शर्मनाक: मेरठ के अस्पताल ने विज्ञापन देकर मुस्लिमों के इलाज से इंकार किया

देवेश त्रिपाठी
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कोरोना वायरस के हमले के कारण और निवारण को लेकर दुनिया भर की प्रयोगशालाओं में हज़ारों विज्ञानी आँखें फोड़ रहे हैं, लेकिन भारत में इसका कारण तबलीगी जमात के  एक कार्यक्रम (जो लॉकडाउन के पहले हुए) को बताते हुए घृणित सांप्रदायिक अभियान चलाा जा रहा है। हद तो ये है कि मोदी सरकार के अफसर नियमित प्रेस ब्रीफिंग में यह बताना नहीं भूलते कि कुल मामलों में कितने प्रतिशत तबलीग़ से जुड़े हैं। इस इस्लमोफोबिया ने समाज के बड़े वर्ग को अपनी जकड़ में ले लिया है और अब तो मेरठ के एक अस्पताल ने विज्ञापन देकर ऐलान कर दिया है कि वह मुस्लिम मरीज़ों का इलाज नहीं करेगा।

मामला मेरठ के वेलेंटिस कैंसर अस्पताल से जुड़ा है। वेलेंटिस कैंसर अस्पताल के प्रबंधन ने दैनिक जागरण के मेरठ संस्करण में 17 अप्रैल को यह विज्ञापन दिया था कि वह मुस्लिम मरीज़ों का इलाज नहीं करेगा,अगर मरीज़ या उसके साथ तीमारदारी करने आये परिजन अपने साथ कोविड-19 संक्रमण की निगेटिव जांच रिपोर्ट साथ लेकर नहीं आते।

विज्ञापन का एक हिस्सा कहता है, ‘हमारे यहां भी कई मुस्लिम रोगी नियमों व निर्देशों (जैसे मास्क लगाना, एक रोगी के साथ एक तीमारदार, स्वच्छता का ध्यान रखना आदि) का पालन नहीं कर रहे हैं व स्टॉफ से अभद्रता कर रहे हैं। अस्पताल के कर्मचारियों एवं रोगियों की सुरक्षा के लिए अस्पताल प्रबंधन चिकित्सा लाभ प्राप्त करने हेतु आने वाले नये मुस्लिम रोगियों से अनुरोध करता है कि स्वयं व एक तीमारदार की कोरोना वायरस संक्रमण (कोविड-19) की जांच कराकर एवं रिपोर्ट निगेटिव आने पर ही आयें। कोरोना महामारी के जारी रहने तक यह नियम प्रभावी रहेगा।’ 

वेलेंटिस अस्पताल का यह विज्ञापन न सिर्फ़ स्वास्थ्य मंत्रालय के रोगियों के अधिकारों के घोषणापत्र की अवहेलना करता है, बल्कि भारतीय संविधान की धज्जियां भी उड़ाता है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का घोषणापत्र साफ़ कहता है कि किसी भी मरीज़ को उसके धर्म, जाति, नस्ल, जेंडर, यौनिकता, भाषा, उम्र, भौगोलिक उत्पत्ति या किसी भी बीमारी के आधार पर इलाज से मना नहीं किया जा सकता या भेदभाव नहीं किया जा सकता।

मेरठ पुलिस ने मामले को संज्ञान में लिया है और कार्रवाई करने की बात कही है।

यह स्पष्ट है कि अस्पताल का यह विज्ञापन उस सांप्रदायिक अभियान की परिणति है, जो पिछले कुछ अरसे से देश में जारी है। निजामुद्दीन मरकज़ में तबलीग़ी जमात के लोगों के इकट्ठा होने का मामला सामने आने के बाद से ही टीवी मीडिया और समाचार पत्रों की रिपोर्टिंग में लगातार यही छवि पेश की गयी है कि जैसे तबलीग़ी जमात ने ही पूरे देश में कोरोना फैलाया है। बीजेपी आईटी सेल से लेकर खुद सरकार ने भी समय-समय पर इसे मान्यता दी है। कुल मिलाकर भारत में कोरोना का इतना हिंदू-मुसलमान कर दिया गया है कि लोग भूल गये है कि इस बीमारी से कोई भी इंसान संक्रमित हो सकता है या किसी भी इंसान के माध्यम से संक्रमण फैल सकता है।

हाल में कोलकाता के नीलरतन सरकार मेडिकल कॉलेज व अस्पताल के डॉक्टर अर्चिष्मान भट्टाचार्य ने बेहद सांप्रदायिक तस्वीर अपने फेसबुक वाल पर साझा की थी, जिसके बाद बड़ा बवाल मचा था बाद में डॉ अर्चिष्मान ने पोस्ट हटा दी थी और बहाना बनाया था कि उनका फेसबुक अकाउंट हैक कर लिया गया है. उन्हें जानने वाले बताते हैं कि डॉक्टर साहब ऐसा करते रहते हैं.

मीडिया का मुस्लिम पहचान पर हमला

हाल में इंडिया टुडे समूह ने तो ऐसा ग्राफिक इमेज प्रस्तुत कर दिया था, जो सीधे-सीधे मुस्लिम पहचान पर हमला कर रहा था। इसमें बड़े-बड़े शब्दों में दावा किया गया था कि भारत के सभी मामलों में से 60 फीसदी के तार तबलीग़ी जमात से जुड़े हुए हैं। कहीं पर भी यह नहीं बताया गया कि कितने लोगों से सैंपल लिए गये व तबलीग़ी जमात के मामलों का अनुपात क्या था। ख़ैर, इस ग्राफिक की आलोचना हुई तो बाद में इंडिया टुडे ने इसे डिलीट कर दिया था। 

‘द हिंदू’ जैसे प्रतिष्ठित अख़बार ने भी कुछ दिन पहले एक कार्टून छापा था, जो निहायत ही सांप्रदायिक था और मुस्लिम पहचान पर हमला करने वाला था इसे लेकर जब हल्ला मचा तो कार्टून हटा लिया गया था

लगातार ऐसे खबरें चलायी गयीं कि जमाती थूक रहे हैं, स्वास्थ्यकर्मियों के अभद्रता कर रहे हैं, लोगों को पीट रहे हैं। इन ख़बरों का प्रस्तुतिकरण कुछ यूं था कि वे मुस्लिम पहचान पर हमला कर रही थीं। कई ख़बरें तो इतनी झूठी थीं कि पुलिस या प्रशासन को सामने आकर उन्हें खारिज़ करना पड़ा। लेकिन जब तक इन्हें खारिज़ किया जाता, ज़हर तो अपना काम कर चुका था। 

कपिल मिश्रा जैसे नेताओं ने मीडिया के अफवाह फैलाने और रेलवे की गलतियों के चलते बांद्रा स्टेशन पर जुटे घर जाने को तड़पते मज़दूरों के मामले को भी स्टेशन के सामने ही मौजूद मस्जिद की तस्वीर से जोड़कर सांप्रदायिक कर दिया था। अफ़वाह फैलाने के लिए एबीपी माझा के एक पत्रकार की तो गिरफ़्तारी भी हुई थी। लेकिन, हर बार की तरह आम जनमानस में यह धारणा बैठ चुकी थी कि मुसलमान जानबूझकर कोरोना फैला रहे हैं। 

सरकार के लिए महामारी का सांप्रदायिकरण फायदेमंद

एक तरफ़ खुद सरकार कहती है कि कोरोना से लड़ाई के बीच किसी भी तरह के दोषारोपण से बचा जाये, लेकिन खुद उसी सांप्रदायिक अभियान को ईंधन प्रदान कर देती है। बीते शनिवार, स्वास्थ्य मंत्रालय ने बयान जारी किया कि अभी तक मामलों में 30 फीसदी मामले सीधे निजामुद्दीन मरकज़ में हुए कार्यक्रम के कारण फैले हैं। 

यूपी के तो मुख्यमंत्री खुद लॉकडाउन के बीच धार्मिक आयोजन करने पहुंच गये थे। पहले की सारी घटनाएं जाने देते हैं, अभी कर्नाटक के कलबुर्गी जिले में 16 अप्रैल को हज़ारों लोगों के मिलकर रथ यात्रा निकालने की ख़बर आयी थी। बीते सोमवार ही बनारस में हज़ार से अधिक श्रद्धालुओं को खुद सरकार ने बस से उनके गृहराज्य भेजा है। न तो मीडिया ने तबलीग़ी जमात के अंदाज़ में उनके ‘छिपे’ होने की रिपोर्टिंग की, न ही किसी और ने श्रद्धालुओं की पहचान पर हमला किया या उन्हें जानबूझकर कोरोना फैलाने का दोषी बोला।

सांप्रदायिक राजनीति ने हालिया सालों में लिंचिंग की घटनाएं पैदा की, कश्मीरियों पर जगह-जगह हमले किये गये। इस बीच देश की अर्थव्यवस्था फेल होती रही, किसान मरते रहे, नौकरियां जाती रहीं, लेकिन ये कभी राष्ट्रीय मुद्दे नहीं बने। और जब कोरोना महामारी के बीच लॉकडाउन हुआ, हज़ारों मज़दूर पैदल जाते दिखे, सरकार पर अव्यवस्था को लेकर सवाल उठे तो मीडिया फिर बीच में तबलीग़ी जमात ले आया। साफ़ दिखता है कि केंद्रीय सत्ता में बैठी सरकार को यही मुस्लिम पहचान पर हमला करने वाली मीडिया और सांप्रदायिक राजनीति रास आ रही है। इसलिए खुलेआम टीवी, अख़बारों के ज़रिये ज़हरखुरानी चालू है। 

वेलेंटिस कैंसर अस्पताल का यह फैसला न सिर्फ़ भेदभावपूर्ण है, बल्कि इलाके के मुस्लिमों के लिए खतरनाक भी साबित हो सकता है। अस्पताल ने 18 अप्रैल को फिर से दैनिक जागरण में ही पिछले विज्ञापन को लेकर माफ़ीनामा छपवाया था। हालांकि, ऐसा प्रतीत होता है कि यह विज्ञापन पिछले विज्ञापन के उस बिंदु के संदर्भ में था, जिसमें उन्होंने हिंदू व जैन पहचान के लोगों को कंजूस बोल दिया था।