आपका यह तर्क लाजवाब कर देने वाला है। आपने एक ही लाइन में स्वतंत्रता के सिद्धांत, लोकतंत्र के सिद्धांत, बराबरी के सिद्धांत, भाईचारे के सिद्धांत और ऐसे तमाम सिद्धांतों को पढ़ने-समझने में समय और ऊर्जा खपाने वालों की कोशिशों को धो पोंछकर बराबर कर दिया है। दूसरे, आपके जवाब में एक बहुत स्वाभाविक उत्कंठा जगाई है। आप किस बाट से तौलती हैं विचार को और फिर उसे कैसे व्यवहार से बदलती होंगी। ग्राम में विचार और क्विंटल में व्यवहार वाली बात सचमुच में अभिनव किस्म की है।

खैर, अब जबकि आपने घोषणा कर दी है कि एक बड़े चैनल के जिम्मेदार ओहदे पर होने के नाते आप लिखने या बोलने से पहले बहुत सोचती हैं और आप अपने व्यावहारिक ज्ञान के सामने पढ़ाई—लिखाई-समझदारी को कूड़ा समझती हैं तो यह तय माना जाना चाहिए कि बापू के हत्यारे के पक्ष में आप बहुत सोच समझकर खड़ी हुई हैं। वह झटके में हुई कोई घटना या भूल नहीं थी। और एक चैनल की एसोसिएट एडिटर होने की जिम्मेदारी का भाव भी गोडसे की आपकी झंडाबरदारी में शामिल है। कहने की जरूरत नहीं कि आप गोडसे को लेकर अपने गर्व के भाव से भागेंगी नहीं और ना ही पोस्ट डिलीट करेंगी। दर्शकों पाठकों की सहूलियत के लिए स्नैपशॉट नत्थी है।

2 जून को सुबह 10 बजके 4 मिनट पर एक पोस्ट डाली जाती है। एक सज्जन मुझे और आपके अलावा दस और लोगों को टैग करते हैं। इतिहास की मामूली जानकारी रखने वाले भी समझ जाएंगे कि उस पोस्ट में तथ्य के नाम पर वाहियात किस्म की जानकारी और विचार के नाम पर अमानवीय घोषणाएं हैं। उस पोस्ट को लिखने वाली के पास जानकारी की दरिद्रता ऐसी है कि वह खुलेआम कहता है आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेना वाले 90 फीसदी लोग ब्राह्मण थे। वह ब्राह्मणों से अलग किसी को महान मानने को तैयार ही नहीं। जरा सूची देखिए

लाल बहादुर शास्त्री

राजेंद्र प्रसाद

सुभाष चंद्र बोस

बिपिन चंद्र पाल

स्वामी सहजानंद

आपने आजादी का बुनियादी इतिहास भी पढ़ा होता तो आपको पता होता कि ये लोग ब्राह्मण नहीं थे। चित्रा जी आप तो बहुत जिम्मेदारी से कुछ भी लिखती-बोलती हैं फिर कैसे इस पोस्ट को वैधता दी? मेरी समझ में तो लाइक का मतलब होता है पसंद करना। आप कह भी चुकी हैं कि आप बहुत सोच-समझकर कुछ लिखती-बोलती हैं। जाहिर है आपकी दंभी व्यावहारिकता को ऐसे घिनौने इतिहासबोध पर सवाल करने की कोई वजह नहीं लगी होगी। एक पत्रकार जब पढ़ने-लिखने से भागता है तो ऐसा होता ही है। फिर आप तो इसपर गर्व भी करती हैं।

पढ़ने में आपके न्यूनतम विश्वास और व्यवहार में अधिकतम विश्वास दोनों को यह महसूस नहीं हुआ कि एक आपराधिक पोस्ट का एक चैनल के संपादकीय ओहदे पर बैठे पत्रकार को अंदाजा होना चाहिए। लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं है। मुझे तो एक इंसान के तौर पर शर्म आती है आगे का लिखा पढ़ते हुए। एक बड़े चैनल के जिम्मेदार पद पर बैठे होने के बावजूद आपने उसमें अपनी पसंद जाहिर की है तो जरूर आपको इसमें कुछ ख़ास बात लगी होगी।

सारे सवाल यहीं खड़े होते हैं। क्या वाकई आपको लगता है चित्रा त्रिपाठी कि

1. “अगर ब्राह्मण का अस्तित्व नहीं होगा तो किसी का अस्तित्व नहीं होगा?”

2. “ब्राह्मणों की उपेक्षा व तिरस्कार की बात सोचने मात्र से सोचने वाले का सर्वस्व पतन शुरू हो जाता है?”

3. “तुम जितनी जल्दी मान लोगे कि तुम्हारा (जनता का) वजूद हमपर (ब्राह्मणों) के वजूद पर ही टिका है, तुम्हारे लिए उतना ही अच्छा होगा।”

आप किस मानसिकता की पत्रकार हैं चित्रा त्रिपाठी? जिन पंक्तियों पर पूरी मनुष्यता को शर्म आ जाए आप उसे अपनी पूरी सोच समझ और जिम्मेदारी के साथ लाइक करती हैं। उसपर मज़े लेती हैं? अब यह मत कहिएगा कि वो तो मैंने ऐसे ही कर दिया था। क्योंकि आप पहले ही कह चुकी है आप बहुत सोच-समझकर कुछ लिखती-बोलती हैं क्योंकि आप एक बड़े चैनल के जिम्मेदार ओहदे पर बैठी हैं। लेकिन आपकी जानकारी और पसंद की यह अंतिम सीमा नहीं थी।

उस पोस्ट में आगे तमाम ब्राह्मणों के गुण गिनाए गए हैं। कि जब वह दान पर आता है तो दधीचि हो जाता है, लेने पर आता है तो सुदामा हो जाता है वगैरह-वगैरह। उसी पोस्ट के आखिर में लिखा है

“अगर ब्राह्मण निराश होता है तो नाथू राम गोडसे हो जाता है।”

नाथूराम गोडसे होने का मतलब क्या होता है चित्रा जी? वह अपनी नफरत के मारे गांधी की हत्या कर देता है। गजब है आपकी पसंद कि अगर ब्राह्मण निराश होता है तो नाथूराम गोडसे हो जाता है। आप इस पोस्ट को न सिर्फ लाइक करती हैं बल्कि इसपर एक अप्रत्याशित गर्व से भर जाती हैं। आप इस गर्व को संभाल नहीं पातीं। सवाल भी पूछती हैं।

“इतनी जानकारी कहां से जुटाई?”

मतलब आप न सिर्फ इन लिजलिजी सोच को अपनी लाइक की वैधता देती हैं बल्कि उसके महान जानकारी होने पर गर्व का इज़हार भी करती हैं। आप किस मानसिकता की पत्रकार हैं चित्रा त्रिपाठी? आप पढ़ने-लिखने से नफरत करती हैं तो कीजिए। हैरत तो इस बात की है कि ब्राह्मण होने का आपका जातीय अहंकार इस कदर जोर मारता है कि आप नाथूराम गोडसे जैसे बापू के हत्यारे पर सार्वजनिक गर्व के इज़हार पर मजबूर हो जाती हैं। आपके सवाल का जवाब दिया जाता है

“रिसर्च करना पड़ा। गोरेलाल की भी मदद मिली। ब्राह्मण एक हो रहे हैं। आप सभी सहभागी हो।”

आपकी ढिठाई की इंतिहा ये है कि आप इसपर हमें ही लानतें भेजने लगीं। बेशर्म कहने लगीं। नाथू राम गोडसे पर नाज करने वाली पोस्ट को पूरी जिम्मेदारी के साथ लाइक करने वाली एक बड़े चैनल की पत्रकार को कोई झिझक नहीं और सवाल उठाने वाला बेशर्म हो गया। आपके साहस को सलाम है चित्रा जी। वाकई नाथूराम गोडसे के पक्ष में खड़ा होने के लिए जिगर चाहिए। अच्छा हुआ आप बहस से भाग खड़ी हुईं। आपकी इस ढिठाई के सामने तो मैं तब भी हाथ जोड़ देता। फिर तो अगर आप हाफिज सईद और मौलाना मसूद अजहर की शान में लिखे गए पोस्ट को भी लाइक करेंगी या उसके पक्ष में तैयार रिसर्च पर नाज़ करेंगी तो किसी को कोई हैरत नहीं होगी।

जिस पत्रकार की वैचारिक पसंद ये हो कि पूरी दुनिया का वजूद ब्राह्मणों से है और उसके तिरस्कार की बात सोचने से भी सबकुछ लुट जाता है तो इसमें कहने सुनने को क्या बचता है? एक पत्रकार जब ब्राह्मणवादी होने के अहंकार में गोडसे के ब्राह्मण होने पर गर्व करने लगता है तो उसकी मानसिक स्थिति का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं रह जाता।

मानवता को लेकर आपकी नफरत इस कदर है कि आपको लगता ही नहीं कि ब्राह्मणों की कृपा से अलग किसी व्यक्ति का कोई वजूद है। आपको यह नफरत मुबारक। आपको नाथूराम गोडसे को लेकर आपका जातीय गुमान मुबारक। ज्ञान का वह कचरा मुबारक जो आपको एक जबरदस्त रिसर्च का ज़ाया लगता है। आपको जानकारियों का वह कूड़ेदान मुबारक जो पत्रकारिता ही नहीं किसी भी सोच समझ वाले आदमी के लिए आपराधिक और शर्मनाक है। मेरी तरह के तमाम लोग सिर्फ इतने को लेकर फिक्रमंद हैं कि एक बड़े चैनल के जिम्मेदार ओहदे पर बैठी पत्रकार जो कि बहुत सोच-समझकर लिखने-बोलने का दावा करती है, ऐसी सोच के साथ न्यूज़ रूम में दाखिल होती होगी तो उनकी अज्ञानता और असंवेदनशीलता का आतंक कितना भयानक होता होगा।

आपसे मुझे कोई शिकायत नहीं। आपकी प्रतिभा पर कोई शक नहीं। आपके ज्ञान पर भी कोई सवाल नहीं। क्योंकि आपको वाकई नहीं पता कि आपने क्या कर डाला है, क्या किए जा रही हैं और क्या करेंगी। लेकिन आपकी वैचारिक दरिद्रता देखकर दिल से दुखी ज़रूर हूं। आपको सच में नहीं पता रहा होगा कि गैर ब्राह्मणों को भी स्वाभिमान से जीने का हक होना चाहिए और वह किसी की कृपा से नहीं होना चाहिए। आपको सच में नहीं पता रहा होगा कि ब्राह्मणों के तिरस्कार से दुनिया नष्ट नहीं होती। आपको सच में पता नहीं रहा होगा कि भारतीय आजादी की लड़ाई में लड़ने वाले “90 फीसदी लोग” ब्राह्मण नहीं थे। लेकिन जब आप नाथूराम गोडसे के ब्राह्मण होने पर गर्व करने की अपनी पसंद पर आह्लादित हो जाते हैं तो सच में मन उदास हो जाता है। आपको और आपके मुरीदों को बुरा लग रहा होगा लेकिन अब यह आपके बायोडाटा के साथ नत्थी हो चुका है कि आपको नाथूराम गोडसे के ब्राह्मण होने पर गर्व है।

चित्रा जी यह सवाल किसी नवीन कुमार, किसी चित्रा त्रिपाठी या किसी रमेश, प्रवीण या अनिल का नहीं है। यह प्रश्न संवेदना के उन सिरों के बचे रहने या उन्हें काटकर खत्म कर देने का है जो पत्रकारिता के विमर्श तय करते हैं। मुझे अफसोस है कि आदमी को आदमी न समझने, उसके ब्राह्मणों के रहमो करम पर जिंदा रहने और नाथूराम गोडसे के ब्राह्मण होने पर अभिमान की सोच रखने के अपराध में आप अकेले नहीं है। लेकिन आप तो एक बड़े चैनल की सहायक संपादक हैं। आपको सचमें अफसोस नहीं होता कि आपको भारतीय इतिहास और सामाजिक व्यवस्था की बुनियादी जानकारी भी नहीं है? आपको मेरे सवालों का जवाब देने की जरूरत नहीं है। लेकिन खुद से भी नहीं पूछतीं कभी? नाथूराम गोडसे के गर्व में शामिल हो जाने की हद तक जा पहुंचे आपके ब्राह्मणवादी अहंकार में अगर कुछ है भी तो आपका अर्जित क्या है? मेरे लिए यह विषय अब बंद है। एक बार फिर से आपकी योग्यता और आपकी समझदारी को सलाम।”navin1navin2navin 4navin5navin6navin8

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