ब्रह्मांड में कहीं दूर कोई दुनिया कुछ अपने जैसी…!

मीडिया विजिल मीडिया विजिल
अभी-अभी Published On :


चंद्रभूषण


पांच सौ साल पहले तक सूरज, चांद, सितारों को एक साथ दिखाने वाला जो भी मॉडल तैयार किया जाता था, उसके केंद्र में पृथ्वी ही हुआ करती थी। फिर कॉपरनिकस ने पृथ्वी को धकियाकर सूरज को इस मॉडल के केंद्र में ला दिया और उनके कोई सौ साल बाद गैलिलियो ने इस तस्वीर को इतना बदल दिया कि पृथ्वी का ब्रह्मांड की धुरी होना तो दूर, बड़ी तस्वीर में इसका मुकाम ही खोजना मुश्किल हो गया।

तब से अब तक- और शायद सौ-पचास साल बाद भी- हम मानव जाति के लोग इसी सोच के साथ जीने को बाध्य हैं कि इस अनंत ब्रह्मांड में देखने की जगह के तौर पर हमारे ग्रह में भले ही कुछ खास न हो, पर देखने वाले (यानी हम जिंदा लोग) तो ले-देकर यहीं बसते हैं। इतनी लंबी खोजबीन के बावजूद बुद्धिमान जीवों की बात ही छोड़िए, एक अदद बैक्टीरिया तक का निशान धरती से बाहर कहीं और खोजा नहीं जा सका है!

लेकिन फर्ज कीजिए, कल को मंगल ग्रह पर जीवन का कोई नया या पुरातन चिह्न खोज लिया जाता है, या सुदूर अंतरिक्ष में किसी ऐसे पिंड की पहचान कर ली जाती है, जहां जीवन न सही, जीवन के लिए जरूरी समझी जाने वाली परिस्थितियां मौजूद हों, फिर संसार में अपनी जगह को लेकर हमारा नजरिया क्या होगा! बोध के स्तर पर यह कॉपरनिकन क्रांति जैसी ही कोई चीज होगी और ज्ञान का एक अनूठा क्षितिज हमारे आगे खुलने लगेगा।

अभी इस दिशा में संभावित हलचलें कला और कल्पना के दायरे में जारी हैं। ‘इंटरस्टेलर’ और उससे पहले ‘सोलारिस’ या ‘अवतार’ जैसी फिल्मों में हमने पराये सौरमंडलों की यात्रा की है। जाहिर है, इसकी प्रेरणा धरती पर मंडरा रहे पर्यावरणीय और नाभिकीय खतरों से आई है। हकीकत में इसे कुछ ज्यादा ही दूर की कौड़ी कहना ठीक रहेगा। जिस तरह के संकट हम इस ग्रह के सामने खड़े कर रहे हैं, वे अगले दो-तीन सौ वर्षों में ही धरती पर मानव जीवन को असंभव बना देने के लिए काफी हैं, जबकि जिन तकनीकों की कल्पना इन फिल्मों में की गई है, उनके विकास के लिए शायद हजार साल भी नाकाफी हों।

बहरहाल, पृथ्वी छोड़कर किसी और तारे के इर्द-गिर्द मंडराने वाले सुरक्षित ग्रह पर जा बसने की बात अभी विज्ञान के अजेंडे पर ही नहीं है। जीवन के लिए उपयुक्त स्थितियों वाला ग्रह ढूंढ निकालना भी अभी खोज का केंद्र बिंदु नहीं है, क्योंकि इस काम के लिए जैसी तकनीक की जरूरत है, वह कम से कम पचास साल दूर है। अभी तो एस्ट्रोफिजिक्स (तारा भौतिकी) से जुड़े वैज्ञानिकों के लिए सबसे बड़ी समस्या पिछले दो सौ वर्षों से स्वीकृत कांट और लाप्लास के ग्रह निर्माण सिद्धांत से पीछा छुड़ाने की है।

1992 तक ब्रह्मांड में सौरमंडल के सिवा एक भी ग्रह की खोज का दावा नहीं किया जा सका था। फिर यह सिलसिला टूटा धरती से 50 प्रकाशवर्ष दूर एक विशाल गर्म ग्रह 51 पेगासी बी की खोज के साथ, जिसे बाद में डिमिडियम नाम दिया गया। इसके बाद खोज की रफ्तार देखिए कि इस महीने की पहली तारीख, 1 नवंबर 2018 तक 3874 परा-ग्रहों (एक्सोप्लैनेट्स) की पुष्टि की जा चुकी है। ये ग्रह 2892 तारों के इर्द-गिर्द फैले हैं, जिनमें 638 के पास एक से ज्यादा ग्रह हैं।

तारा-भौतिकीविदों की परेशानी समझने से पहले एक नजर उनकी मानसिकता पर। ये बंदे एक से एक शानदार तारों, अरबों सूर्यों के वजन वाले ब्लैकहोलों, आपस में टकराकर सोने के बादल रच देने वाले न्यूट्रॉन सितारों, नीहारिकाओं और ब्रह्मांड की शुरुआत करने वाली बिग बैंग जैसी सिर चकरा देने वाली घटनाओं के अध्येता हैं। तारों पर मच्छरों की तरह मंडराने वाले धुंधले-मंदे ग्रह उनके लिए कभी सोच-विचार का विषय रहे ही नहीं।

लेकिन एक वैज्ञानिक के लिए अपवाद हमेशा नियम से ज्यादा दिलचस्पी की चीज होते हैं क्योंकि नए नियमों की खोज का सुराग वहीं से मिलता है। यहीं पलड़ा तारों से हटकर बुरी तरह ग्रहों की तरफ झुक जाता है। ऊपर जिन चमत्कारिक चीजों का जिक्र किया गया है, वे सब प्राय: किसी गुलाम की तरह भौतिकी के नियमों का पालन करती हुई दिखती हैं। लेकिन जो तकरीबन 4000 ग्रह अब तक खोजे जा सके हैं, वे सभी ग्रह विज्ञान के एकमात्र सर्व-स्वीकृत मॉडल की बखिया पहले दिन से ही उधेड़ रहे हैं।

ग्रह निर्माण का सिद्धांत बताता है कि तारा बनने के क्रम में बचा पदार्थ उसके घूर्णन तल में ही ग्रहों के रूप में संघनित होता है- तारे के सबसे नजदीक छोटे, ठोस चट्टानी ग्रह, बीच में विशाल गैसीय ग्रह, सबसे ज्यादा दूरी पर जमे हुए, बर्फीले और अपेक्षाकृत छोटे ग्रह, फिर धूल और बहुत छोटे पिंडों का एक बादलनुमा ढांचा। लेकिन जो ग्रह अभी तक खोजे गए हैं, उनमें साठ फीसदी सुपर-अर्थ की श्रेणी में हैं। अपने तारे के बहुत करीब घूमने वाले, बेहद गर्म, धरती के तीन-चार गुना वजनी ठोस ग्रह, जिनपर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।

उसके बाद हॉट जुपिटर्स का नंबर आता है, यानी वृहस्पति के आकार वाले या उससे भी कई गुना वजनी, नरक जितने गरम गैसीय ग्रह, अपने तारे से तकरीबन सटे-सटे घूमते हुए। तीसरी श्रेणी सुपर-नेपच्यून्स की है- अपने तारे से बहुत ज्यादा दूर विशाल जमे हुए ग्रहों की। और इनकी कक्षाएं भी एक से एक टेढ़ी-बांकी! ऐसी चीजें हमारे सौरमंडल में मिलती ही नहीं, सो अभी तो जरूरत एक ऐसा सिद्धांत बनाने की है, जिससे ग्रह-निर्माण का कुछ सिर-पैर समझा जा सके।

यहां एक सवाल यह भी है कि क्या हमारे पास सिद्धांत बनाने लायक तथ्य भी हैं? अभी ग्रहों की खोज के लिए मौजूद दो तकनीकों में एक तारे से बहुत नजदीक के ग्रह को पकड़ पाती है, दूसरी उससे बहुत दूर के ग्रह को। इस साल अप्रैल में छोड़े गए ट्रांजिटिंग एक्सोप्लैनेट सर्वे सैटेलाइट (टेस) से अगले दो साल में कुल 40 हजार एक्सोप्लैनेट्स की शिनाख्त की उम्मीद की जा रही है। लेकिन बीच की दूरी वाले ग्रहों पर काम करने के लिए सारा भरोसा जिस जेम्स वेब स्पेस टेलिस्कोप पर टिका था, उसकी लांचिंग डेट कई बार टलते-टलते अब 2021 में चली गई है। तो समझ का एक नया दायरा खुल जरूर रहा है, पर यह काम उतनी जल्दी नहीं हो पाएगा, जितनी जल्दी सिनेमा में हो जाता है।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।